रविवार, जून 27, 2010

मुन्नाभाई कौन

फिर धरे गए मुन्नाभाई। एक और मुन्नाभाई, मुन्नाभाई कर रहे इलाज, मुन्नाभाइयों पर प्रशासन की नजर, अब मुन्नाभाइयों की खैर नहीं और न जाने क्या क्या। इस तरह की हेडिंग अक्सर समाचार पत्रों में पढऩे के लिए मिल जाती हैं। अक्सर तब, जब मेडिकल या फिर अन्य किसी की प्रवेश परीक्षाएं चल रही होती हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर ये मुन्नाभाई है कौन। क्या यह राजकुमार हीरानी की बनाई गई फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस का जिक्र हो रहा है। जवाब होगा हां। फिल्म में मुन्नाभाई का किरदार संजय दत्त ने निभाया था। उसके पिता चाहते हैं कि वह डॉक्टर बन जाए, लेकिन वह असल में आपराधिक प्रवृत्ति का शख्स होता है। स्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह पिता को खुश करने के लिए मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेता है। उसकी उम्र बहुत हो चुकी है, लेकिन अपने साथी सर्किट के सहयोग से तमाम तरह के गलत हथकंडे अपनाकर वह मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा लेता है। उसके बाद क्या होता है इस पर जाउंगा तो विषयांतर हो जाएगा।
मूल बात पर आते हैं। चूंकि फिल्म का किरदार गलत तरीके अपनाकर प्रवेश पा जाता है इसलिए अखबारों में एक चलन चल पड़ा है कि जैसे ही कोई गलत तरीकों से परीक्षा देते पकड़ा जाता है तो अखबारों हेडिंग लगा दी जाती है, मुन्नाभाई धरे गए। यह कह पाना मुश्किल है कि यह प्रयोग किसने शुरू किया पर आजकल यह खूब चलन में है। लगभग सभी अखबारों और सभी क्षेत्रों में। सवाल यह भी है कि क्या यह सही है? जो लोग नकल करते या दूसरों की जगह परीक्षा देते पकड़े जाते हैं, वह सभी वाकई मुन्नाभाई हैं? क्या उनमें वे भी गुण हैं, जो फिल्म के मुन्नाभाई में थे? क्या वह लोगों के दुखदर्द को उसी शिद्दत से समझते हैं जितना फिल्मी मुन्नाभाई समझता है? क्या वह दूसरों के लिए जान देने की हिम्मत रखता है? सवाल कई हैं पर जवाब का पता नहीं।
याद पड़ता है कि कुछ समय पहले एनडीटीवी के रवीश जी ने पप्पू को लेकर एक रिपोर्ट की थी, जिसमें कई पप्पुओं की पीड़ा उभर कर सामने आई थी। एक विज्ञापन आता था पप्पू पास हो गया। रवीश जी ने बहुत शानदार तरीके से रिपोर्ट को बनाया और अपने ब्लॉग नई सड़क पर लिखा भी। हमारे देश में जितना प्रचलित नाम पप्पू है, शायद उतना ही मुन्ना भी। हर घर में अगर पप्पू मिल जाएगा तो हर एक घर छोड़कर कोई न कोई मुन्ना भी होता है। पप्पू की पीड़ा तो रवीश जी ने समझी पर मुन्ना की पीड़ा। उसका क्या होगा। क्या पप्पू की पीड़ा पीड़ा है और मुन्ना की पीड़ा ड्रामा। अगर ऐसा नहीं है तो मुन्ना के साथ यह खिलवाड़ क्यों हो रहा है? मैं भी एक पत्रकार हूं और अपने अखबार में कोशिश करता हूं कि इस तरह की हेडिंग न जाए, जिससे किसी मुन्ना का दिल दुखे फिर भी ऐसा हो रहा है। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उन सभी मुन्नाओं का क्षमा प्रार्थी हूं, जिन्हें इस तरह की हेडिंग पढ़कर ठेस लगती हो लेकिन मुन्ना जैसा दिल रखना हर किसी के वश की बात नहीं।

