रविवार, नवंबर 28, 2010

बस! बहुत हो गया क्रिकेट क्रिकेट

राष्ट्रमंडल खेलों के बाद अब एशियाड भी समाप्त हो गया। भारत को इस बार छठा स्थान प्राप्त हुआ। इस बार भी कई ऐसे खिलाडिय़ों ने भारत को गौरवांवित कराया, जिन्हें देश तो क्या उनके मोहल्ले के लोग ही नहीं जानते थे। अब साबित हो गया है कि राष्ट्रमंडल खेलों में मिली सफलता कोई तुक्का नहीं थी और न ही यह इसलिए मिली कि खिलाड़ी अपनी जमीन पर खेल रहे थे। कुल मिलाकर उन्होंने कड़ी मेहनत की और अच्छा प्रदर्शन किया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें सफलता मिली।

राष्टमंडल खेलों की समाप्ति पर कई विशेषज्ञ इस बात पर चिंता जाहिर कर रहे थे कि क्या इतनी जल्दी हमारे खिलाड़ी फिर से अपने आप को तैयार करके वैसा ही प्रदर्शन दोहरा पाएंगे जैसा उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स में किया। खिलाडिय़ों ने हाल के दिनों में अपने आप को मिले दो मौकों पर साबित कर दिया है और आगे भी अगर मौका मिलेगा तो वे किसी से पीछे नहीं रहेंगे और साबित कर देंगे। अब सरकार की बारी है कि वह इन नये सितारों को दिश दे जिससे यह और ऊंचाईयों को छू सकें।

मुझे लगता है अब क्रिकेट क्रिकेट का शोर बंद होना चाहिए। क्रिकेट के अलावा और भी खेल हैं। खास बात यह है कि ये खेल क्रिकेट जितना समय भी नहीं लेते और खिलाड़ी जीतकर भी दिखाते हैं। अब क्रिकेट के लिए पूरा दिन बर्बाद करने से कोई लाभ नहीं। हमें चीन की ओर देखना चाहिए, जो दो सौ स्वर्ण जीतने के करीब था। वह क्रिकेट नहीं खेलता। हम क्रिकेट में विश्व विजेता रहे लेकिन अन्य खेलों में कुछ नहीं कर पाए। अब जबकि नई पीढ़ी क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में रुचि ले रही है तो हमें उनका उत्साहवद्र्धन करना चाहिए। अगले कुछ समय में जनसंख्या के मामले में हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। क्या यही एक क्षेत्र है जिसमें हम चीन को पछाड़ सकते हैं। हमारे युवा खिलाडिय़ों ने साबित कर दिया है कि बिना किसी खास टे्रनिंग के भी वे पदक जीत सकते हैं अगर उन्हें थोड़ा सा संबल मिल जाए तो वे और भी कमाल कर सकते हैं। हालांकि, हम लोग दिल्ली और दोहा को पीछे छोड़कर खुश हैं पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी तो यह आगाज है अब भारत सबकी निगाहों में आ गया है और अब असल परीक्षा शुरू होगी। शिखर पर पहुंचना आसान है लेकिन उसे कायम रखना मुश्किल होता है। अब यही मुश्किल काम हमें करना होगा।

मीडिया को भी इसमें अहम रोल अदा करना है। राष्ट्रमंडल खेल चूंकि दिल्ली में ही हो रहे थे, सो पदक जीतते ही मीडिया उन्हें अपने स्टूडियो में बुला रहा था। एक बारगी तो ऐसा लगा कि हर चैनल में होड़ सी है कि कौन सा चैनल पहले विजेताओं से बात करे। अब जबकि एशियन गेम्स के चैम्पियन आएंगे तो उनका स्वागत कैसे होता है। कौन चैनल विजेता के घर तक की स्थिति का जायजा लेता है। यह देखना होगा।

अक्सर क्रिकेट के अलावा किसी खेल में जीत के बाद कुछ देर तो हम उसे याद रखते हैं और फिर देखने लगते हैं क्रिकेट। अब इसमें बदलाव आना चाहिए। 1983 का विश्वकप जीतने के बाद देश में क्रिकेट क्रांति आई थी। हर बच्चा क्रिकेटर बनना चाहता था। उसी का परिणाम है कि आज क्रिकेट में हम नम्बर वन हैं। अब जबकि जिमनास्टिक में भी देश का नाम रोशन हो चुका है तो बच्चों और युवाओं के साथ-साथ उनके अभिभावकों को भी सोचना चाहिए कि उनका बच्चा क्रिकेट में 13 खिलाड़ी बन कर रहे या रेस में सबसे आगे आए। अब उन क्रिकेटरों से दूरी जरूरी है जो आराम करने के लिए समय तब मांगते हैं जब न्यूजीलैंड जैसी टीम हमारे घर में ही खेल रही है। उन्हें तब आराम की दरकार नहीं होती जब आईपीएल चल रहा होता है। आईपीएल में आराम न करने की वजह सब जानते हैं। अगर कोई क्रिकेटर वाकई देश के लिए खेलता है तो फिर आईपीएल से आराम ले ना कि किसी एक दिवसीय या टेस्ट शृंखला में। यह बदलाव का दौर है और मुझे यकीन है कि बदलाव खेल में भी आएगा...

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

यह संक्रमण काल है!

