गुरुवार, अक्तूबर 29, 2009

हल्के हल्के फैलती है
उदित होते प्रका कि खु'ाबू
स्पष्ट झलकने लगते हैं
नदी, पहाड, जंगल
खूबसूरती और बदसूरती
साथ ही
गीली मिटटी पर अक्षर भी
लेकिन
मेरी आंखों में बस एक ही सपना
कइ सदियों से
कइ जन्मों से
और
इसी रो'ानी की तला'ा है मुझे

रविवार, अक्तूबर 04, 2009

खबर

पता चला है कि डीएलए आगरा से शशांक शेखर बाजपेयी ने इस्तीफा दे दिया है और नई पारी आइ नेक्स्ट आगरा के साथ शुरू की है।

इसी प्रकार धमेन्द्र सिंह ने नई पारी अमर उजाला, अलीगढ के साथा शुरू की है। वे इससे पहले दैनिक जागरण इलाहाबाद और अलीगढ में काम कर चुके है। वे आगरा अमर उजाला में भी कुछ समय के लिए काम कर चुके हैं।

सोमवार, सितंबर 28, 2009

अलविदा ब्लॉगवाणी

ब्लाग वाणी के बंद होने का समाचार मिला। सुनकर एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन जब खुद जाकर देखा तो विश्वास करना ही पडा, न करता तो क्या करता। ब्लागवाणी के जाने का गम तो बहुत है पर क्या करूं। हालांकि बंदी का जो कारण बताया गया वो समझ से परे था। ब्लाग वाणी के माध्यम से न जाने कितने ही लोगों को अपनी आवाज बुलंद करने का सुअवसर मिला था। उन सबसे एक माध्यम छिन गया है। इसके लिए किया क्या जा सकता है बस दुख ही प्रकट किया जा सकता है और यह प्रणा लिया जा सकता है कि आगे से ब्लाग के किसी अन्य माध्यम को कदापि बंद नहीं होने देंगे।
कुछ लोग कह रहे हैं कि इससे ब्लागरों की सेहत पर बहुत गलत असर पडेगा बात सही है लेकिन यह बात मैं मानने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं कि इसके बाद अन्य ब्लाग भी बंद हो जाएंगे। हालांकि सच कहूं तो अभी भी मन करता है कि कोइ कह दे कि नहीं ब्लाग वाणी बंद नहीं हुआ वह सब बस एक मजाक भर था पर ऐसा हो नहीं सकता।

गुरुवार, सितंबर 24, 2009

थरुर को चाहिए सिनकारा

बात यहीं से शुरु करता हूं। शाशि थरुर साहब का कहना है कि वे काम के बोझ के मारे हैं। सोशल नेटवकिग साइट टिवटर पर थरुर साहब लिखते हैं कि बुधवार को उनका १७ बैठकों और मुलाकातों का बेतुका कायकज़म था। वे यहीं नहीं रुके आगे बोले कि जब आप विदेश से वापस आते हैं तो हमेशा उसकी कीमत अदा करते हैं। इस दोरान थरुर साहब ने आफिस में पडी फाइलों का भी जिक किया। वे करीब एक हफते तक आफिस से गैर हाजिर थे। आप जानते ही होंगे कि शशि थरुर साहब भारत के विदेश राजय मंञी हैं। थरुर साहब काम के बोझ के मारे हैं। लेकिन एक बात गौर करिये वे टिवटर पर लिखना नहीं भूलते। इसके लिए समय निकाल ही लेते हैं। मेरी यह समझ में नहीं आता कि थरुर साहब से लोकसभा चुनाव लडने के लिए किसने कहा था। किसी ने नहीं कहा। चलिए मान लेते हैं लेकिन जीतने के बाद उनसे मंञी बनने के लिए किसने दवाब डाला। किसी ने नहीं तो वे मंञी कयों बन गए। अरे अगर काम करने का मन नहीं था तो मंञी बनने की कया जरुरत थी। अभी भी मन नहीं है तो इसतीफा कयों नहीं दे देते। किसी ने रोका हो तो उसका नाम बताइये। आप देश के विदेश राजय मंञी के पद पर बैठे किसी वयकित से इस तरह के बयान की उममीद कैसे कर सकते हैं। उनके बयान से तो एसा लगता है कि वे काम करके किसी पर अहसान कर रहे हों। अरे साहब रहने दीजिए मत काम कीजिए। िबला वजह परेशान कयों हो रहे हैं। आप टिवटर पर ही अचछा लिखते हैं वहीं लिखये जैसे मैं बलाग पर अचछा लिखता हूं। और हां अगर मंञी पद नहीं छोडना जो नहीं ही छोडना होगा तो आपको चाहिए सिनकारा। है न।