गुरुवार, जून 24, 2010

किस्मत के धोनी



आखिरकार 15 साल बाद फिर वह दिन आ ही गया जब भारत क्रिकेट के मामले में एक बार फिर एशिया का सिरमौर बन गया। क्रिकेट प्रेमी तो इस जीत से खुश हैं ही पर सबसे ज्यादा खुशी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को होगी। धोनी इस बार बाल-बाल बच गए। एशिया कप फाइनल में हारने का मतलब धोनी की कप्तानी से विदायी भी हो सकती थी। जीत के बाद अब कुछ समय के लिए तो उन पर अंगुली नहीं ही उठेगी। यह भी दीगर है कि इस जीत में धोनी का कुछ खास योगदान नहीं रहा। उन्होंने फाइनल में 50 गेंद में 38 रन बनाए, जिसे केवल ठीक ठाक ही कहा जा सकता है, अगर बात एक दिनी मैच की हो तो।

मैं बार-बार और हर बार यही कहता रहा हूं कि धोनी किस्सत के धनी हैं और इस बार भी यही साबित हुआ। धोनी इस बात से तो खुश होंगे ही कि उन्होंने अपनी कप्तानी में 15 साल का सूखा समाप्त किया साथ ही उनकी खुशी का एक कारण और होगा वह हैं सचिन तेंदुलकर। यह टूर्नामेंट उन्होंने सचिन की गैर मौजूदगी में जीता है। एक समय था जब भारतीय क्रिकेट के बारे मेें कहा जाने लगा था कि सचिन के बगैर टीम नहीं जीतती। धोनी जबसे कप्तान बने हैं उनकी कोशिश रही है कि इस टैग से बचा जाए।

अब जरा यह समझने की कोशिश करते हैं कि धोनी की कप्तानी पर खतरा आखिर था क्यों। दरअसल उनकी कप्तानी काफी समय से खतरे में थी, पर वेस्टइंडीज में खेले गए टी-ट्वेंटी विश्व कप से जल्दी विदायी ने आग में घी का काम किया। जिन कारणों से धोनी को कप्तान बनाया गया था वही काफी समय से धोनी में देखने को नहीं मिल रहे थे। उनकी सबसे बड़ी समस्या यही थी कि जो रणनीति वे बनाते थे उसे मैदान में क्रियान्वित नहीं कर पा रहे थे और जब रणनीति मैदान में नहीं चलेगी तो उसका फायदा क्या ? अपनी बल्लेबाजी की तरह कप्तानी में भी जो आक्रामकता धोनी में दिखती थी वह अब न तो उनकी बल्लेबाजी में देखने को मिल रही है और न ही मैदान पर कप्तानी करते समय। कैप्टन कूल कहे जाने वाले धोनी अक्सर मैदान पर गर्म होते हुए भी दिखे हैं। इसका कारण कई वरिष्ठ खिलाडिय़ों का टीम में होना माना जा सकता है। यह बात सही है कि वरिष्ठों की मौजूदगी में कप्तानी करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता और धोनी भी इससे दो चार हो रहे हैं। काबलियत इसी में है कि वरिष्ठों को पूरा सम्मान देकर भी उन्हें अच्छा खेल खेलने के प्रोत्साहित किया जाए।
२३ जून को फाइनल के रिहर्सल के तौर पर खेले गए मैच में जब पूरी टीम 209 रन बनाकर आउट हो गई तो लगा कि शायद इस बार भी कप हाथ से जाता रहेगा, लेकिन तारीफ करनी होगी दिनेश कार्तिक की जिन्होंने बेहतरीन खेल का प्रदर्शन करते हुए 66 रन बनाए। हालांकि, उन्होंने इतने रन बनाने के लिए 126 गेंदें खेलीं। गेंदबाजी में नेहरा ने कमाल का प्रदर्शन किया और नौ ही ओवर में चार विकेट ले लिए। धोनी की कप्तानी में भारत ने अभी तक किसी टूर्नामेंट में 7 बार फाइनल मुकाबला खेला और उसमें से यह भारत की चौथी जीत है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस जीत के साथ ही धोनी एक नई शुरुआत करेंगे। जो क्षमताएं उनमें हैं उसका इस्तेमाल जरूरत पडऩे पर करेंगे, जिससे फिर उनकी कप्तानी पर सवाल न उठें।

