रविवार, अक्तूबर 17, 2010

भारत और इंडिया के फर्क को समझिए


एक महिला ने दूसरी से कहा, तुम्हें पता है भारत और इंडिया में लड़ाई हो गई है? दूसरी ने कहा, इससे हमें क्या, हम तो हिन्दुस्तान में रहते हैं ना।
यह एक चुटकुला है, लेकिन कहीं न कहीं यह सच्चाई भी बयां करता है। इस पर जरा सोच कर देखिए। क्या भारत और इंडिया अलग-अलग हैं? क्या इन दोनों में अक्सर लड़ाई होती रहती है? दोनों के जवाब हां में ही हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स या फिर राष्ट्रमंडल खेलों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि हम वाकई ऐसी जगह रहते हैं, जहां दो देश बसते हैं। गौर कीजिएगा तो साफ पता चल ही जाएगा।

हाल ही में हमारे यहां विश्वस्तरीय खेल हुए। खेल मात्र दस दिन हुए, लेकिन इसकी तैयारियां सालों से हो रही थी। होनी भी चाहिए आखिर देश की प्रतिष्ठा का सवाल है। भाजपानीत राजग के शासनकाल में इन खेलों की मेजबानी की अनुमति मिली तो कांग्रेसनीत संप्रग शासनकाल में ये खेल सम्पन्न हुए। यानी दो धुर विरोधी दलों ने खेल के लिए एक मंच पर आकर बिना राजनीति के एक दूसरे का सहयोग किया। खेल का मामला ऐसा होता है कि जहां अक्सर कहा जाता है कि इसे राजनीति से अलग रखा जाए, लेकिन रखा नहीं जाता। राजनीति में अक्सर खेल होता रहता है और खेल में राजनीति। खैर यह बहस और चर्चा का दूसर विषय हो सकता है।

खेलों के दौरान देश के दो चेहरे देखने को मिले। एक चेहरा वह जिसने कॉमनवेल्थ गेम्स कराए और दूसरा वह जो राष्ट्रमंडल खेलों में भागीदारी कर रहे थे। जिन लोगों ने कॉमनवेल्थ गेम्स कराए उसने देश के कॉमन लोगों की वेल्थ पर जमकर डाका डाला। अनुमानित खर्च कितना था और कितना खर्च किया गया यह सभी को पता है, जो खर्च ज्यादा किया गया वह खर्च करने वालों ने अपनी जेब से नहीं किया, बल्कि आम आदमी की जेब से ही किया है। तैयारियां वर्षों से हो रही थीं, लेकिन खेल के ऐन वक्त तक काम जारी रहा। काम में विलम्ब इसलिए किया गया ताकि अंतिम समय पर अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जाए और इसे देश की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया जाए। इस पर कोई बोलेगा नहीं। जो बोलेगा वह राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाएगा।

खेलों के दौरान दूसरा चेहरा उन लोगों का देखने को मिला, जो राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा ले रहे थे। उन्होंने राष्ट्र के लिए कितने पद जीते और देश को किस मुकाम तक पहुंचाया। यह जगजाहिर है। जहां कॉमनवेल्थ के आयोजक वेल्थ बनाते रहे, वहीं राष्ट्रमंडल के प्रतिभागी राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाते रहे। यानी एक तो हिन्दी के खेल हुए दूसरे अंग्रेजी का खेल। पदक जीतने वालों में ज्यादातर खिलाड़ी भारत के थे बजाए इंडिया के।

एक खेल खत्म तो दूसर शुरू हो गया है। अब खेल हो रहा है खेलों के आयोजन की प्रशंसा पाने का। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक विजेताओं से मिल रहे हैं। क्या ये लोग कभी उन अखाड़ों में गए हैं, जहां से ये पदक विजेता निकले हैं। राहुल गांधी को लगता है कि दलित के घर जाकर उसकी खटिया पर बैठकर चार बातें कर लेने और उसकी रोटी खा लेने से ही उन्होंने असली भारत को देख लिया। क्या इन लोगों को उन लोगों की पीठ नहीं थपथपानी चाहिए जो मात्र कुछ अंतर से ही पदक जीतने से रह गए। उनमें नया जोश नई स्फूर्ति कौन भरेगा। क्या जीतने वालों को ही टीवी पर दिखने का हक है? उन लोगों के बारे में कौन सोचेगा जो हार गए। मीडिया भी उन्हीं के गुण गा रही है, जो जीते हैं। हारे हुए लोगों को फिर से नए सिरे से खड़ा करने का जिम्मा कौन उठाएगा? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगले ही महीने एशियाड होने हैं और अगर से विजेता किन्हीं कारणों से फिर से यही कारनामा नहीं दोहरा पाए तो जो कुछ अंतर से हारे हैं उन्हीं पर जीतने का दारोमदार होगा। अगर उन्हें अभी से तैयार नहीं किया गया तो क्या होगा? इंडिया की जयजयकार छोड़कर भारत की भी परवाह कीजिए नहीं तो...