बुधवार, अगस्त 19, 2009

खबर

खबर है कि नीरज मिश्रा ने डीएलए आगरा से इस्तीफा दे दिया है। वे अब दैनिक भास्कर ग्वालियर में ज्वाइन करने जा रहे हैं। नीरज ने डीएलए आगरा में तीन महीने काम किया। वे इससे पहले अमर उजाला आगरा अौर हिन्दुस्तान लखनउ में काम कर चुके हैं।

रविवार, अगस्त 02, 2009

शुक्रिया राखी



राखी का स्वयंवर आखिरकार खत्म हो ही गया और मुझे ब्लाग लिखने की फुर्सत भी मिल ही गई। भइ क्या क्या नहीं हुआ इस स्वयंवर में घरों में, आफिसों में जहां भी देखो बस राखी और राखी का स्वयंवर। मैं भी इतना व्यस्त रहा कि कुछ कर ही नहीं पाया। जब टीवी खोलो तो राखी का स्वयंवर और अखबार पढो तो राखी का स्वयंवर। हालांकि हुआ वही जिसकी उम्मीद थी। इलेश ही राखी के लिए बना हुआ था।मैं राखी को तहे दिल से 'कि्रया इस लिए अदा कराना चाहता हूं कि अगर राखी ने स्वयंवर न रचाया होता तो हम आने वाली पीढी को कैसे बताते कि हमारे समय में भी एक स्वयंवर देखा था। हमारे पुरखे जब हमें बताते थे कि सीता ने स्वयंवर रचाया था, द्रोपदी ने स्वयंवर रचाया था तो लगता था कैसे रचाया गया होगा स्वयंवर। लेकिन धन्यवाद है राखी का कि उन्होंने हमें भी यह सब देखने का मौका दिया। कुछ भी हो। कितनी भी आलोचना हो पर एक बात तो है कि राखी ने जो किया वो हर किसी के बस की बात नहीं। पूरे पूरे परिवार के पास जैसे एक ही काम था और वह था राखी का स्वयंवर देखना। मैं इसलिए इतना खुश हूं कि हो सकता है राखी की देखा देखी हो सकता है किसी और का भी स्वयंवर हो जाए। इस बार तो मौका चूक गया लेकिन अगली बार मैं भी स्वंयवर का प्रबल दावेदार होउंगा। अब देखना यह है कि कब और किसका होता है स्वयंवर।