शनिवार, जून 19, 2010

वे क्यों बनें प्रधानमंत्री

आरजी। पार्टी के वरिष्ठ नेता और पदाधिकारी उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं। पार्टी में छोटे कद के नेता उन्हें आरजी जी कहते हैं, आखिर जी भी तो लगना है। कुछ लोग उनके नाम के आगे बाबा लगा देते हैं। जैसे संजय दत्त को संजू बाबा। कुछ लोग उन्हें युवराज और राजकुमार के भी सम्बोधन से पुकारते हैं। आज वे 40 साल के हो गए। कविता की भाषा में कहें तो उन्होंने 40 बसंत देख लिए। यह बात अलग है कि इन चालीस सालों में से काफी समय उन्होंने विदेश में बिताया है। अब पता नहीं विदेश में बसंत होता है कि नहीं, होता भी है तो कैसा ? पता नहीं।

सबसे पहले तो उन्हें जन्मदिन की बधाई। यह जानते हुए भी उन्हें बधाई दे रहा हूं कि वे ब्लॉग नहीं पढ़ते और न ही अमर सिंह की तरह ब्लॉग लिखते ही हैं। लेकिन, मेरी भावना उन्हें बधाई देने की है किसी न किसी तरह उन तक पहुंच ही जाएगी।

उनकी मां और पिता की तरह उनका भी राजनीति में आने का मन नहीं था पर आना पड़ा। और अब वे अपने पुरखों की पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव हैं। हालांकि प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि युवा आगे आएं और पार्टी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाएं। इसके लिए वे आरजी का ही उदाहरण देते हैं और किसी योग्य युवा को वे शायद नहीं जानते। प्रधानमंत्री अपनी दूसरी पारी के दौरान एक साल होने पर सरकार की कथित उपलब्धियों के लिए संवाददाता सम्मेलन बुलाते हैं तो शान से कहते हैं कि वे चाहते हैं कि आरजी प्रधानमंत्री बनें। प्रधानमंत्री क्या, पार्टी और पार्टी के बाहर का हर शख्स जानता है कि अगले लोकसभा चुनाव में भारत की सबसे पुरानी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी वही होंगे। प्रधानमंत्री ने यह बात इसलिए कही कि यह जरूरी है या फिर इसलिए कि मजबूरी है, सब जानते हैं।
लेकिन, एक बात जो मुझे अक्सर अखरती है और मैं सोचता रहता हूं पर सोच नहीं पाता, वह यह कि आखिर उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जरूरत क्या है। उनके परिवार में कई लोग प्रधानमंत्री रहे। लेकिन उनकी मां ने यह सिलसिला तोड़ा। भारत में लोकतंत्र है और उसमें सबसे बड़ा पद राष्ट्रपति का होता है उसके बाद प्रधानमंत्री होता है। लेकिन मजे की बात यह है कि एक पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष इन दोनों लोगों से बड़ी हैं। जिसे चाहती हैं उसे राष्ट्रपति बनवा सकती हैं, जिसे चाहें प्रधानमंत्री। हां, दो और पद है लोकसभा अध्यक्ष और उप राष्ट्रपति का। उनमें इतनी कूबत है कि इस पद पर भी वे जिसे चाहें विराजमान कर सकती हैं। किसी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष में इतनी ताकत हो सकती हैं क्या, राजनीति के विषय में मेरी समझ बहुत कम है, पर शायद नहीं। लेकिन, वे ऐसी ही हैं। 2004 में वे प्रधानमंत्री पद के बहुत करीब पहुंच गईं थी, पर पता नहीं क्यों उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया पार्टी के लोग गुहार लगाते रहे पर वे नहीं मानीं और अब वे क्या हैं, बता ही चुका हूं। अगर वे प्रधानमंत्री बन जातीं तो क्या उनमें इतनी ताकत होती। मेरी समझ में तो नहीं।

यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं कि जब उनमें इतनी शक्ति है तो फिर उनके बेटे और चालीस बसंत पार कर चुके आरजी साहब को क्या जरूरत है कि वे प्रधानमंत्री बनें। अपनी मां की तरह वह भी तो त्याग की मूर्ति बन सकते हैं। त्याग का त्याग और सत्ता की सत्ता, बल्कि सत्ता के भी ऊपर शीर्ष पर, जिसका कोई नामकरण अभी तक नहीं किया गया है। आज उनका चालीसवां जन्मदिन है मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। वह बहुत पढ़े लिखे हैं और कोलंबिया की अपनी महिला मित्र से दूर रहते हैं। जब वे अपनी महिला मित्र के सम्पर्क में थे शायद उन्हें पता नहीं होगा कि वे राजनीति में आएंगे लेकिन अब आ ही गए हैं जान गए हैं कि राजनीति में बहुत सारी चीजें मिलती हैं तो बहुत सी चीजें त्यागनी भी पड़ती हैं।

