सोमवार, मई 31, 2010

काहे की जनता जनार्दन



भारत में लोकतंत्र है, कहने को दुनिया सबसे बड़ा लोकतंत्र। यहां सरकार को जनता चुनती है। आम और खास लोग मिलकर यह तय करते हैं कि उन पर कौन राज करे। जिसे जनता चुनती है वही राज करता है। चुनाव प्रक्रिया निष्पक्ष हो इसके लिए चुनाव आयोग न जाने क्या-क्या प्रयास करता है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद उसके हाथ पूरी तरह खुल जाते हैं। सब कुछ तत्काल और निष्पक्ष साफ सुथरा। प्रयास यही कि सब कुछ पाक साफ रहे। कहीं कोई शक की गुंजाइश न हो और जल्दी भी हो जाए इसी बात को ध्यान में रखते हुए चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) का आगमन हुआ। लेकिन, अब पता चल रहा है कि वही इवीएम देश के लोकतंत्र में छेद कर रही है।


नब्बे के दशक में बैलेट पेपर से मतदान होता था। एक कागज पर क्षेत्र के प्रत्याशियों के चुनाव चिह्न बने होते थे। जिस प्रत्याशी को आप चुनना चाहते हैं उसके आगे मोहर लगा दीजिए फिर एक खास तरीके से उसे फोल्ड कर वहीं रखे एक डिब्बे में डाल दीजिए। इस प्रकार मैनें भी कई बार मतदान किया है। प्रक्रिया थोड़ी लम्बी है। खैर, इसके बाद जब वोटों की गिनती का काम होता था तो कई दिन तक रहस्य बना रहता था कि कौन सा प्रत्याशी जीत रहा है। यह बात मतदान प्रतिशत पर निर्भर करती थी कि मत गिनने में कितना समय लगेगा। जितना अधिक मतदान उतना ही ज्यादा समय। यानी रहस्य उतना ही गहरा। प्रक्रिया लम्बी, लेकिन कहीं भी शक की गुंजाइश नहीं। सब कुछ शुद्ध पानी की तरह साफ-साफ। समय बदला। लोग बदले तो तकनीक भी बदल गई। समय कम लगे इसलिए आ गई इलेक्टॉनिक वोटिंग मशीन। वोट डालने में भी कम समय। बस बटन दबाओ और काम खत्म। गिनने में भी कम समय। जल्द ही पता पड़ जाता है कि कौन जीत रहा है, सब कुछ जल्दी-जल्दी। पहले लगता था कि यह भी पाक साफ है। २००९ में हुए लोकसभा चुनावों में हारी हुई पार्टियों ने आरोप लगाए कि इवीएम से छेड़छाड़ की जा सकती है, इसकी जांच होनी चाहिए। यानी आप वोट किसी और को डालें और चला किसी और को जाए। इसकी सेटिंग की जा सकती है। तब लगा कि शायद हार की टीस मिटाने के लिए यह सब किया जा रहा है। यानी खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली बात हो रही है। लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस बात पर मोहर लगा दी है कि भारत में जो इलेक्टॉनिक वोटिंग मशीनें प्रयोग में लाई जा रही हैं उनमें छेड़छाड़ की जा सकती है। मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. एलेक्स और एक छात्र ने दावा किया है कि उन्होंने छेड़छाड़ में सफलता पाई है। प्रो. का कहना है कि उन्होंने होम मेड डिवाइस से इसके परिणाम बदल दिए।

तो क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय लोकतंत्र में छेद किया जा रहा है। जोर शोर से शुरू की गई पेपर रहित प्रणाली फेल हो चुकी है। जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। यानी आप वोट डालें किसी और को और चला किसी और को जाए। तो फिर काहे की जनता जनार्दन आयलैंड, नीदरलैंड और जर्मनी सहित कई देशों ने इन्हीं खामियों के चलते इवीएम का इस्तेमाल बंद कर दिया है। वे निरे बेवकूफ तो नहीं जो यूं तुरत-फुरत में कोई इतना बड़ा फैसला कर लेंगे। तो क्या अब भारत को भी एेसा ही करना चाहिए। खैर, यह तो देश के नीति-नियंता ही तय करेंगे।

खास बात यह है कि इससे पहले हैदराबाद की नेटइंडिया ने भी इसी तरह की बात कही थी। तब चूंकि मामला देसी था इसलिए इतनी तवज्जो इसे नहीं दी गई। हालांकि विपक्षी पार्टियों ने तब भी शोर किया था, लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक जब यही बात कह रहे हैं तब भी सत्ताधारी दल कुछ बोलने को तैयार नहीं। इसका मतलब क्या समझा जाए। सरकार को पिछले लोकसभा चुनावों में मिली अपनी जीत पर शक है या वह मामले को यूं ही टालना चाहती है। जो भी हो अगर अमेरिकी वैज्ञानिकों का निष्कर्ष सही है तो देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए कुछ न कुछ करना ही होगा। नहीं तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बिखरने से कोई बचा नहीं पाएगा।

