मंगलवार, मार्च 30, 2010

यूसुफ़ की ऐसी विदाई


सोमवार को खेल से जुडी दो बडी खबरें आती हैं। खेल में दिलचस्पी होने और अखबार में काम करने के कारण तुरंत उन पर ध्यान गया। टीवी के लिए दोनों ब्रेकिंग न्यूज। एक को तो खूब दिखाया गया पर दूसरी उतनी चर्चा नहीं पा सकी। मंगलवार के अखबारों में एक खबर प्रथम पेज पर जगह पाती है तो दूसरी अंदर के पन्नों पर। प्रथम पेज की खबर वही जो टीवी के लिए ब्रेकिंग न्यूज।
एक तो शुएब सानिया की शादी की, जो कि पूरी तरह पुष्ट नहीं हो सकी और दूसरी पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेटर युसुफ के संन्यास की। सानिया शुएब की खबर ने खूब सुर्खी पाई पर युसुफ की खबर दब कर रह गई। प्रिंट मीडिया की बात करें तो उन अखबारों में तो थोडी गलीमत रही जहां खेल के दो पेज निर्धारित हैं पर जहां सिर्फ एक पेज है वहां तो इसे कहीं कोने में तो कही ब्रीफ में जगह मिली।
सनिया शुएब की खबर बडी थी। इसे खूब छापा गया। एजेंसी से खबर आने के बाद कई अखबारों ने तो अपने रिपोर्टर से कह कर इस खबर पर काम भी कराया। इस बात का पता मंगलबार को तमाम अखबार पढने से चलता है। सानिया शुएब की बात फिर कभी फिलहाल बात युसफ की।
हर खिलाडी को एक न एक दिन खेल को अलविदा कहना ही पडता है। सो युसुफ को भी कहना पडा। पर सवाल यह है कि युसुफ ने संन्यास लिया या फिर उन्हें यह फैसला लेने पर मजबूर किया गया। सि्थतियों की पडताल की जाए तो साफ पता चल जाएगा कि उन्हें मजबूरन यह फैसला लेना पडा। जिस खिलाडी ने टेस्ट क्रिकेट में 53 की औसत से और एक दिनी क्रिकेट में 42 से अधिक के औसत से रन बनाए हो उसका यूं खेल छोड देना थोडा अखर गया।
पाकिस्तान क्रिकेट के लिए युसुफ ने जो किया क्या उस आधार पर उन्हें इस तरह संन्यास की घोषणा करनी चाहिए थी। जवाब होगा शायद नहीं। तो फिर युसुफ ने ऐसा क्यों किया। युसुफ ने संन्यास की घोषणा के लिए बाकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाया। पर अचरज इस बात का कि उन्होंने इस दौरान वही कहा जो वह कहना चाहते थे। वह नहीं कहा जो लोग सुनना और जानना चाहते थे। उन्होंने इस दौरान साफ कह दिया कि वे किसी सवाल का जवाब नहीं देंगे। क्यों क्योंकि अगर वे पत्रकारों के सवालों के जवाब देते तो उनका दर्द उभर कर सामने आ जाता और फिर बिना बजह बात का बतंगड बन जाता।
याद आते हैं एडम गिलक्रिस्ट बात 2008 की है इसलिए संभवत दिमाग पर ज्याद जोर डालने की जरूरत नहीं। भारत और कंगारुओं के बीच अंतिम टेस्ट मैच खेला जा रहा था। उन्होंने पहली पारी में भारतीय सि्पनर अनिल कुंबले का कैच लपका। इसके साथ ही वे विकेट के पीछे कैच लेने वाले सबसे सफल विकेटकीपर बन गए। इसके साथ ही उन्होंने क्रिकेट से अलविदा कह दिया। उनके देश के प्रधानमंत्री केविन रूड ने गिली से अपने फैसले पर फिर विचार करने को कहा पर गिली से इससे साफ तौर पर इनकार कर दिया। वो समां आज भी याद आता है जब कंगारू खिलाडियों के साथ साथ भारतीय खिलाडियों के साथ हजारों दर्शकों के बीच गिली को मैदान से विदाई दी गई।
क्या युसुफ इस तरह की शानदार विदाई के हकदार नहीं थे। चाहे भारत हो या पाकिस्तान हमारे साथ यही समस्या है। पहले तो किसी न किसी कारण से खिलाडी को बाहर कर दिया जाता है फिर मजबूरन उसे अलविदा कहना ही पडता है। कपिल, वेंगसरकर, श्रीकांत, शास्त्री, सौरभ और इंजमाम जैसे कितने ही खिलाडी हैं जो शायद इस शानदार विदाई के हकदार थे पर उन्हें कैसे जाना पडा सब जानते हैं। इंजमाम को तो एक बंद कमरे में संवाददाता सम्मेलन बुलाकर इस बात की घोषण करनी पडी कि अब वह क्रिकेट नहीं खेलेंगे। वहीं वां बन्धु, लेंगर, डेनियल मार्टिन, मैक्ग्रा, वार्न को उनके देश के लोगों और क्रिकेट बोर्ड ने कैसी विदाई दी सबने अपनी आंखों से टीवी में देखा।
युसुफ ने सोचा भी नहीं होगा कि उन्हें इस तरह विदा होना पडेगा। दरअसल कोई खिलाडी नहीं चाहता कि उसे संवाददाता सम्मेलन कर इस बात की घोषणा करनी पडे कि अब वह नहीं खेलेगा। जहां वह अब तक रहा। जहां के प्रदर्शन की बजह से लोग उसे प्यार करते हैं यानी खेल का मैदान। वह वहीं इस बात की घोषणा करना चाहता है। युसुफ के दिल की टीस इस बात से जानी जा सकती है कि जाते जाते वह कह गए कि मैनें हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश की। मैं पाक बोर्ड को परेशान नहीं देखना चाहता इसलिए मैंने संन्यास का फैसला लिया है। युसुफ ने यह भी कहा कि पाक बोर्ड ने उन्हें अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया। मैं कुछ बताना चाहता था।
युसुफ के लिए क्रिकेट और अपने देश पाकिस्तान से बढकर कुछ नहीं था। शायद यही कारण था कि जब टीम में धर्म विवाद ने जन्म लिया तो उन्होंने यहूदी धर्म छोडकर इस्लाम कबूल करने में तनिक भी देरी नहीं की। किसी को हो न हो पर युसुफ का यूं चले जाना मुझे बहुत अखर गया।