अगर मेरी यह पोस्ट उनका कोई करीबी पढ़े तो कृपया कर उन तक मेरी बात पहुंचा दे तो बड़ी मेहरबानी होगी। दरअसल मेरी पहुंच उन तक नहीं है। शुक्रिया।

बुधवार, जून 16, 2010

कहाँ कहाँ हैं आप


आजकल मैं बहुत परेशान हूं। परेशानी का कारण है सोशल नेटवर्किंग साइट्स। रोज किसी न किसी मित्र का मेल आ जाता है कि फलां नेटवर्किंग साइट पर जुडि़ए। ये सिलसिला आज से नहीं बहुत दिनों से या यूं कहूं कि बहुत सालों से चल रहा है। मुझे पता भी नहीं कि कब मेरे पास इस तरह का पहला मेल आया था। पहले घर में लैंडलाइन फोन होते थे, लेकिन आप उन्हें हर जगह ले जा नहीं सकते थे। उसके विकल्प के तौर पर मोबाइल आया। उसे आप कहीं भी ले जा सकते हैं। फिर आया इंटरनेट का जमाना। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने पहली बार अपना मेल आईडी बनाया तो लग रहा था कि पता नहीं कौन सा तीर मार लिया। उस समय फिल्म खामोशी का मजरूर साहब का गीत याद आ रहा था और मन ही मन उसे गुनगुना भी रहा था। गीत है 'आज मैं ऊपर आसमां नीचेÓ।

खैर सबको अपना ईमेल आईडी बांटने लगा। और बड़ी श् ाान से। सबका मेल आईडी लेता भी था। मेल भले न करूं। सच तो यह है कि किसी का मेल आता भी नहीं था। कभी महीने दो महीने बाद साइबर कैफे जाता तो वही शादी करवाने वाली साइटों के या फिर बैंक के मेल आते थे। कभी कभी कोई सामान भी बेचने आता था। शायद उसे पता नहीं था कि उसका मुझे मेल करना एक तरह से बेकार ही है। उन्हें कभी डिलीट कर देता तो कभी देखता की ऐसे तो मेल बाक्स खाली हो जाएगा तो कुछ एक छोड़ देता। अगली बार फिर जाता तो उन्हें डिलीट करता, क्योंकि तब तक कोई और अपना सामान बेचने चुका होता था।

खैर, अब आपको अपनी परेशानी बताता हूूं। पहले जब जीमेल पर मेल अकाउंट बनाया तो पता चला कि ऑरकुट भी कोई चीज होती है। पहली बार जब एक दोस्त ने पूछा कि क्या तुम ऑरकुट पे हो तो सबसे पहले यही पूछा कि ये क्या होता है। उसे भी ज्यादा पता नहीं था जितना पता था उसने बता दिया। मैंने भी धीरे धीरे सीखना शुरू किया और फिर तो मजा आने लगा। मोबाइल ने दूरियां कम की थी आप किसी से भी कभी भी सम्पर्क कर सकते हैं लेकिन उसके लिए उसका नम्बर होना जरूरी था। जब गहराई में गया तो पता चला कि ऑरकुट में तो आप नाम डाल दीजिए और अगर उस व्यक्ति का वहां अकाउंट है तो वह मिल जाएगा। कई बार तो सजेशन भी आ जाता है। मैंने कई पुराने दोस्त इस तरह से खोजे। लेकिन इधर देख रहा हूं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स की बाढ़ सी आई हुई है। ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर, लिंकडेन, झूज, टैग्ड, हाई-5, माई कंटोस, माई स्पेस, फ्लिकर और बज। हो सकता है कुछ भूल भी रहा होऊं। समस्या यह है कि किस किस से जुड़ूं। सब पर जुडऩे के लिए मेल आ चुका है और अभी भी आ रहा है। कभी सोचता हूं कि इन पर क्यों जाऊं। क्या इससे कुछ फायदा होगा या फिर नुकसान। हालांकि, यह बहस का मुद्दा है कि यह नेटवर्किंग साइट्स सही हैं या गलत। पिछले दिनों पाकिस्तान और अफगानिस्तान ने फेसबुक पर पाबंदी लगा दी थी लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें पाबंदी हटानी पड़ी। आखिर ऐसा क्यों करना पड़ा। कहीं ये हमारी सोचने समझने की शक्ति खत्म तो नहीं कर रहीं। चुंकि पत्रकारिता के पेशे में हूं तो पहले सोचता था कि शायद पत्रकार ही इनसे जुड़ते हैं क्योंकि पेशे की मांग है कि उनका सामाजिक दायरा बड़ा होना चाहिए पर अब देखता हूं कि पत्रकार तो पत्रकार वकील, नेता, अभिनेता और हर पेशे से जुड़ा व्यक्ति यहां मिल जाता है। भई कमाल हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स। हर कोई इनका दीवाना है। सोचता हूं कि कहीं ये दीवानगी भारी न पड़ जाए।