गुरुवार, मई 27, 2010

तेंदुलकर को ग्वालियर का सलाम




भई अपने सचिन तेंदुलकर के क्या कहने। उनके बारे में क्या कहूं और क्या लिखूं। कई बार मन किया। कोशिश की, लेकिन नहीं लिख सका। वह इसलिए कि उनके बारे में क्या लिखूं। जब तक उनके किसी एक रिकॉर्ड के विषय में लिखा जाए, तब तक वे दूसरा रिकॉर्ड बना देते हैं। यह सिलसिला चलता ही रहता है। सच कहूं तो मन भी नहीं करता कि यह सिलसिला कभी बंद हो। जब सचिन ने ग्वालियर के रूपसिंह स्टेडियम में २०० रन बनाए तो चाहा कि लिखूं। लेकिन उससे पहले ही कई महान खेल पत्रकारों, विशेषज्ञों और न जाने किस-किस ने सब कुछ लिख डाला। खूब पढ़ा। जमकर पढ़ा। सोचता रहा कि मैं क्या लिखूं। कुछ समझ नहीं आया, तो यह विचार त्याग दिया। लेकिन क्या कहने। जब इतिहास लिखा गया तब मैं अंबाला में था, लेकिन कुछ समय बाद ही उस शहर में आ गया, जहां इतिहास रचा गया। अमर ग्वालियर और अमर रूपसिंह स्टेडियम। क्या कहने।
यहां आकर पता चला कि जब सचिन ने ग्वालियर के रूपसिंह स्टेडियम में नाबाद २०० रन बनाए थे तब से यहां के नगर निगम में एक प्रस्ताव लंबित था। उनके नाम से किसी मार्ग का नाम रखने का प्रस्ताव। वही प्रस्ताव गत दिनों नगर निगम परिषद की बैठक में पारित हो गया। यहां की पुरानी हुरावली रोड अब सचिन तेंदुलकर के नाम से जानी जाएगी। बैठक में इसके साथ ही एक निर्णय और लिया गया। रूपसिंह स्टेडियम की एक पवेलियन का नाम भी सचिन तेंदुलकर पवेलियन हो गया है। यह मई माह की परिषद की पहली बैठक थी। क्या कहने। भई वाह। आप क्या कहते हैं। मैं भी तो जानूं।