बहुत मुश्किल है। समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूं। इधर कई बार कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन जब तक एक विषय पर लिखने का मन बनाया तब तक कोई दूसरी घटना हो जाती, जो पहली से बड़ी लगती। जब तक उस पर सोचा तब तक उससे बड़ी बात हो जाती। यही करते-करते एक माह से अधिक बीत गया। अब लगने लगा है कि जिस तरह खबरों का सिलसिला लगातार जारी रहता है और एंकर बाद में कह जाता है कि आप देखते रहिए उसी तरह आप देश को और उसकी हालात को देखते रहिए। आपके टीवी बंद कर देने से यह क्रम टूटेगा नहीं।
इस देश की क्या हालत हो गई है। किस पर भरोसा करूं। देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुका है। अभी बहुत समय नहीं बीता जब राजनीति बहुत नेक पेशा माना जाता था। बल्कि इसे तो पेशा माना ही नहीं जाता था। यह तो समाज सेवा का एक माध्यम था। इसमें भी बहुत समय नहीं बीता जब हर तरह के भ्रष्टाचार में, घपलों में, घोटालों में किसी न किसी नेता की ही संलिप्तता पाई जाने लगी। इसके बाद नेता का मतलब बहुत ही तुच्छ व्यक्ति हो गया। लोग नेता शब्द से ही घृणा करने लगे। जब भी किसी बड़ी परीक्षा के परिणाम आते और उनमें विजयी हुए प्रतिभागियों से पूछा जाता, तो वे सब कुछ बनना चाहते हैं, लेकिन नेता नहीं। नेता शब्द कितना बदनाम हो चुका है इस उदाहरण से यह आसानी से समझा जा सकता है। अब सवाल यह है कि किस-किस से घृणा कीजिएगा, क्या-क्या नहीं बनिएगा। सब तो एक ही जैसे हैं। जीवन में कुछ करना है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा।
गौर करें तो पाएंगे कि बोफोर्स को छोड़ दें तो मुझे याद नहीं पड़ता कि इतने बड़े घोटाले में किसी प्रधानमंत्री का नाम सामने आया हो। मंत्री ही अपने स्तर पर इससे निपट लेते थे। लेकिन, अब एक बार फिर प्रधानमंत्री जैसा पद दागदार हो गया है। भले वे पाक साफ हों पर उनकी साफ सुथरी पोशाक पर 'कीचड़Ó के छीटे तो पड़ ही गए हैं। बाद में क्या होता है। यह बाद की बात है। अभी तक चाल, चरित्र और चेहरे की दुहाई देने वाले भाजपाई हालांकि समय समय पर अपना असली चेहरा उजागर करते आए हैं, लेकिन जब आप किसी पर अंगुली उठा रहे हो कम से कम उस समय तो आप पर कोई ऐसा आरोप न लगे, जिसके लिए आप दूसरे को घेर रहे हों। भाजपा कुछ-कुछ उसी तरह के घोटाले के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस को घेर रही थी, जैसा उनके मुख्यमंत्री ने कर्नाटक में कथित रूप से किया है। बड़ी हैरानी होती है।
अगर यह ढूंढऩे निकला जाए कि कौन से पेशे से जुड़ा व्यक्ति सही है तो मुझे नहीं लगता कि आपको किसी पेशे से जुड़ा व्यक्ति मिल पाएगा। हालांकि, यह बात सही है कि किसी एक व्यक्ति के भ्रष्ट हो जाने से कोई पेशा कलंकित नहीं हो जाता। लेकिन, कहीं न कहीं यह तो लगता ही है कि इस पेशे से जुड़ा व्यक्ति गलत काम में संलिप्त है। हमारी भारतीय संस्कृति में बाबा को बहुत मान और सम्मान दिया जाता है। दरअसल उन्हें भगवान का ही दूसरा रूप माना जाता है। लेकिन, बड़े-बड़े और नामी बाबाओं ने कैसे हमारी भक्ति और उम्मीदों पर तुषारापात किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। मैं यहां किसी बाबा का नाम नहीं लूंगा। क्योंकि, एक तो इससे उनके भक्तों को आघात लगेगा और दूसरा यह सूची बहुत लम्बी हो जाएगी। हमारे देश की पुलिस तो रिश्वत लेने , फर्जी एनकाउंटर करने और अन्य कई तरहों की हरकतों के कारण बहुत बदनाम हो चुकी है, लेकिन सेना को तो बहुत पूज्य माना जाता है। उन्हें हम अपना रक्षक मानते हैं। लेकिन, जब उन्हीं रक्षकों का सेनापति ही किसी भ्रष्टाचार में संलिप्त पाया जाता है तो क्या कह कर अपने मन को समझाइएगा। बात किस सेना प्रमुख की हो रही है और उन महाशय ने क्या किया है, मुझे नहीं लगता कि यह बताने और समझाने की जरूरत है।
बहुत दिनों तक यह मानता रहा कि कम से कम कोई पत्रकार किसी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं पाया जाता। इसके कई कारण रहे। एक तो यह कि उसके ऊपर पहले से ही समाज के समाने सबकी कलई खोलने की जिम्मेदारी होती है वही अगर कुछ गलत करेगा तो किस मुंह से किसी को गलत कहेगा। मैं खुद इस पेशे में आया इसका अन्य कारणों के साथ-साथ शायद एक बड़ा कारण यह भी था। लेकिन, अभी हाल ही में देश के दो पत्रकारों ने कथित रूप से दलाली में शामिल होकर मेरी इस धारणा को भी चूर-चूर कर दिया। बड़ी बात यह रही कि ये दो वे नाम हैं, जिनका नाम बहुत सलीके और सम्मान के साथ लिया जाता है। बहुत से युवा पत्रकार उनसे मिलने, बात करने और उनके जैसा बनने का ही सपना संजाते रहते हैं। लेकिन, मुझे नहीं लगता कि अब कोई भी उनके जैसा बनने की सोचेगा भी। कम से कम जब तक वे पाक-साफ नहीं हो जाते तब तक तो कतई नहीं।
हालांकि, अंत में यह कह देना भी जरूरी है कि मैं बहुत आशवादी व्यक्ति हूं और यह मानता हूं कि परिवर्तन ही संसार का नियम है और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। यह भी बदल जाएगा।