शनिवार, मार्च 27, 2010

मेरी प्यारी साइकिल


पिछले दिनों एक खबर आई। यूं तो खबरें आती ही रहती हैं लेकिन उस खबर का जिक्र इसलिए कि मुझे वह कुछ सुखद लगी। हालांकि यह एक दुखद विषय है कि खबर को उतनी तवज्जो नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। शायद यही कारण है कि उसे खबर को विस्तार देने के लिए मुझे यह लेख लिखना पडा।
खबर थी कि दो सांसदों ने सांसद में साइकिल से आने की अनुमित मांगी है। उनका कहना था कि हम यह तो कहते रहते हैं कि ग्लोबल बार्मिंग हमें जीने नहीं देगी। कुछ करो। इसके लिए नेतागण भाषण तो बहुत देते हैं पर करते हुए नहीं। lवे लोग अपनी ओर से कुछ प्रयास करना चाहते हैं। प्रस्ताव वास्तब में स्वागतयोग्य है। अब यह तो समय ही बताएगा कि उनको इसकी अनुमति मिलती है या नहीं।
दरअसल, पहले सांसद में अन्य स्टैंडों की तरह साइकिल स्टैंड भी था। पर जब सांसद पर हमला हुआ इसके बाद यह कह कर साइकिल स्टैंड हटा दिया गया कि इससे सुरक्षा में कहीं न कहीं छेद होता है। क्योंकि साइकिल की उस तरह कोई खास पहचान नहीं की जा सकती जैसे अन्य वाहनों की की जाती है। बजाए इसके कि साइकिल की कोई खास पहचान बनाई जाए सरकार ने साइकिल के प्रवेश पर ही रोक लगाना बेहतर समझा। मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता लेकिन यह तो समझ समझ की बात है।
खैर अब बात साइकिल की और इसकी लोकप्रियता की। भारत में एक बालक को साइकिल चलाने में कितना आनंद आता है और वह साइकिल चलाने के लिए क्या कुछ नहीं करता बताने की जरूरत नहीं। अब भी जब मां बाप कहते हैं कि इतने परसेंट नम्बर लाने हैं तो बच्चा छूटते ही अच्छे अंक लाने पर साइकिल की ही मांग करता है। हालांकि यह भी सच है कि फैशन परस्ती ने साइकिल को दोयम दरजे का बना दिया है। कम से कम भारत में तो ऐसा ही है। अन्य जगहों की मुझे खास जानकारी नहीं। अपनी जानकारी की बात करूं तो पेरिस की राजधानी फ्रांस को फैशन का गढ माना जाता है। वहां की सरकार ने 2007 में एक योजना शुरू की थी। इसके तहत साइकिलों के करीब 750 केंद्र खोले गए थे। इनकी खास बात यह है कि यहां पर क्रेडिट कार्ड से भी साइकिल किराए पर ली जा सकती है। सभी साइकिल केंद्र इंटरनेट के माध्यम से जुडे हैं ताकि एक केंद्र से यह पता लगाया जा सके कि अन्य केंद्र पर साइकिल की उपलब्धता क्या है। अब बात किराए की। यह केवल नाम मात्र का ही रखा गया है। अगर आपको आधा घंटे के लिए साइकिल चाहिए तो यह मुफ्त होगी। इसके बाद दूसरे आधे धंटे के लिए किराया एक यूरो है। तीसरे आधे घंटे के लिए अगर आपको साइकिल चाहिए तो उसके लिए आपको तीन यूरो खर्चने होंगे। किराया समय के हिसाब से यूं ही बढता जाएगा। दरअसल किराया इसलिए रखा गया है ताकि बिना काम के कोई साइकिल को अपने पास न रखे।
पेरिस में शुरू की गई इस योजना से पशि्चम के नए विचारों की झलक मिलती है। कारों और अन्य वाहनों के कारण प्रदूषणा और जाम की समस्या बढती जा रही है। इससे अन्य दिक्कतों के साथ साथ जीवन की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। इस बात का अहसास पशि्चम को हो गया है। और हमें शायद कहने और बताने की जरूरत नहीं। तेल, बिजली और अन्य ईंधन के प्रयोग से वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढता जा रहा है। इससे धरती गरम हो रही है। इससे हम कहां होगें सोच कर एक भयाभय भविष्य सामने दिखता है।
खैर यह तो हुई विदेश की बात। बात हो रही थी सांसद में साइकिल लाने की। एक समय था जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी और अन्य वरिष्ठ नेता साइिल से ही सांसद आते थे। दो सांसदों की इस पहल से हो सकता है कुछ अन्य के मन में भी कुछ परिवर्तन आए। हालांकि एक सुखद पहलू यह है कि लोकसभा अध्यक्ष ने अपनी ओर से हरसंभव प्रयास करने की बात कही है जो कुछ विश्वास बंधाती है।