आप किन-किन सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े हैं और क्यों। क्या है इनका और हमारा भविष्य अगर अपने विचार साझा करेंगे तो अच्छा लगेगा।

सोमवार, जून 07, 2010

ये कैसी यंगिस्तान

भारतीय क्रिकेट टीम। सही नाम तो यही है। मोहम्मद अजहरुद्दीन के समय तक देश की क्रिकेट टीम को इसी नाम से पुकारा जाता था। कमान सौरभ गांगुली के हाथों में आई तो इसे 'टीम इंडियाÓ का नाम दे दिया गया। कहा गया कि इस टीम में एकता है। हर खिलाड़ी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी निष्ठा और लगन से कर रहा है।

वो एक जमाना था। समय बदला तो बाबू मोशाय गांगुली हाशिए पर चले गए और झारखंडी लाल महेंद्र सिंह धोनी को टीम की कमान सौंपी गई। जबकि युवराज सिंह इस पद के प्रबल दावेदार थे। खैर, जब सचिन को छोड़कर सभी वरिष्ठ खिलाडि़यों की विदाई हो गई तो टीम को यंगिस्तान कहा जाने लगा। यानी सभी खिलाड़ी युवा हैं, जोश से भरपूर। इसी यंगिस्तान की पहली परीक्षा गत दिनों हुई। श्रीलंका और जिम्बाब्वे जैसी अपेक्षाकृत कमजोर समझी जाने वाली टीम के साथ भारत ने त्रिकोणीय सिरीज में हिस्सा लिया। मजे की बात यह रही कि पहली ही परीक्षा में टीम की पोल खुल गई। टीम ने कुल चार मैच खेले। उनमें एक जीता और तीन हारे। खास बात यह रही कि तीन में से टीम ने दो मैच जिम्बाब्वे से हारे और सिरीज से बाहर हो गई। इससे पहले करीब साढ़े तीन साल पहले कुआलालंपुर में तीन देशों की सिरीज हुई थी, टीम उसमें फाइलन तक नहीं पहुंच पाई थी। इस सिरीज में दूसरी टीमें ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज थीं। लेकिन, गौर करें तो पता चल जाएगा कि उस हार में और इस हार में कितना फर्क है। ऑस्टे्रलिया और वेस्टइंडीज किसी भी टीम को हरा सकती हैं। उस समय टीम भी इतनी युवा नहीं थी। युवाओं और अनुभव का अच्छा तालमेल उस टीम में था। लेकिन, इस बात तो यंगिस्तान उससे हार गई जो कमजोर मानी जाती है। हालांकि, मैं मानता हूं कि क्रिकेट में कोई भी टीम बड़ी या छोटी नहीं होती वही टीम जीतती है जो उस दिन अच्छा प्रदर्शन करती है। तो क्या माना जाए कि भारत ने जिम्बाब्वे के खिलाफ लगातार दो मैचों में घटिया प्रदर्शन किया। उसी टीम ने जिसे भविष्य की टीम माना जा रहा है और यंगिस्तान के नाम से पुकारा जा रहा है। इस सिरीज से यह पता लग गया है कि इस टीम के खिलाड़ी कितने पानी में हैं।