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

भारत और इंडिया के फर्क को समझिए


एक महिला ने दूसरी से कहा, तुम्हें पता है भारत और इंडिया में लड़ाई हो गई है? दूसरी ने कहा, इससे हमें क्या, हम तो हिन्दुस्तान में रहते हैं ना।
यह एक चुटकुला है, लेकिन कहीं न कहीं यह सच्चाई भी बयां करता है। इस पर जरा सोच कर देखिए। क्या भारत और इंडिया अलग-अलग हैं? क्या इन दोनों में अक्सर लड़ाई होती रहती है? दोनों के जवाब हां में ही हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स या फिर राष्ट्रमंडल खेलों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि हम वाकई ऐसी जगह रहते हैं, जहां दो देश बसते हैं। गौर कीजिएगा तो साफ पता चल ही जाएगा।

हाल ही में हमारे यहां विश्वस्तरीय खेल हुए। खेल मात्र दस दिन हुए, लेकिन इसकी तैयारियां सालों से हो रही थी। होनी भी चाहिए आखिर देश की प्रतिष्ठा का सवाल है। भाजपानीत राजग के शासनकाल में इन खेलों की मेजबानी की अनुमति मिली तो कांग्रेसनीत संप्रग शासनकाल में ये खेल सम्पन्न हुए। यानी दो धुर विरोधी दलों ने खेल के लिए एक मंच पर आकर बिना राजनीति के एक दूसरे का सहयोग किया। खेल का मामला ऐसा होता है कि जहां अक्सर कहा जाता है कि इसे राजनीति से अलग रखा जाए, लेकिन रखा नहीं जाता। राजनीति में अक्सर खेल होता रहता है और खेल में राजनीति। खैर यह बहस और चर्चा का दूसर विषय हो सकता है।

खेलों के दौरान देश के दो चेहरे देखने को मिले। एक चेहरा वह जिसने कॉमनवेल्थ गेम्स कराए और दूसरा वह जो राष्ट्रमंडल खेलों में भागीदारी कर रहे थे। जिन लोगों ने कॉमनवेल्थ गेम्स कराए उसने देश के कॉमन लोगों की वेल्थ पर जमकर डाका डाला। अनुमानित खर्च कितना था और कितना खर्च किया गया यह सभी को पता है, जो खर्च ज्यादा किया गया वह खर्च करने वालों ने अपनी जेब से नहीं किया, बल्कि आम आदमी की जेब से ही किया है। तैयारियां वर्षों से हो रही थीं, लेकिन खेल के ऐन वक्त तक काम जारी रहा। काम में विलम्ब इसलिए किया गया ताकि अंतिम समय पर अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जाए और इसे देश की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया जाए। इस पर कोई बोलेगा नहीं। जो बोलेगा वह राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाएगा।

खेलों के दौरान दूसरा चेहरा उन लोगों का देखने को मिला, जो राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा ले रहे थे। उन्होंने राष्ट्र के लिए कितने पद जीते और देश को किस मुकाम तक पहुंचाया। यह जगजाहिर है। जहां कॉमनवेल्थ के आयोजक वेल्थ बनाते रहे, वहीं राष्ट्रमंडल के प्रतिभागी राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाते रहे। यानी एक तो हिन्दी के खेल हुए दूसरे अंग्रेजी का खेल। पदक जीतने वालों में ज्यादातर खिलाड़ी भारत के थे बजाए इंडिया के।

एक खेल खत्म तो दूसर शुरू हो गया है। अब खेल हो रहा है खेलों के आयोजन की प्रशंसा पाने का। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी तक विजेताओं से मिल रहे हैं। क्या ये लोग कभी उन अखाड़ों में गए हैं, जहां से ये पदक विजेता निकले हैं। राहुल गांधी को लगता है कि दलित के घर जाकर उसकी खटिया पर बैठकर चार बातें कर लेने और उसकी रोटी खा लेने से ही उन्होंने असली भारत को देख लिया। क्या इन लोगों को उन लोगों की पीठ नहीं थपथपानी चाहिए जो मात्र कुछ अंतर से ही पदक जीतने से रह गए। उनमें नया जोश नई स्फूर्ति कौन भरेगा। क्या जीतने वालों को ही टीवी पर दिखने का हक है? उन लोगों के बारे में कौन सोचेगा जो हार गए। मीडिया भी उन्हीं के गुण गा रही है, जो जीते हैं। हारे हुए लोगों को फिर से नए सिरे से खड़ा करने का जिम्मा कौन उठाएगा? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अगले ही महीने एशियाड होने हैं और अगर से विजेता किन्हीं कारणों से फिर से यही कारनामा नहीं दोहरा पाए तो जो कुछ अंतर से हारे हैं उन्हीं पर जीतने का दारोमदार होगा। अगर उन्हें अभी से तैयार नहीं किया गया तो क्या होगा? इंडिया की जयजयकार छोड़कर भारत की भी परवाह कीजिए नहीं तो...