गुरुवार, मार्च 18, 2010

कैसे समझाएंगे भावी पीढ़ी को

दुर्गेश मिश्रा

घर बैठे मैं एक दिन टीवी पर धारावाहिक झांसी की रानी देख रहा था। उसमें बार बार बनारस, बिठूर और कानपुर का नाम आ रहा था। वैसे तो हमें टीवी देखने का समय ही नहीं मिलता, क्यों कि अखबारी लाइन ही कुछ एसी है। बिल्कुल संडिला की लड्डू की तरह बंद हांडी, हांडी के अंदर क्या है किसी को पता नहीं चलता। बाहर से चकाचौंध दिखने वाले इस अखबार की दुनिया में। यहां हर कोई एक दूसरे को काम को लेकर खाने को दौड़ता है। खैर यह तो रही अखबार और यहां नौकरी बजाने वालों की बातें। तो प्रसंग छिड़ा था धारावाहिक झांसी की रानी का। हां तो आधे घंटे के इस धारावाहिक में दिखाए जा रहे पूणे के निरवासित पेशवा बाजीराव और बिठूर स्थित उनके महल मे रह रहे पंडित मोरोपंत और उनकी बेटी मनु, पेशवा का दत्तक पुत्र नाना भाऊ और तात्या टोपे द्वारा इन बच्चों को दी जा रही शिक्षा और संस्कार को। इसे देखा एसा लगा कि अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले सपूतों की पहली नरसरी बिठूर में ही लगाई गई थी। अपनी इन्हीं उत्सुकता के चलते हमने गुगल पर बिठूर को खोजा। इसमें हमें रूप सिंह चंदेल का 8मई 2008 का लिखा यात्रा संस्मरण पढने को मिला। संस्मरण तो अच्छा था, लेकिन हमें निरासा तब हुई, जब पता चला कि पेशवा के विशाल भवन की जगह झाडियां उगी हैं और निशानी के रूप में दीवार का एक छोटा सा टुकडा मात्र बचा है। अब सवाल यह उठता है कि कल को हम अपनी भावी पिढी को कैसे समझाएंगे कि यहीं पर झांसी की रानी मनु, नानासाहेब और तात्या टोपे रहा करते थे। क्यों कि यहां तो उनके अवशेष ही नहीं रह गए हैं। निःस्वारथ भाव से देश के लिए सब कुछ लुटा बैठने वाले शहीदों की शहादत की बुनियाद पर खडी आज के भारत के रहनुमाओं को लाज नहीं आती। कहीं कोई अपनी स्वारथ के राजनीति की रोटियां सेकने के लिए किसी को चांद पर जमीन खारीद कर गिफ्ट करता है तो कोई राजमुद्रा का अपमान करते हुए करोडो रूपए का किसी मुख्यमंत्री को हार पहनाता है। और तो और खुद का महिमामंडन करने में व्यस्त एक राज्य का मुख्यमंत्री कितनी बेसरमी से कह देती है कि स्मारकों के रखरखाव के लिए कोई बजट नहीं रखा है। बात कुछ हद तक ठीक भी है। एतिहासिक स्थलों, स्मारकों के रख.रखाव का जिम्मा अकेले सरकार का नहीं होता। बल्कि इसके लिए सांझे प्रयासों की जरूरत होती है। इसका रख.रखाव करना देश के हर नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी बनती है। क्यों कि हमें समझाना होगा भावी पीढी को कि ये है हमारे देश का गौरवमई इतिहास और उनकी निशानियां। तो फिर देर किस बात की, आप भी हमारे साथ तैयार हो जाएं धरोहरों को बचाने के लिए।