शनिवार, जून 06, 2009

वंशवादी राजनीति और कांग्रेस

नई सरकार का गठन हो गया है। सरकार ने काम काज संभाल लिया है। राष्ट्रपति का अभिभाषण भी हो गया है। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। जिस दिन मंत्रिमंडल का दूसरे दिन का विस्तार किया गया, उसी दिन से एक बात सुर्खियों में रही की इस बार मंत्रिमंडल में परिवारवाद हावी है। इस परिवारवाद को युवाओं को राजनीति में लाने के नाम पर आगे किया जा रहा है। नई कैबिनेट में कुल 16 मंत्री ऐसे है जो किसी न किसी बड़े राजनेता के रिश्तेदार है । यानी मंत्रिमंडल का कुल 20 फीसद। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है । नेता हमेशा से इस प्रयास में रहते है की उनके ठीक ठाक रहते उनका कोई रिश्तेदार राजनीति में अपनी जड़ें जमा ले।
दुखद तथ्य तो ये है की नस्लाबादी संस्कृति को बदाबा देना मूलतः कांग्रेस ने शुरू किया। देश के पहले प्रधानमंत्री और बच्चों के बड़े प्यारे दुलारे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से वंशवादी राजनीति की नींव राखी। नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा को बदाबा दिया जो बाद में संजय और राजीव को राजनीत में लाईं। और इसी के बाद का इतिहास तो मुझे लगता है सभी जानते है।
अगर हम गौर करें तो पाएंगे की सरदार पटेल ही एक ऐसे नेता थे जिन्होंने वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया। इसके बाद तमाम प्रधानमन्त्री और विभिना प्रदेशों के मुख्यमंत्री अपने पुत्र -पुत्रियों को आगे लाये। कैरों से लेकर करूणानिधि। पन्त से लेकर परमार्थ। देवीलाल से भजन लाल। चरण सिंह से अर्जुन सिंह और देवेगौडा तक वंशवाद जारी है। बात १९६० की है प्रसिद्ध पत्रकार फ्रैंक मौरांस ने लिखा था की इस बात का सवाल ही नहीं उठता की जवाहर लाल नेहरू अपनी वंशनुगत राजनीति की स्थापना का प्रयास कर रहे है। उन्होंने लिखा की यह बात पंडित नेहरू के चरित्र और राजनितिक जीवन से मेल ही नहीं खाती। गौर करिए के यह बात 1960 में लिखी गई थी। यह व्ही साल था जब जवाहर लाल नेहरू की पुत्री कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पहला कार्यकाल पूरा किया ही था। इस कार्यकाल के बाद इंदिरा गाँधी घर की देखभाल तक सीमित हो गयीं थी। 1984 में पंडित नेहरू का निधन हो गया। प्रधानमन्त्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा को कनिष्क मंत्री के रूप me अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। 1966 में शास्त्री का भी निधन हो गया। इसके बाद कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इंदिरा को प्रधानमंत्री ने नियुक्त किया। इस के कारणों पर अगर जायें तो पता चलता है की यह निर्णय इसलिए हुआ क्योंकि उस समय नेता अपने बीच में से किसे को प्रधानमंत्री चुनने के लिए तैयार नहीं थे। इस सब को जानने के बाद लगता है की कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की शुरुआत वास्तव में नेहरू ने नहीं बल्कि इंदिरा ने शरू की थी। नेहरू पर हमेशा अपनी पुत्री को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे। लेकिन नेहरू ने कभी भी प्रत्यक्ष रूप से इस विषय पर अपने विचार व्यक्त नहीं किया। इंदिरा गाँधी अपने राजनितिक उत्तराधिकारी के रूप में संजय गाँधी को सामने लायें। 1975-77 के समय में जब आपातकाल लगा था तब बिना कुछ बने ही संजय अपनी माँ के बाद दुसरे सबसे शत्तिशाली व्यक्ति थे । उस समय संजय न तो संसद थे और न ही मंत्री। संजय ने 1977 में चुनाव लड़ा, पर वे हार गए। इसके बाद तीन साल बाद वे संसद के लिए चुने गए। इससे स्पस्ट संकेत मिलते है की इंदिरा गाँधी अपने पुत्र को ही अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहतीं थीं। न जाने कौन से वो पल होंगे जब जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनबा दिया। नेहरू को आगे बढ़ने वाले गाँधी जी और नेहरू के समकालीन सरदार बल्लभ भाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद आदि ने कभी अपने परिवार को राजनीति में लाने का प्रयास नहीं किया। इंदिरा गाँधी ने संजय और फ़िर राजीव को राजनीति में अपना उत्तराधिकारी बना कर कांग्रेस नेताओं की परम्परा को तोडा। 1990 के बाद भारतीय राजनीति पर परिवारवाद बुरी तरह हाबी हो गया। जिसका नया रूप आज आप के सामने है .