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

थिंक बिफोर यू स्पीक

राहुल गांधी। इस समय कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हैं और युवा कांग्रेस की देखरेख की जिम्मेदारी निभा रहे हैं। उन्हें भविष्य का प्रधानमंत्री कहा जाता है, हालांकि उन्होंने कभी नहीं कहा कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। दरअसल वे कुछ और ही कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि संघ और सिमी एक ही थाली के चट्टे- बट्टे हैं। उन्हें दोनों में कोई फर्क दिखाई नहीं देता। उन्हें चमचागिरि और चापलूसी करने वाले लोग भी कतई पसंद नहीं। वे कहते हैं कि हर मर्ज की सिर्फ एक ही दवा है और वह है राजनीति।

अपने मध्य प्रदेश के दौरे के दौरान राहुल गांधी ने कई बातें कहीं। कुछ ऐसी जो कहनी चाहिए थी और कुछ ऐसी जो मेरे ख्याल से नहीं कहनी चाहिए। राहुल ने कहा कि उन्हें चाटुकार और चमचे पसंद नहीं हैं। मुझे नहीं पता कि ये राहुल के निजी विचार हैं या फिर पारिवारिक। राहुल को भले चाटुकार पसंद न हों पर उनकी मां को चाटुकार और चमचे ही पसंद हैं। अगर नहीं होते तो प्रतिभादेवी सिंह पाटिल आज देश की राष्ट्रपति नहीं होतीं। हो सकता है कि मेरी इस बात की जमकर आलोचना की जाए पर मैं जानना चाहता हूं कि प्रतिभादेवी सिंह पाटिल में ऐसी कौन सी खूबी है जो वह राष्ट्रपति के उम्मीदवार हो गईं। अगर महिला होने की वजह से उन्हें राष्ट्रपति बनाया गया तो प्रधानमंत्री पद क्यों किसी पुरुष के सुपुर्द कर दिया गया। क्या पार्टी में कोई ऐसी योग्य महिला नहीं जो प्रधानमंत्री बन सके? या फिर ऐसी महिला नहीं जो सोनिया गांधी की बात को आंख पर पट्टी बांध कर मान ले। खुद के प्रधानमंत्री न बन पाने के बाद क्यों उन्होंने कठपुतली मनमोहन सिंह का चयन किया। क्या कांग्रेस में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो अपने दम पर लोकसभा चुनाव जीत सके और प्रधानमंत्री बन सके। दरअसल सोनिया अच्छी तरह जानती हैं कि जो नेता लोकसभा का चुनाव जीत सकता है उसका अपना अच्छा खासा जनाधार होता है। मनमोहन सिंह चूंकि लोकसभा से संसद में प्रवेश नहीं करते सो उनका जनाधार भी नहीं होगा। सोनिया सिर्फ उन्हीं लोगों को पद बख्श रहीं हैं जो उनके कहे पर चलें। वे कहेंं दिन तो दिन और कहें रात तो रात। ऐसे नामों में केवल राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि कई नाम हैं। अगले लोकसभा चुनाव में जब राहुल प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे उससे पहले ही मनमोहन सिंह को राष्ट्रपित भवन भेजने की पूरी तैयारी अभी से की जा रही है। राहुल को पहले अपने घर से चमचागिरि खत्म करनी होगी तब वे कार्यकर्ताओं को चमचागिरी न करने का पाठ पढ़ाएं तो ज्यादा अच्छा होगा।

राहुल कहते हैं कि देश की हर समस्या की खात्मा तभी होगा जब युवा राजनीति में आएंगे। यानी हर मर्ज की एक ही दवा। राजनीति और सिर्फ राजनीति। कोई कम अक्ल का व्यक्ति भी यह बता सकता है कि कभी भी हर मर्ज की एक ही दवा नहीं हुआ करती। अगर देश का हर व्यक्ति राजनीति करने लगेगा तो बाकी के काम कौन करेगा, यह भी राहुल को तय करना होगा। केवल राजनीति से देश नहीं चला करता। राजनीति पेट नहीं भरती। वे युवाओं को देश की राजनीति में लाना चाहते हैं। पहले उन्हें अपनी पार्टी में युवाओं को स्थान देना होगा। पहले वे अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से अपनी मां को हटाकर किसी युवा नेता को इसकी जिम्मेदारी सौंपे और फिर किसी युवा को ही प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करें। केवल युवा कांग्रेस को बदलकर देश की राजनीति नहीं बदली जा सकती। राहुल को यह बात भी समझनी होगी कि कहने और करने में बहुत फर्क होता है। देशभर में घूमने से, दलित के घर जाकर रोटी खाने से और उसके घर सोने से दलित को अच्छा तो लग सकता है, लेकिन इससे उसके पेट की भूख कम नहीं हो सकती। देश भूख है, कराह रहा है। इसके लिए राहुल के पास क्या दवा है? राजनीति। देश घूमकर उसकी समस्याओं को समझना एक बात है और उसकी समस्याओं का निराकरण करना दूसरी बात।