रविवार, मार्च 14, 2010

बचाएं ताल तलैया और पोखर को


दुर्गेश कुमार मिश्रा

आफिस में बैठे खबरों की एडिंग कर रहा था उसी क्रम में अंबाला के किसी गांव की खबर हमारे सामने एडिट के लिए आयी, जिसमे लिखा था महिलाएं पीने के पानी के लिए दूसरे गांव जाती हैं, कारण गांव में लगा सरकारी नलकूप एक साल से खाराब पडा है। समझ में नहीं आता कि लोगों को हो क्या गया है। लगते।लगते तो लगा होगा और बनते.बनते ही तो बनेगा। इसमें घबराने की बात नहीं है। गांव वासियों थोडा धीरज धारो, सरकारी काम है, हो जाएगा। इससे अच्छे थे हमारे दादा, पडदादा के दिन। जब गांव में न नलकूप थे और न ही बिजली। उनका इन सब चीजों से कोइ सरोकार भी नहीं था। होता भी कैसे। उनके जमाने में तो ताल तलैया और कुआं जो हुआ करते थे। जहां गांव की औरतें पानी भरने जाती थीं ओ भी एक दो नहीं पूरे झूंड की झूड। उन्हें तो थकान भी नहीं आती थी। बल्कि उसी में वे अपना मनोरंजन भी कर लेती थीं। उस समय पनघट पर जातीं पनिहारिनों के पाजेब से उठती छन.छन की आवाज फिजा में एक अलग तरह की संगीत पैदा करती थी। यदी इस झूंड में साल दो साल की दुल्हन शामिल हो तो क्या कहना। औरतें एक दूसरे से चुटकी लेती मजाक करती पानी से भरा एक घडा सिर पर तो दूसरा बगल में दबाए खिलखिलाती हुइ अपने घर को आतीं थीं। इसके अलावा और भी उनके जिम्मे बहुत सारे काम होते थे। ना किसी से कोइ शिकवा ना शिकायत। और एक ये आज का समाज है। ना गांव में कुएं दिख रहे हैं और ना ही ताल तलैया और पोखर। और ना तो पनिहारिनों का वह झूडं जो भाटके हुए बटोही को रास्ता बता सके। आखिर क्यों हम पुराने संसाधानों से मुंह मोड रहे हैं। एक न एक दिन हमें दुबारा उन्हीं संसाधनों की तरफ मुंह करना होगा, जिनसे हम आज मुंह मोड रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे हलवायी की दुकान पर इंतजार करता है किसी ग्रांहक का कि कोइ उसे भी खरिदे, लेकिन रोज आ रही तरह. तरह की मिठाइयो की भीड में दुबका बैठा रहता है। परंतु जब कोई खास मौका आता है तो खोत शरू हो जाती है उसी लड्डू की जो हलवाई की दुकान पर अपने को उपेक्षित महसूस करता है। तो आइए, हम बचाएं ताल, तलैया, पोखर और कुओं के अस्तीत्व को। ताकि, पानी के लिए हमें भटकना न पडे।
लेखक पत्रकार हैं और इस समय हिन्दी दैनिक आज समाज अम्बाला में कार्यरत हैं।