खैर, अब बात उस टीम की जो एशिया कप के लिए चुनी गई है। टूर्नामेंट १५ जून से होना है। कुछ ही देर पहले इसके लिए टीम का चयन किया गया। इसमें युवराज सिंह को टीम में शमिल नहीं किया गया है। कारण है लगातार लचर प्रदर्शन, जो आईपीएल से ही शुरू हो गया था और अब तक जारी है। वे भी यंगिस्तान के सदस्य माने जाते हैं। अब बात उन अन्य खिलाडि़यों की जो यंगिस्तान के सदस्य हैं पर उन्हें इस सिरीज के लिए टीम में शामिल नहीं किया गया। युसुफ पठान, जो सिर्फ आईपीएल में ही चलते हैं। बाकी जब उन्हें भारत की तरफ से खेलना हो तो पता नहीं उनका दमखम कहां चला जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि युसुफ के बल्ले से शॉट पैसे देखकर ही निकलते हैं। जितने ज्यादा पैसे उतना ही जोरदार शॉट। नहीं तो वे बल्ला लिए खड़े रहेंगे और गेंद उनकी गिल्लियां बिखेर देगी। दिनेश कार्तिक, जो आईपीएल में दिल्ली डेयरडेविल्स के सदस्य हैं और अच्छे बल्लेबाज माने जाते हैं। उनके साथ एक समस्या धोनी की भी है। धोनी भी विकेट कीपर हैं और कार्तिक भी। एेसा बहुत कम होता है कि टीम में दो विकेट कीपर शामिल किए जाएं और धोनी को हटाना फिलहाल किसी के वश की बात नहीं दिखती। लेकिन, इसके बाद भी इतने समय तक एक बल्लेबाज की हैसियत से टीम में बने रहना उनके लिए बड़ी बात है। वे एक दो रन चुराने में माहिर माने जाते हैं। वैसे ही जैसे मोहम्मद कैफ माने जाते हैं। लेकिन, लगता है अब टीम को एक-एक, दो-दो बनाने वाले नहीं बल्कि एेसे लोग चाहिए जो चौका-छक्का लगाएं। भले वे टीम को जिता न पाएं। एक और नाम है जो एशिया कप की टीम लिस्ट में नहीं है वह है अमित मिश्रा का। एक एेसा भी समय था जब अमित को अनिल कुंबले की जगह भरने वाला बताया गया था। अब हालात यह हैं कि उन्हें उस टीम में भी जगह नहीं मिल पा रही है जो किसी बड़े टूर्नामेंट में खेलने जा रही है। अंतिम एकादश की तो बात ही छोड़ दीजिए।


और अब बात सचिन की। सचिन श्रीलंका में एशिया कप में खेलने नहीं जा रहे हैं। उन्होंने चयन समिति से खुद को टीम में शामिल न करने का आग्रह किया था। बताया जा रहा है कि वे कुछ समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहते हैं। यह सही बात है, अतिव्यस्त क्रिकेट कार्यक्रम की वजह से खिलाड़ी अपने परिवार के साथ समय नहीं गुजार पाते। जब तक पूरी टीम श्रीलंका में एशिया की सबसे बेहतर टीम होने की लड़ाई लड़ेगी सचिन परिवार के साथ रहेंगे। बहुत संभव है कि मसूरी भी जाएं। वे अक्सर छुट्टियां बितानें मसूरी में अपने मित्र नारंग के यहां जाते हैं। लेकिन, अब दूसरी बात। क्या सचिन वास्तव में परिवार के साथ समय गुजारना चाहते हैं इसलिए श्रीलंका नहीं जा रहे। यह बात ठीक हो सकती है। पर दूसरा कारण इससे बड़ा है। दरअसल सचिन २०१२ का विश्वकप खेलना चाहते हैं, यह बात वह कई बार कह भी चुके हैं और उससे पहले कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते। मसलन कल को अगर उनका प्रदर्शन ठीक न हो तो तत्काल उन्हें टीम से बाहर कर देने की मांग उठने लगेगी। हो सकता है उन्हें टीम से निकाल दिया जाए। या फिर किसी मैच में खेलते हुए उन्हें चोट भी आ सकती है। जिससे उनके सामने मुश्किल आ सकती है। सचिन एेसा कुछ नहीं होने देना चाहते, जिससे वे विश्वकप खेलने से वंचित रह जाएं। वैसे सचिन की समझदारी की भी दाद देनी होगी।

जी, तो बात हो रही थी यंगिस्तान की। यंगिस्तान कितना मजबूत है और आने वाले दिनों में भारतीय क्रिकेट का भविष्य कितना उज्ज्वल है इसका अंदाजा पिछले दिनों हुए टूर्नामेंट के आधार पर लगाया जा सकता है। और हां किसी को शक हो तो एशिया कप भी देख लीजिएगा। खासकर उन खिलाडि़यों के प्रदर्शन पर नजर रखिएगा जो यंगिस्तान के सदस्य कहे जाते हैं।

देखिए और इंतजार कीजिए।

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