राहुल कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते। राहुल को चाहिए कि वे पहले अपनी पार्टी के उन नेताओं को यह कहने से मना करें, जो उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं। राहुल को यह पता है कि अगले लोकसभा चुनाव में अगर उनकी पार्टी को बहुमत मिला तो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार वही होंगे सो अभी से ढोल-ताशे क्यों पीटे जाएं। हालांकि भीतर ही भीतर इसकी तैयारियां शुरू कर दी गई हैं। योजना तैयार की जा रही है।

मजे की बात यह रही कि राहुल यहीं तक नहीं रुके। बुधवार को तो उन्होंने गजब ही कर दिया। उन्होंने कह दिया कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सिमी में उन्हें कोई फर्क नजर नहीं आता। सवाल यह है कि क्या राहुल ने कभी निष्पक्ष भाव से दोनों में कोई फर्क देखने की चेष्टा की है। नहीं की होगी, क्योंकि उनकी आंखों पर एक तरह का चश्मा लगा है और उन्हें जो कुछ भी दिखता है। उस चश्मे से ही दिखता है। अगर निष्पक्ष भाव से देखते तो उन्हें पता चल जाता कि संघ और सिमी में क्या फर्क है। सिमी जहां एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन है, वहीं संघ भारत भूमि की आत्मा से जुड़ा हुआ संगठन है। राहुल को अगर देशप्रेमी और देशद्रोही संगठनों में कोई फर्क नजर नहीं आता तो कोई क्या कर सकता है। बस उनकी बुद्धि पर मुस्कराया ही जा सकता है। वे जिस देश की राजनीति में युवाओं को लाने की बात कह रहे हैं क्या वे उस देश को समझ पा रहे हैं। इतने दिनों से देश भ्रमण के बाद भी अगर राहुल ऐसी बातें करते हैं तो लगता है कि लोग उन्हें यूं ही बच्चा नहीं समझते। वे वास्तव में अभी बड़े हो ही नहीं पाए हैं। बिना सोचे समझे बोलना उनकी आदत सी हो गई है। अंगे्रजी में पले बढ़े राहुल ने क्या थिंक बिफोर यू स्पीक की युक्ति नहीं सुनी होगी। सुनी होगी पर शायद उस पर अमल नहीं करना चाहते।

दरअसल राहुल की दिक्कत यही है कि वे अपने आप को बहुत बड़ा और विद्धान समझते हैं, वहीं अन्य लोग उन्हें बच्चा समझते हैं। राहुल को यह तक नहीं पता कि किसी के यहां जाते हैं तो कैसे पेश आते हैं। मध्यप्रदेश आगमन से एक दिन पहले ही यहां की सरकार ने उन्हें प्रदेश का अतिथि घोषित कर दिया था, लेकिन राहुल को शायद अतिथि भाव पसंद नहीं आया। उन्हें तो मायावती जैसे लोग ही पसंद आते हैं, जो उनके आने पर कोई व्यवस्था नहीं करती बल्कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गाली ही देती हैं। राहुल की हर गलती को बच्चा समझकर माफ कर दिया जाता है, लेकिन कब तक? बच्चा जब कोई गलती करता है तो पहले उस पर हंसी आती है और जब बड़ा होकर भी वह ऐसा ही करता है तो सजा दी जाती है। राहुल को चाहिए कि वे ऐसी नौबत न आने दें और कोई भी बात बोलने से पहले सोचें।

शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

वाह इंडिया, शाबाश मीडिया




इसे इत्तेफाक ही कहें कि जिस मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने पूरे जीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया उनकी जयंती से दो दिन पूर्व ही एक ऐसे मामले का निर्णय आया जो लम्बे समय से लटका था। खास बात यह भी की मुद्दा तब ही गरमाया जब गांधी को सिधारे कुछ ही साल बीते थे।

सुखद बात यह रही कि आजादी के इतने वर्षों बाद पहली बार लगा कि भारत गांधी, कबीर और बुद्ध का देश है। अगर 30 सितंबर को कहीं पत्ता भी खड़कता तो यह एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनता और दुनिया भर में भारत की जो फजीहत होती वह अलग से। पूरे देश ने एक बार फिर साबित किया कि वह अब किसी नेता और धार्मिक रंग में रंगने वाले नहीं हैं, अब वह अपनी बुद्धि का भी इस्तेमाल करेंगे। ऐसा नहीं है कि अब देश में कट्टरवादियों की कमी हो गई है। वे अब भी हैं और रहेंगे भी, लेकिन उनकी संख्या अब बहुत कम रह गई है और आम जनता अब उनके बहकावे में नहीं आने वाली। कट्टरवादी हिन्दुओं में भी हैं और मुसलमानों में भी। सच कहा जाए तो गांधी की मौत के बाद इस बार पहली बार लगा कि हमने सच माएने में उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गांधी ने भी शायद ऐसे ही भारत का सपना देखा था, जो अब साकार होता दिख रहा है।