बुधवार, मार्च 10, 2010

सूरत तो बदलनी ही चाहिए

आखिर वही हुआ, जिसकी सबको उम्मीद थी। जो सभी चाहते थे और सबसे बडी बात जो होना चाहिए था। मिल ही गया महिलाओं को आरक्षण। हालांकि अभी तो पहला और नन्हा सा कदम है। रास्ता लम्बा है। लेकिन हर सफर की शुरूआत पहले ही कदम से होती है। उम्मीद है कदम कदम यह अधिनियम भी अपनी मंजिल पा ही लेगा। संभव है इससे महिलाओं की हालत में सुधार आए। उनका जीवन खुशहाल बन जाए।
आरक्षण के विरोधियों ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोडी। उनका बस चलता तो ये दिन नहीं आता। हालांकि इसको गलत कहना भी अपने आप में गलत ही होगा। विरोधी आरक्षण के इस प्रारूप में परिवर्तन की मांग कर रहे थे जो कहीं से भी गलत नहीं था। उनकी अपनी सोच थी।
बहरहाल अधिनियम ने पहली बाधा पार कर ली है। अब सवाल यह है कि क्या इससे सि्थति में कोई परिवर्तन आएगा। महिला दिवस पर कई राष्टीय अखबारों ने कई ताकतवर महिलाओं के बारे में छापा। अच्छा है। आजादी के बाद महिलओं की सि्थति में काफी बदलाव आया है इसे नकारा नहीं जा सकता। लेकिन यह सिक्के का सिर्फ एक ही पहलू है। भले ही महिला सशकि्तकरण जमकर हुआ हो लेकिन हालात उस तरह नहीं बदले जैसे बदलने चाहिए थे। महिला उत्पीडन रोकने के लिए दहेज निषेध कानून बनाया गया लेकिन उसका कितना सही उपयोग हो रहा है और कितना गलत सब जानते हैं। जो इसका सही उपयोग करते हैं वह भी और जो गलत उपयोग करते हैं वह भी। सबको शिक्षा का अधिकार लाया गया लेकिन यह जानकर हैरत होती है कि इस सब के बाद भी 39 फीसदी महिलाएं प्राथमिक स्कूलों का मुंह तक नहीं देख पातीं। माता पिता उन्हें स्कूल नहीं भेजते। क्यों क्योंकि अगर वे स्कूल जाएंगी तो घर का काम कौन करेगा। महिलाओं को अभी भी भोजन तब करतीं हैं जब घर के पुरूष भर पेट भोजन कर लेते है। अब कैसे सुधरेगा महिलओं का स्वास्थ्य और कैसे मिलेगी उन्हें शिक्षा।
गांवों में अभी भी जहां कहीं भी महिला प्रधान हैं वहां काम कौन करता है वह भी सब जानते हैं। यही नहीं जब राबडी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं तो असली मुख्यमंत्री कौन था। आरक्षण मिले अच्छी बात है लेकिन सही मायने में। तभी आरक्षण के मायने हैं नहीं तो कौन जाने क्या होगा।