शुक्रवार, मई 21, 2010

एक है झारखंड


झारखंड यानी झार या झाड़ का खंड। झार माने वन और खंड माने टुकड़ा। कुल मिलाकर वन का एक टुकड़ा। अपने नाम के ही अनुरुप यह वन प्रदेश है। लम्बे संघर्ष और आंदोलन के बाद १५ नवम्बर २००० को यह देश का २८वां राज्य बना। यानी भारत के नवीनतम प्रांतो में से एक। इसकी राजधानी है रांची। मैं झारखंड का इतिहास या भूगोल नहीं बता रहा बल्कि इस राज्य के दुख में शरीक होने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि इसे राज्य का दुर्भाग्य मानूं या फिर खंड-खंड जनादेश देने वाली वहां की जनता की गलती। कुछ भी हो कहीं न कहीं तो गड़बड़ है। पहले भी लिख चुका हूं और फिर लिख रहा हूं कि मैं राजनीति पर नहीं लिखता। यहां भी राजनीति पर नहीं लिखूंगा पर एक राज्य का दुख जरूर बांटूंगा।
सत्ता हथियाने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से जोड़-तोड़ का खेल खेलना कोई नई बात नहीं। हर राज्य में समय समय पर यह अमूमन होता ही रहता है। राज्य क्या केंद्र में भी होता है। लेकिन जैसे ड्रामा झारखंड में इन दिनों खेला जा रहा है या पहले खेला गया वह अपने आप में शर्मिंदा करने के लिए काफी है। पिछले करीब एक महीने से यहां जो हो रहा है उसे नाटक या ड्रामा से ऊपर और क्या कहा जाए समझ नहीं पा रहा हूं। खास बात यह कि खेल अभी जारी है। रोज नए-नए घटनाक्रम हो रहे हैं, पर मामला है कि सुलटने का नाम ही नहीं ले रहा। खेल में शामिल और नाशामिल नेता भी इसे चटकारे मार कर देख रहे हैं और खंड-खंड जनादेश देने वाली जनता भी सोच रही है कि यह हमने आखिर क्या किया। पिछले एक महीने में कई बार एेसे मौके आए जब लगा कि अब इसका पटाक्षेप हो जाएगा पर फिर वही ढाक के तीन पात। जहां से चले थे वही रह गए।
बात शुरुआत से करें तो पता नहीं क्या ग्रह नक्षत्र हैं जो यहां स्थायित्व नहीं आने दे रहे। राज्य को राजनीतिक ग्रहण लगा हुआ है। राज्य बने हुए एक दशक हो गया लेकिन कुर्सी के खेल के अलावा राज्य ने इस दौरान और कुछ देखा हो मुझे याद नहीं पड़ता। विकास की जिस अवधारणा के साथ राज्य का गठन हुआ वह कहां गई किसी को पता भी नहीं। ज्यादा पीछे और गहराई में न जाएं तो भी दिखता है कि राज्य में नक्सलवाद की समस्या मुंह बाए खड़ी है लेकिन नेताओं को सत्ता की कुर्सी के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता। चाहे वह अपने आप को अलग कहने वाली भाजपा हो या सबसे पुरानी पार्टी का तमगा रखने वाली कांगे्रस यहां सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। महान झारखंड मुक्ति मोर्चा की बात ही क्या है। पार्टी और उसके मुखिया के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के समान होगा।
अब बात यह कि आखिर इस मर्ज की दवा क्या है। एेसी स्थिति में अगर सरकार बनती भी है तो क्या वह स्थायित्व दे पाएगी। क्या वह मजबूत सरकार होगी। क्या विपक्ष अपनी बात प्रखरता से रख पाएगा। अगर विपक्ष कमजोर हुआ तो इससे मजबूत तानाशाह का ही जन्म होगा। और मान लीजिए कि फिर से चुनाव की नौबत आई तो क्या होगा। नेता तो मैदान में उतर जाएंगे। उनके पास धन भी है और बल भी। पर इस कवायद में जो खर्चा आएगा उसकी चोट किस पर होगी। आम आदमी पर ही ना। एक बात और इस ब्लॉग के माध्यम से, कि अगर इस बार चुनाव हो तो आप कृपया इस तरह का जनादेश मत दीजिएगा। यह सही है कि आपको खराब में कम खराब कौन इसका चुनाव करना पड़ता है पर फिर भी आप अपने स्तर पर कुछ एेसा जरूर करिए जो इस तरह की नौबत फिर न आए। तकरीबन सौ साल पहले १९०० में सबसे पहले राज्य गठन की मांग की गई। तब से २००० तक विभिन्न स्तरों पर आंदोलन हुए। इस दौरान राज्य ने क्या कुछ नहीं देखा और कुछ रह गया था जो अब देखना बाकी है।

काइट्स

क्या आप कोई एक एेसा कारण बता सकते हैं जिसकी वजह से आप काइट्स देखने जाना चाहते हैं। हां, आपको बता दूं कि रितिक रोशन और बारबरा मोरी के बीच फिल्माए गए कुछ अंतरंग दृश्य सिर्फ अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को ही देखने को मिलेंगे। क्योंकि उन दृश्यों को केवल अंतरराष्ट्रीय संस्करण में ही रखा गया है। इसके बाद भी क्या आप देसी संस्करण देखना चाहते हैं। अगर हां तो क्यों।