अपने जन्म से ही तमाम अवसरों पर कई तरह की आलोचनाओं का सामना कर रहे मीडिया ने भी इस बार एक नई इबारत लिख दी। अगर देश में कुछ नहीं हुआ तो इसके पीछे लोगों की समझदारी तो थी ही, लेकिन इसमें मीडिया की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। फैसला जब 24 सितम्बर को आना था तब भी मीडिया ने पूरा संयम बरता और जब पता लगा कि फैसला टल गया है तब भी पूरी ईमानदारी से काम जारी रखा। यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर देश के अरबों लोगों की ही नहीं, बल्कि विदेशियों की भी निगाहें थीं। वे भी जानना चाह रहे थे कि भारत में 1992 की अपेक्षा कुछ परिवर्तन और परिवक्वता आई है कि नहीं। ऐसे में कोई भी चैनल टीआरपी में आगे जा सकती थी, लेकिन किसी चैनल ने ऐसा नहीं किया। सबने यही कहा कि टीआरपी आती रहेगी, अगर देश का अमन-चैन गया तो वह वापस नहीं आएगा। चैनलों पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का अद्भुत सामन्जस्य भी देखने को मिला। लगभग हर छोटे-बड़े चैनल पर दो एंकर बिठाए गए और उनमें एक हिन्दू और एक मुसलमान रहा। फैसला आने के बाद किसी एंकर के चेहरे पर खुशी या दुख का भाव देखने को नहीं मिला। यह स्थिति फैसला आने के दिन ही नहीं उसके दो दिन बाद तक जारी रही। दो दिन बाद तक किसी ऐसे चेहरे को टीवी पर नहीं दिखाया गया जो अतिवादी हो या फिर कुछ उल्टा-सीधा कह जाए। अगर वह आया भी तो अमन और शांति की अपील करता हुआ ही दिखा।

अब बात पिं्रट मीडिया यानी अखबारों की। किसी भी अखबार ने अपने संपादकीय में या फिर अपने किसी लेख में ऐसा प्रदर्शित नहीं किया वह किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लगाव रखता है। 1992 में कई अखबारों में यह आरोप लगा था कि वे किसी पार्टी विशेष के अखबार हैं, इस बार ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। फैसले के अगले दिन मुख्य हेडिंग में भी किसी अखबार ने ऐसी हेडिंग नहीं दी जिससे लगे कि किसी की जीत और किसी की हार हुई है। हेडिंग में वही कहा गया जो एक लाइन मेें कुछ शब्दों के इस्तेमाल से लिखा जा सकता है।

सच कहूं तो मुझे खुद को बहुत दिन बाद गौरवान्वित महसूस करने का मौका मिला है। मैं आज शान से कह सकता हूं कि मैं भारत में रहता हूं और एक मीडियाकर्मी हूं। शुक्रिया इंडिया...

गुरुवार, सितंबर 30, 2010

अब फिर बदलेगा परिदृश्य

अयोध्या विवाद पर न्यायालय का फैसला आ गया है। पहली नजर में फैसला हिन्दुओं के पक्ष में जाता दिख रहा है, हालांकि यह भी सही है कि फैसला बहुत ज्यादा बड़ा है और उसे पढऩे, समझने और उसके मायने निकालने में समय लगेगा।

यह बात पहले से ही जाहिर थी कि मामला यही खत्म नहीं होगा और जो भी पक्ष यहां मुंह की खाएगा वह उच्च अदालत की शरण में जरूर जाएगा। होने भी यही जा रहा है, जल्द से जल्द वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। फैसला सही है या गलत यह दूसरा मुद्दा हो सकता है, लेकिन अहम सवाल जो अब उभर कर सामने आ रहा है वह यह है कि क्या अब हमारे समाज में बदला हुआ परिदृश्य नजर आएगा। 30 सितम्बर2010 से पहले और 30 सितम्बर 2010 के बाद के माहौल और स्थिति में कुछ परिवर्तन आएगा क्या ? या सब कुछ पहले की ही तरह चलता रहेगा। पहली नजर में तो यही लगता है कि स्थितियों में निश्चित रूप से परिवर्तन ही नहीं बल्कि भारी परिवर्तन आने जा रहा है। यह बात अलग है कि यह परिवर्तन कब से आएगा। कुछ दिन बाद, कुछ महीने बाद या फिर कुछ साल बाद।

जिस तरह से 6 दिसम्बर1992 इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई है, उससे बड़ी तारीख 30 सितम्बर2010 है। इस तारीख को60 साल बाद ऐसा फैसला सुनाया गया जिस पर करोड़ों नहीं बल्कि अरबों नजरें थीं। यह बात अलग है कि 6 दिसम्बर एक काला अध्याय था और 30 सितम्बर एक सफेद सच।6 दिसम्बर को मैं काला अध्याय इसलिए नहीं कह रहा कि उस दिन मस्जिद तोड़ी गई थी बल्कि इसलिए कह रहा हूं जो भी काम उस दिन किया गया वह गैर-कानूनी रूप से किया गया था और 30 सितम्बर को जो फैसला आया वह न्याय पालिका का फैसला है और यह बात सच है कि न्याय पालिका किसी धर्म, किसी मान्यता और किसी भावना को नहीं समझती उसे तो बस तर्क और सबूत चाहिए।

खैर, यह अलग मुद्दा हो सकता है। बात हो रही थी आने वाले समय के परिदृश्य में परिवर्तन की। जिस तरह 6 दिसम्बर की घटना के बाद देश की राजनीति और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन आया उसी तरह अब भी आएगा। अगर मेरे कहे को अन्यथा न लें तो मैं यह भी कहना चाहूंगा कि देश इस समय जिस सबसे बड़ी समस्याओं में से एक से लड़ रहा है वह और बढ़ेगी और उसे रोकना अब और भी मुश्किल हो जाएगा। बात हो रही है आतंक की। जिस तरह से 6 दिसम्बर1992 की घटना के बाद देश में आतंकी घटनाओं में एकदम से बाढ़ आ गई थी कहीं न कहीं वही स्थिति फिर आने वाली है। आज अगर हर आतंकी घटना के पीछे किसी मुस्लिम नवयुवक का नाम आता है तो मैं दृढ़ता के साथ कहना चाहता हूूं कि उसके पीछे कहीं न कहीं 6 दिसम्बर 1992 भी है।