रविवार, मार्च 07, 2010

एक कदम आगे तो तीन कदम पीछे

अगर कोई व्यकि्त एक कदम आगे चले और उसके तुरत बाद तीन कदम पीछे तो वह कहां तक पहुंच पाएगा। यह कोई मुशि्कल सवाल नहीं। हालांकि कहावत एक कदम आगे दो कदम पीछे की है। लेकिन अफसोस कि उसमें संशोधन करना पड रहा है।
कोई अगर अपने लक्ष्य की ओर बढ रहा हो तो वह एक कदम आगे बढे और दो कदम पीछे। साफ है कि वह लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता। लेकिन अगर एक कदम आगे बढे और तीन कदम पीछे चले तो वह लक्ष्य तक तो नहीं ही पहुंचेगा साथ ही लक्ष्य से दूर और होता जाएगा। यही हाल भारतीय हाकी का है। यह तो सब जानते हैं कि वह लक्ष्य की ओर नहीं बढ रही पर सचाई यह है कि वह लक्ष्य दूर होती जा रही है। अब वही आभा वही चमक वही शान कब लौटेगी। कौन जाने।
विश्व कप हाकी के पहले मैच में पाकिस्तान के खिलाफ जैसा प्रदर्शन टीम ने किया अगले ही मैच में वही जज्बा और जुनून न जाने कहां काफूर हो गया। जो टीम एक मैच में सभी को चक दे कहने के लिए मजबूर करती है वही अगले मैच में बिखर कर रह जाती है।
इस विश्वकप की खास बात यह रही कि इस बार इसकी घर वापसी हुई थी। इसलिए यह एक मौका था जिसका लाभ उठाया जा सकता था। लगभग छह दशक तक जिस टीम ने अपना परचम लहराए रखा वह अब न जाने कहां खो गई है। शायद यह भारत में ही हो सकता है। हाकी तो हाकी कभी कभी ऐसा ही होता आया है।
एक समय ऐसा भी था जब जगह जगह बच्चे हाकी लिए फिरते थे। धीरे धीरे इसकी जगह गेंद और बल्ले ने ले ली। अब कोई भी बच्चा मेजर ध्यानचंद नहीं बनना चाहता। अब वह गावस्कर, कपिल और सचिन बनने के ख्वाब देखता है। जब टीम ने पहले मैच में पाकिस्तान को हराया तो टीम के सभी सदस्यों को एक एक लाख रुपये देने की घोषणा की। लेकिन अगले ही मैच में भारत उसी तरह खेलते हुए दिखा जैसे खेल पहले मैच में पाकिस्तान खेल रही थी।
बार बार कहा जाता है कि हाकी में पैसा नहीं है। जब टीम अच्छा खेल दिखाती है तो पैसे मिलते हैं। पैसे मिलते हैं तो प्रायोजक मिलते हैं। प्रायोजकों से और भी पैसे मिलते हैं और जब खिलाडियों को खूब पैसे मिलते हैं तो उनका मनोबल बढता है वे अच्छा खेल दिखाने के लिए और प्रयास करते हैं। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। सभी एक दूसरे के पूरक हैं। अब जब टीम जीतेगी ही नहीं तो भला उस पर कौन पैसा लगाएगा। अक्सर लोग कहते हैं कि क्रिकेट में बहुत पैसा है। सवाल यह है कि क्यों पैसा है। इसलिए क्योंकि टीम जीतती है। अगर टीम जीतना बंद कर दे तो उसका भी कोई नामलेवा नहीं रहेगा। याद करिये पिछला विश्वकप। टीम पहल ही राउंड में हार गई थी तो कैसे सारे प्रायोजकों ने उनसे अपना हाथ खींच लिया था। टीम ने फिर जीतना शुरू किया तो फिर उन्हें हाथों हाथ लिया गया। फिर पैसे की बरसात हो गई।
विषय से न भटकते हुए बात फिर हाकी की। कहने के लिए कहा जा सकता है कि पहले मैच में शिवेंद्र ने बेहतरीन प्रदर्शन किया जिसके परिणामस्वरूप टीम को जीत मिली। अच्छी बात है। शिवेंद्र टीम के महत्वपूर्ण सदस्य हैं। वे सौ से अधिक मैच खेल चुके हैं लेकिन 11 खिलाडियों के खेल में एक खिलाडी पर इतनी निर्भरता। एक अहम सवाल। कभी भारतीय क्रिकेट भी कुछ इसी तरह सचिन पर निर्भर थी लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। सचिन होते हैं तब तो टीम अच्छा खेलती ही है। नहीं होते तो भी कोई खास प्रभाव नहीं पडता। कहना न होगा कि कभी कभी सचिन की जगह जिसे मौका दिया जाता है वह उनसे अच्छा खेल दिखा जाता है।
कुल मिलाकर कहने का मतलब यही है कि हाकी टीम के दिन तभी बहुरेंगे जब सारे खिलाडी खेल दिखाएंगे। वरना . . .

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