बुधवार, फ़रवरी 18, 2009

मान्यता के दवाब में संजय राजनीति में आए

लिजिए साहब, अपने संजू बाबा यानि संजय दत्त चुनाव प्रचार के लिए नवाबों की नगरी पहुँच ही गए।
आपको शायद याद हो, अगर नहीं तो मैं याद दिला देता हूँ। दिसम्बर 0८ के अन्तिम सप्ताह में एक टी.वी कार्यक्रम के दौरान संजय दत्त से एक सवाल पूंछा गया कीक्या वह अपने पिता की विरासत को आगे बढाते हुए राजनीति में आकर देश की सेवा करना चाहेंगे। इसके जवाब में संजू ने कहा की वह देश सेवा तो करना चाहते है पर वह राजनीति को ही इसका एक मात्र साधन नहीं मानते।
लेकिन, लेकिन, लेकिन असली बात तो अब शुरू होती है। जब संजय अपनी बात कह रहे थे तब उनकी पत्नी मान्यता 'दत्त' दर्शक दीर्घा में बैठी थी। संजय अपनी बात पुरी कह भी नहीं परे थे कि मान्यता उचकीं और संजय के जवाब पर अपनी असहमति जताते हुए हाथ हिलाया और बोलीं कि मेरे हिसाब से संजय को अपने पिता कि विरासत सँभालने के लिये राजनीति में आना चाहिए। संजय ने उस समय यह भी कहा कि पिता कि विरासत अगर उनकी बहन प्रिया संभालतीं रहे तो उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं।
ध्यान दीजियेगा यह बाकया दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह का है। इसी बीच ८ जनवरी को सपा के राष्ट्रीय महासचिव अमर सिंह ने उत्तर प्रदेश से लोकसभा उम्मीदवारों कि सूची जारी की। सूची में अप्रत्याशित ढंग से संजय का नाम उत्तर प्रदेश की राजधानी से shamil था। मीडिया ने संजय की talaash शुरू की तो पता चला की वह shinagar में एक फ़िल्म की shuting कर रहे है। उनसे बात की गई तो उन्होंने कहा की राजनीति में आने या न आने का उन्होंने कोई nirnay नहीं लिया है। इसके बाद १० तारीख को अमर सिंह ने कहा की संजय chunaav नहीं ladh पते है तो उनकी पत्नी मान्यता chunaav ladengin। इसके बाद १६ तारीख को संजय ने यह बात svekaar कर li की वह चुनाव ladenge। यही नहीं १७ तारीख को संजय lucknow पहुंचे। शायद लोगों के mann की thaah लेने। road शो के दौरान jabardast भीड़ umdi। umadti क्यों न आख़िर show में संजय, मान्यता, manoj tiwari, jayaprada और jaya bachchan जैसे diggaj जो maujood थे।
मैंने ये saari बातें tarikhbaar इसलिए likhin taki आपको बता sakoon की darasal संजय का mann राजनीति में आने का नहीं था। उन्हें maloom है की पिता की rajnitik विरासत को उनकी बहन प्रिया jyada vehtar dhang से sambhal रहीं है। likin यह मान्यता की jid ही थी की संजय को राजनीति में आना पड़ा।
साहब जरा taarikon पर गौर कीजिये, दिसम्बर का आखिरी सप्ताह जब संजय से pocha गया की क्या वह राजनीति में आना चाहते है। patrakaaron की aadat होती है की वह किसी भी chetra की बड़ी hasti से यह punch लेते है की क्या वह राजनीति में आना चाहते है। यह भी कुछ ऐसा ही सवाल था। संजय ने mana किया और मान्यता ने कहा आना चाहिए। सपा महासचिव अमर सिंह ने tutant संजय से sampatk saadha और चुनाव ladne का agrah किया। संजय ने बड़ी vinamrata से mana कर दिया। अमर सिंह को जो लोग jante है वह यह भी jante है है की अमर सिंह इतनी aasani से हार manane valon में नहीं है। अमर ने मान्यता से sampark sadha और कहा की वह संजय को चुनाव ladne के लिए taiyar करें। मान्यता ने कुछ deer सोचा और कहा की आप नाम की ghoshana कर दो मैं sambhal lungi। अमर सिंह ने ८ tarikh को उनके नाम की ghoshana कर दी। जब srinagar में patrakaroonne संजय से pratkriya chahi तो वह कुछ भी kahne की स्थिति में नहीं थे। मान्यता से भी संजय ने कह diya की वह चुनाव नहीं ladenge अगर तुम ( मान्यता) chaho तो ladh saktin हो। १० जनवरी को स्थिति को bhampte हुए अमर सिंह ने कहा की अगर संजय नहीं तो मान्यता ही सही। पर मान्यता adh gayin की उन्हें ( संजय) को चुनाव ladna ही है। मान्यता को संजय को manane में ६ दी लग गए और १६ तारीख को sanajy ने कह दिया की वह चुनाव ladenge। उनका mann kahin फ़िर badal न जाए इसलिए अगले ही दिन यानि १७ को अमर सिंह और मान्यता यह jatane के लिए की देखो तुम्हे loog कितना चाहते है lucknow पहुँच गए। road शो के दौरान आपने देखा होगा की संजय के एक तरफ़ मान्यता thin तो dusri तरफ़ अमर सिंह। इस dauran मान्यता ने संजय से कहा भी की deko लोग तुम्हे कितना प्यार करते है। अमर सिंह ने मान्यता की हाँ में हाँ milai। संजय यह देख कर hanse बिना नहीं रह सके। एक बात और संजय जब १८ को फ़िर lucknow पहुँचे तो भी यह kahne से नहीं चुके की वह vaastav में देश की सेवा करना चाहते थे न की राजनीति। आगे जो बात संजय ने नहीं कही vo मैं pahle ही कह चुका हूँ।
आपको इस bare में क्या लगता है अपने tarkpurn thatyon से avasya avgat karayen।

बुधवार, जनवरी 07, 2009

मुबारक हो

मंदी का असर तो देखिए नववर्ष की शुभकामनाएं भी लेट हो गईं। मैं जानता हूँ की jyada loog अभी ब्लॉग पर नहीं आ रहे हैं, और ना ही तिपद्दी ही दे रहे है। पर मैं आपना काम कर रहा हूँ।
आप को व आपके परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
अभी तक बहुत ही कम लिखा है पर अच्छा लिखा हैं की नहीं?

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