दरअसल देश के दुश्मनों को इसी तरह के मौकों की तलाश रहती है। और हम उन्हें जाने अनजाने इस तरह के मौके देते भी रहते हैं। देश विरोधी ताकतों को युवाओं को बरगलाने के लिए इसी तरह की घटनाओं का इंतजार रहता है। अब देश के दुश्मन युवाओं खासकर मुस्लिम युवाओं को इस बात का ज्ञान देंगी कि देखो जिस देश को तुम अपना कहते हो वह तुम्हारा है ही नहीं। वहां की कार्यपालिका और विधायिका तो तुम्हें अपना पहले से ही नहीं मानती थी अब एक ऐसा निर्णय सुनाया गया है जिससे यह साबित होता है कि न्यायपालिका भी ऐसा ही सोचती है।

मुझे आंकड़ों की जानकारी तो नहीं है, लेकिन याददाश्त के आधार पर इतना जरूर कह सकता हूं कि 6 दिसम्बर 1992 के 18 साल पहले कितने आतंकी हमले देश के ऊपर हुए और उसमें कितने देशवासी शहीद हुए और 6 दिसम्बर 1992 के बाद कितने आतंकी हमले हुए और कितने निर्दोष मौत के मुंह में असमय ही समा गए।

यहां कहना चाहता हूं कि जब मैंने पिछले दिनों सावधान आगे खतरा है हेडिंग से लेख लिखा था तो कई साथियों की टिप्पणी आई कि आप एक पत्रकार हैं पत्रकार ही रहिए ज्योतिषी मत बनिए। उनकी राय बिल्कुल सही है। मैं ज्योतिषी बनना भी नहीं चाहता पर जो चीज लगती है उसे यहां लिख देता हूं। यह भी सच है कि मेरी वह बात सच भी साबित हुई और दिल्ली में जामा मस्जिद के पास विदेशियों पर फायरिंग हुई। इतने संवेदनशील समय में भी पुलिस और अन्य विभाग अभी तक यह पता नहीं लगा पाए है कि आखिर वे हमलावर कौन थे? वे अभी भी देश में ही होंगे और भारत की ही रोटी खाकर पल रहे होंगे, लेकिन किसी को पता नहीं कि वे कहां हैं।
अंत में इतना ही और कि मैं न तो फैसला को अच्छा कह रहा हूं और न ही गलत, क्योंकि अदालत ने जो फैसला किया उसके लिए 60 साल का समय लिया और न जाने कितने लोगों की बात सुनी होगी, तब जाकर यह फैसला आया है, ऐसे में एक शब्द में इसका अर्थ निकालना मेरे ख्याल से बेवकूफी ही होगी। मेरा काम आगाह करना था सो कर दिया बाकी आपकी मर्जी.....

शनिवार, सितंबर 25, 2010

ऐसे नहीं रुकेगा आतंक

क्या आपको लगता है कि आतंकवाद खत्म किया जा सकता है? क्या आपको लगता है कि भारत में कभी अमेरिका या ब्रिटेन जैसी स्थिति बन पाएगी, कि कोई आतंकी संगठन वहां वारदात करने से पहले कई बार सोचे? क्या हम और आने वाली पीढ़ी कभी डर के साए से बाहर निकल पाएंगे? सवाल और भी हैं। मुझे नहीं लगता कि कोई भी भारतीय इन सवालों का जवाब हां में दे पाएगा। क्या हम आगे भी इसी तरह जीते रहेंगे जैसे आज जी रहे हैं? या फिर इसमें कोई बदलाव की स्थिति निकट भविष्य में दीखती है। खैर, मुझे तो नहीं दिखती।

भारत में ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है जो मानते हैं कि भारत में आतंकवाद का कारण पाकिस्तान है और पाकिस्तान चूंकि कश्मीर को पाना चाहता है इसलिए कश्मीर सहित पूरे देश में आतंक का माहौल बनाना चाहता है, ताकि थक-हारकर भारत कश्मीर पर समझौता करने पर तैयार हो जाए। बहुत से लोग मानते हैं कि अगर कश्मीर की समस्या का हल हो जाए तो आतंकवाद पर काफी हद तक लगाम लगाई जा सकती है। पहली बात तो यह है कि कश्मीर की समस्या हल नहीं होगी और अगर मान लीजिए किसी तरह हो भी जाएगी तो क्या आतंक कम हो जाएगा? साहब आतंक तब भी कम नहीं होगा। हर व्यक्ति सजग और सतर्क हो जाए और उसे जरा भी लगे कि फलां व्यक्ति किसी गलत काम में या आतंकी गतिविधि में लिप्त है तो पुलिस को सूचित कर दे तो भी क्या आतंकी घटनाओं को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। तो जनाब मुझे ऐसा नहीं लगता।

एक लाइन में कहूं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि जब तक न्यायालय द्वारा आतंककारी घोषित किए जा चुके लोगों को निर्धारित सजा नहीं मिल जाती, तब तक कोई खास उम्मीद रखना निरा बेमानी ही होगी।