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

थिंक बिफोर यू स्पीक

राहुल गांधी। इस समय कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हैं और युवा कांग्रेस की देखरेख की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री कहा जाता है, हालांकि उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। दरअसल वे कुछ और ही कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि संघ और सिमी एक ही थाली के चट्टे- बट्टे हैं। उन्हें दोनों में कोई फर्क दिखाई नहीं देता। उन्हें चमचागिरि और चापलूसी करने वाले लोग भी कतई पसंद नहीं। वे कहते हैं कि हर मर्ज की सिर्फ एक ही दवा है और वह है राजनीति।

अपने मध्य प्रदेश के दौरे के दौरान राहुल गांधी ने कई बातें कहीं। कुछ ऐसी जो कहनी चाहिए थी और कुछ ऐसी जो मेरे ख्याल से नहीं कहनी चाहिए। राहुल ने कहा कि उन्हें चाटुकार और चमचे पसंद नहीं हैं। मुझे नहीं पता कि ये राहुल के निजी विचार हैं या फिर पारिवारिक। राहुल को भले चाटुकार पसंद न हों पर उनकी मां को चाटुकार और चमचे ही पसंद हैं। अगर नहीं होते तो प्रतिभादेवी सिंह पाटिल आज देश की राष्ट्रपति नहीं होतीं। हो सकता है कि मेरी इस बात की जमकर आलोचना की जाए पर मैं जानना चाहता हूं कि प्रतिभादेवी सिंह पाटिल में ऐसी कौन सी खूबी है जो वह राष्ट्रपति के उम्मीदवार हो गईं। अगर महिला होने की वजह से उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया तो प्रधानमंत्री पद क्यों किसी पुरुष के सुपुर्द कर दिया गया। क्या पार्टी में कोई ऐसी योग्य महिला नहीं जो प्रधानमंत्री बन सके? या फिर ऐसी महिला नहीं जो सोनिया गांधी की बात को आंख पर पट्टी बांध कर मान ले। खुद के प्रधानमंत्री न बन पाने के बाद क्यों उन्होंने कठपुतली मनमोहन सिंह का चयन किया। क्या कांग्रेस में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अपने दम पर लोकसभा चुनाव जीत सके और प्रधानमंत्री बन सके। दरअसल सोनिया अच्छी तरह जानती हैं कि जो नेता लोकसभा का चुनाव जीत सकता है उसका अपना अच्छा खासा जनाधार होता है। मनमोहन सिंह चूंकि लोकसभा से संसद में प्रवेश नहीं करते सो उनका जनाधार भी नहीं होगा। सोनिया सिर्फ उन्हीं लोगों को पद बख्श रहीं हैं जो उनके कहे पर चलें। वे कहेंं दिन तो दिन और कहें रात तो रात। ऐसे नामों में केवल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि कई नाम हैं। अगले लोकसभा चुनाव में जब राहुल प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे उससे पहले ही मनमोहन सिंह को राष्ट्रपित भवन भेजने की पूरी तैयारी अभी से की जा रही है। राहुल को पहले अपने घर से चमचागिरि खत्म करनी होगी तब वे कार्यकर्ताओं को चमचागिरी न करने का पाठ पढ़ाएं तो ज्यादा अच्छा होगा।