सोमवार, मई 03, 2010

अजमल आमिर कसाब


अजमल आमिर कसाब। है तो एक आतंकी का नाम लेकिन आज उसे बच्चा बच्चा जानता है। बचपन में सुना था कि या तो बहुत अच्छे बन जाओ या फिर बहुत बुरे। जो बहुत अच्छा काम करते हैं या तो वे याद रखे जाते हैं या फिर दो दुष्टता की हद पार कर जाते हैं वे जाने जाते हैं। बाकी बीच के लोगों को कोई नहीं जानता। आज वह बात सही सी लग रही है। कसाब को बच्चा बच्चा इसलिए जानता है कि उसे जघन्यता की सारी हदें पार कर दीं। बहुत संभव है कि इसमें मीडिया का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। अखबारों और टीवी में उसकी खबरें खूब प्रमुखता से छापी और दिखाई गईं। और जब लगातार तीन दिन तक मुंम्बई पर आतंकी साया रहा तब तो लाइव दिखाया गया। लगातार लाइव। अब २४ घंटे में कोई समय तो एेसा आएगा ही जब बच्चा टीवी देखेगा कि कभी नहीं देखेगा। खैर यह मुद्दा नहीं है। मूल बात कुछ और ही है।
वही हुआ जिसकी उम्मीद थी और जो होना चाहिए था। अजमल आमिर कसाब को अदालत ने दोषी करार दे दिया है। यानी उसके ऊपर जो आरोप लगे वे सही हैं। अब बहस होगी कि उसे सजा क्या दी जाए। इस पर तरह तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि उसे मौत की सजा दे कम कुछ नहीं मिलना चाहिए। कोई कह रहा है कि मौत की सजा से क्या होगा। उसे जिन्दा रख कर ऐसी सजा दी जाए जो वह याद रखे। अजमल तो खुद ही चाहता है कि उसे मार दिया जाए। कुछ लोगों को मत इससे हटकर है। उनका कहना है कि यह सब सजाएं तो किसी को भी मिल ही जाती हैं। पहले से चली आ रही हैं यानी परम्परागत सजाएं हैं। अजमल भारत के ऊपर अब तक के इतिहास में हुए सबसे बड़े हमले का आरोपी है। उसने 166 भारतीयों क जान ली है। इन 166 लोगों में विजय सालस्कर,हेमंत करकरे और अशोक काम्टे जैसे भारत के सपूतों को मार डाला हो। उसे कोई परम्परागत सजा कैसे मिल सकती है। इस जघन्य अपराध के लिए तो कोई नई सजा बनानी चाहिए, जिसे देख कर कोई भी कांप जाए और आतंक फैलाने वालों और उनका साथ देने वाले अपना काम करने से पहले सौ बार सोचें। अदालत को इसके लिए कुछ खास कदम उठाने चाहिए। उसी पिटी पिटाई लकीर पर चलकर कुछ नहीं होगा। इस तरह की परम्परागत सजा कितनों को मिली। कितनों को उम्रकैद दी गई और कितनों को फांसी की सजा दी गई। उससे क्या हुआ।
इन्हीं सब बातों के बीच एक सवाल मेरे जहन में भी कौंधा। सवाल यह कि अदालत ने अगर कसाब को दोषी माना है तो बहुत हद तक संभव है कि उसे उम्रकैद तो न ही हो। हो सकता है उसे फांसी की सजा दे दी जाए। लेकिन असल सवाल सही है कि क्या उसे फांसी पर लटकाया जा सकेगा। क्या अब तक आतंक फैलाने वालों को अदालत से फांसी की सजा दी गई उन्हें लटका दिया गया। क्या अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। यही भारतीय लोकतंत्र की कहें या किसी भी कहें विडम्बना है। वे सब अभी जिंदा हैं और शान से रह रहे हैं। यही नहीं जिस देश के खिलाफ उन्होंने षड्यंत्र रचा जिस देश के लोगों को उन्होंने माना उसी देश के लोगों की मेहनत की रोटी वे खा रहे हैं। उनके लिए सुरक्षाकर्मी भी तैनात किए गए हैं। बस यही सवाल मुझे परेशान कर रहा है। मैं खुद यह समझ नहीं पा रहा हूं कि अजमल आमिर कसाब को क्या सजा मिलनी चाहिए। क्या उसे मौत दे देनी चाहिए या फिर जिंदा रखकर ऐसा सबक सिखाना चाहिए जो दूसरों के लिए नजीर बने। कुछ भी हो लेकिन मेरा खुद का मानना भी यही है कि कुछ तो खास इस बार होना चाहिए। हालांकि, इस बात पर संतोष जाहिर किया जा सकता है कि यह केस मात्र ५२१ दिन में ही पूरा हो गया और उसे दोषी करार दिया गया। शायद यही कारण है कि लोगों में न्यायपालिका के प्रति थोड़ा बहुत सम्मान अभी बचा है। अगर सजा का निर्धारण भी जल्द कर लिया जाए और उसका क्रियान्वयन भी ध्रुत गति से हो तो शायद लोगों के मन में यह आए कि चलो कोई हो या न हो लेकिन न्यायपालिका अभी जिंदा है और उस पर भरोसा किया जा सकता है।
हालांकि, इस आपाधापी के जीवन में बहुत कम लोग एेसे होते हैं जो ब्लॉग के लेख को पूरा पढ़ते हैं। कुछ लोग चार लाइनें पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो टिप्पणी कर रहा है उसने पूरी पोस्ट पढ़ी ही हो। फिर भी मेरा फर्ज है इसलिए लिख रहा हूं कि अगर आपने पूरी पोस्ट पढ़ी है और टिप्पणी करने का मन कर रहा है तो कृपया कम से कम इस पोस्ट पर चलताऊ टिप्पणी न करें। अगर हो सके तो यह बताएं कि अजमल आमिर कसाब को क्या सजा दी जा सकती है। क्या हो सकता है। हालांकि यह बहुत छोटा मंच है। यहां लिखने से कोई खास फर्क पडऩे वाला नहीं है। जो न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं वह इस ब्लॉग को नहीं पढ़ेंगे और मैं कहता हूं पढ़ भी लें तो आपके कहने से सजा का निर्धारण नहीं करेंगे। लेकिन फिर भी यह मामला चुंकि बहुत संवेदनशील है इसलिए उतनी ही संवेदनशीलता से ही टिप्पणी कीजिएगा। कुछ समझ में न आए तो कुछ मत कीजिएगा पर फिर वही बात कहूंगा कि चलताऊ टिप्पणी कृपया इस पोस्ट पर न करें।

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