राहुल कहते हैं कि देश की हर समस्या की खात्मा तभी होगा जब युवा राजनीति में आएंगे। यानी हर मर्ज की एक ही दवा। राजनीति और सिर्फ राजनीति। कोई कम अक्ल का व्यक्ति भी यह बता सकता है कि कभी भी हर मर्ज की एक ही दवा नहीं हुआ करती। अगर देश का हर व्यक्ति राजनीति करने लगेगा तो बाकी के काम कौन करेगा, यह भी राहुल को तय करना होगा। केवल राजनीति से देश नहीं चला करता। राजनीति पेट नहीं भरती। वे युवाओं को देश की राजनीति में लाना चाहते हैं। पहले उन्हें अपनी पार्टी में युवाओं को स्थान देना होगा। पहले वे अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से अपनी मां को हटाकर किसी युवा नेता को इसकी जिम्मेदारी सौंपे और फिर किसी युवा को ही प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करें। केवल युवा कांग्रेस को बदलकर देश की राजनीति नहीं बदली जा सकती। राहुल को यह बात भी समझनी होगी कि कहने और करने में बहुत फर्क होता है। देशभर में घूमने से, दलित के घर जाकर रोटी खाने से और उसके घर सोने से दलित को अच्छा तो लग सकता है, लेकिन इससे उसके पेट की भूख कम नहीं हो सकती। देश भूख है, कराह रहा है। इसके लिए राहुल के पास क्या दवा है? राजनीति। देश घूमकर उसकी समस्याओं को समझना एक बात है और उसकी समस्याओं का निराकरण करना दूसरी बात।

राहुल कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। राहुल को चाहिए कि वे पहले अपनी पार्टी के उन नेताओं को यह कहने से मना करें, जो उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। राहुल को यह पता है कि अगले लोकसभा चुनाव में अगर उनकी पार्टी को बहुमत मिला तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार वही होंगे सो अभी से ढोल-ताशे क्यों पीटे जाएं। हालांकि भीतर ही भीतर इसकी तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। योजना तैयार की जा रही है।

मजे की बात यह रही कि राहुल यहीं तक नहीं रुके। बुधवार को तो उन्होंने गजब ही कर दिया। उन्होंने कह दिया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सिमी में उन्हें कोई फर्क नजर नहीं आता। सवाल यह है कि क्या राहुल ने कभी निष्पक्ष भाव से दोनों में कोई फर्क देखने की चेष्टा की है। नहीं की होगी, क्योंकि उनकी आंखों पर एक तरह का चश्मा लगा है और उन्हें जो कुछ भी दिखता है। उस चश्मे से ही दिखता है। अगर निष्पक्ष भाव से देखते तो उन्हें पता चल जाता कि संघ और सिमी में क्या फर्क है। सिमी जहां एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन है, वहीं संघ भारत भूमि की आत्मा से जुड़ा हुआ संगठन है। राहुल को अगर देशप्रेमी और देशद्रोही संगठनों में कोई फर्क नजर नहीं आता तो कोई क्या कर सकता है। बस उनकी बुद्धि पर मुस्कराया ही जा सकता है। वे जिस देश की राजनीति में युवाओं को लाने की बात कह रहे हैं क्या वे उस देश को समझ पा रहे हैं। इतने दिनों से देश भ्रमण के बाद भी अगर राहुल ऐसी बातें करते हैं तो लगता है कि लोग उन्हें यूं ही बच्चा नहीं समझते। वे वास्तव में अभी बड़े हो ही नहीं पाए हैं। बिना सोचे समझे बोलना उनकी आदत सी हो गई है। अंगे्रजी में पले बढ़े राहुल ने क्या थिंक बिफोर यू स्पीक की युक्ति नहीं सुनी होगी। सुनी होगी पर शायद उस पर अमल नहीं करना चाहते।

दरअसल राहुल की दिक्कत यही है कि वे अपने आप को बहुत बड़ा और विद्धान समझते हैं, वहीं अन्य लोग उन्हें बच्चा समझते हैं। राहुल को यह तक नहीं पता कि किसी के यहां जाते हैं तो कैसे पेश आते हैं। मध्यप्रदेश आगमन से एक दिन पहले ही यहां की सरकार ने उन्हें प्रदेश का अतिथि घोषित कर दिया था, लेकिन राहुल को शायद अतिथि भाव पसंद नहीं आया। उन्हें तो मायावती जैसे लोग ही पसंद आते हैं, जो उनके आने पर कोई व्यवस्था नहीं करती बल्कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गाली ही देती हैं। राहुल की हर गलती को बच्चा समझकर माफ कर दिया जाता है, लेकिन कब तक? बच्चा जब कोई गलती करता है तो पहले उस पर हंसी आती है और जब बड़ा होकर भी वह ऐसा ही करता है तो सजा दी जाती है। राहुल को चाहिए कि वे ऐसी नौबत न आने दें और कोई भी बात बोलने से पहले सोचें।

शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

वाह इंडिया, शाबाश मीडिया




इसे इत्तेफाक ही कहें कि जिस मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने पूरे जीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया उनकी जयंती से दो दिन पूर्व ही एक ऐसे मामले का निर्णय आया जो लम्बे समय से लटका था। खास बात यह भी की मुद्दा तब ही गरमाया जब गांधी को सिधारे कुछ ही साल बीते थे।

सुखद बात यह रही कि आजादी के इतने वर्षों बाद पहली बार लगा कि भारत गांधी, कबीर और बुद्ध का देश है। अगर 30 सितंबर को कहीं पत्ता भी खड़कता तो यह एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनता और दुनिया भर में भारत की जो फजीहत होती वह अलग से। पूरे देश ने एक बार फिर साबित किया कि वह अब किसी नेता और धार्मिक रंग में रंगने वाले नहीं हैं, अब वह अपनी बुद्धि का भी इस्तेमाल करेंगे। ऐसा नहीं है कि अब देश में कट्टरवादियों की कमी हो गई है। वे अब भी हैं और रहेंगे भी, लेकिन उनकी संख्या अब बहुत कम रह गई है और आम जनता अब उनके बहकावे में नहीं आने वाली। कट्टरवादी हिन्दुओं में भी हैं और मुसलमानों में भी। सच कहा जाए तो गांधी की मौत के बाद इस बार पहली बार लगा कि हमने सच माएने में उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गांधी ने भी शायद ऐसे ही भारत का सपना देखा था, जो अब साकार होता दिख रहा है।


अपने जन्म से ही तमाम अवसरों पर कई तरह की आलोचनाओं का सामना कर रहे मीडिया ने भी इस बार एक नई इबारत लिख दी। अगर देश में कुछ नहीं हुआ तो इसके पीछे लोगों की समझदारी तो थी ही, लेकिन इसमें मीडिया की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। फैसला जब 24 सितम्बर को आना था तब भी मीडिया ने पूरा संयम बरता और जब पता लगा कि फैसला टल गया है तब भी पूरी ईमानदारी से काम जारी रखा। यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर देश के अरबों लोगों की ही नहीं, बल्कि विदेशियों की भी निगाहें थीं। वे भी जानना चाह रहे थे कि भारत में 1992 की अपेक्षा कुछ परिवर्तन और परिवक्वता आई है कि नहीं। ऐसे में कोई भी चैनल टीआरपी में आगे जा सकती थी, लेकिन किसी चैनल ने ऐसा नहीं किया। सबने यही कहा कि टीआरपी आती रहेगी, अगर देश का अमन-चैन गया तो वह वापस नहीं आएगा। चैनलों पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का अद्भुत सामन्जस्य भी देखने को मिला। लगभग हर छोटे-बड़े चैनल पर दो एंकर बिठाए गए और उनमें एक हिन्दू और एक मुसलमान रहा। फैसला आने के बाद किसी एंकर के चेहरे पर खुशी या दुख का भाव देखने को नहीं मिला। यह स्थिति फैसला आने के दिन ही नहीं उसके दो दिन बाद तक जारी रही। दो दिन बाद तक किसी ऐसे चेहरे को टीवी पर नहीं दिखाया गया जो अतिवादी हो या फिर कुछ उल्टा-सीधा कह जाए। अगर वह आया भी तो अमन और शांति की अपील करता हुआ ही दिखा।

अब बात पिं्रट मीडिया यानी अखबारों की। किसी भी अखबार ने अपने संपादकीय में या फिर अपने किसी लेख में ऐसा प्रदर्शित नहीं किया वह किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लगाव रखता है। 1992 में कई अखबारों में यह आरोप लगा था कि वे किसी पार्टी विशेष के अखबार हैं, इस बार ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। फैसले के अगले दिन मुख्य हेडिंग में भी किसी अखबार ने ऐसी हेडिंग नहीं दी जिससे लगे कि किसी की जीत और किसी की हार हुई है। हेडिंग में वही कहा गया जो एक लाइन मेें कुछ शब्दों के इस्तेमाल से लिखा जा सकता है।

सच कहूं तो मुझे खुद को बहुत दिन बाद गौरवान्वित महसूस करने का मौका मिला है। मैं आज शान से कह सकता हूं कि मैं भारत में रहता हूं और एक मीडियाकर्मी हूं। शुक्रिया इंडिया...

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