पिछले दिनों दिल्ली में जामा मस्जिद के पास हुआ हमला कुछ नए संकेत कर रहा है। अब आतंकी खुद को नष्ट करके हमें खत्म नहीं करना चाहते बल्कि वे चाहते हैं कि वे सुरक्षित रहें और हमें खत्म करें। कई विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि आतंकियों के निशाने पर अब भारतीय नहीं बल्कि भारत आने वाले विदेशी हैं ताकि दुनियाभर में भारत की भद्द पिटे।
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किसी आतंकी घटना को अंजाम देकर निकल भागने वालों को पकडऩा कितना मुश्किल काम होता है यह सब जानते हैं। न जाने कितनी मुसीबत और मेहनत के बाद पुलिस और अन्य फोर्सेस उन्हें पकड़ पाते हैं। उसके बाद अदालत में मुकदमा चलता है। चूंकि अदालत सबूतों और गवाहों के आधार पर फैसला करती है इसलिए यह साबित करना कि यह व्यक्ति आतंकी है बड़ा टेढ़ा काम होता है। कड़ी मशक्कत के बाद अदालत में यह साबित भी हो जाता है कि फलां आदमी आतंकी है तब कहीं जाकर न्यायालय फैसला सुनाती है। खास बात यह भी कि इसमें कुछ दिन या महीनों का समय नहीं बल्कि अक्सर कई साल लग जाते हैं। अदालत से अपराधी घोषित व्यक्ति को सजा मिल जाती है, लेकिन अदालत के निर्णय का क्रियान्वयन नहीं हो पाता। बड़ी दिक्कत यही है।

जब तक अदालत से दोषी करार दिए गए व्यक्ति को सजा नहीं मिलती यह सोचना कि देश से आतंक कम हो जाएगा बिल्कुल दिन में सपने देखने जैसा ही है। सबसे पहले आतंकियों को सजा दी जानी चाहिए, ताकि जो लोग भविष्य में ऐसा कुछ करने के बारे में विचार कर रहे हैं वे ऐसा करने से बचें। बाकी तो ख्याली पुलाव हैं आप भी पकाइए मैं भी पकाऊं...

मंगलवार, सितंबर 14, 2010

राष्ट्र अभी तक गूंगा है!



मोहनदास करमचंद गांधी। यानी महात्मा गांधी। उनको लेकर हर व्यक्ति की अपनी- अपनी राय हो सकती है, लेकिन लोकतांत्रिक लिहाज से बहुदा लोगों की राय को ही हम मानते हैं। अंगुली हर किसी पर उठती है। राम, कृष्ण, मोहम्मद साहब, गुरुनानक और जीसस पर भी उठी तो गांधी तो हाड़-मांस के एक इंसान भर थे। उनका कहना था कि कोई भी राष्ट्र्र, राष्ट्र भाषा के बगैर गूंगा है। आज हिंदी दिवस है और हिन्दी हमारी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं। यानी आजाद भारत की कोई भी भाषा ही नहीं है। बगैर भाषा के ही हम अब तक गुजर कर रहे हैं।

कभी-कभी तो बात कमाल की लगती है। जो देश तकनीकी लिहाज से समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में आ गया हो, जो देश राष्ट्रमंडल जैसे खेलों आयोजन कर रहा हो। जिस देश का लोहा अमेरिका के राष्ट्रपति तक मानते हों, जो देश अपनी सभ्यता और संस्कृति पर नाज करता हो, उसकी कोई भाषा ही नहीं है। और मजे की बात तो यह भी कि इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास भी नहीं किए जा रहे, सिर्फ खानापूर्ति और कुछ नहीं।
दरअसल, हिंदी की राह में रोड़े तो तभी डाल दिए गए थे, जब इसे राजभाषा का दर्ज दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिया गया। लेकिन इसके साथ ही राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) के अनुसार संघ की राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को हमारे ऊपर अनिश्चितकाल के लिए थोप दिया गया। शायद संसद को भी उस समय पता नहीं था कि यह क्या अधिनियम है और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। इसमें कहा गया था कि जब तक देश के सभी राज्यों की विधानसभाएं अंग्रेजी छोड़कर हिन्दी अपनाने का प्रस्ताव पारित नहीं कर देतीं तब तक अंग्रेजी का ही प्रयोग यूं ही होता रहेगा। एक बात और जो यहां महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी को 15 वर्ष बाद वही मान-सम्मान मिलना था, जो हमारे राष्ट्रगीत और राष्ट्रीय ध्वज को प्राप्त है, लेकिन यह विडम्बना ही कही जाएगी कि 25 जनवरी 1964 में 15 वर्ष की अवधि पूरी करने से पहले ही राजभाषा अधिनियम 1963 के जरिए हिन्दी के पर इस तरह काट दिए गए कि वह कहीं की न रहे। सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि यह क्यों हुआ? दरअसल यह सब दबाव और आपसी कुचक्रों के कारण ही हुआ। हालांकि यह सही है कि कई लोगों ने इसका विरोध किया पर वे सफल नहीं हो सके। इस प्रकार हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए था, उस कहानी का वहीं दुखद अंत हो गया।

गौर करें तो पाएंगे कि शायद अंग्रेज हमसे ज्याद दूरदृष्टा थे। यही कारण था कि वे जब समझ गए कि भारत पर राज करना अब आसान नहीं है, तो उन्होंने यहां से निकलने में ही भलाई समझी। लेकिन जाते जाते वे अपनी आदत और दूरदृष्टि से ऐसा कर गए कि भारत कभी चैन से न बैठ पाए। इसीलिए पाकिस्तान के रूप में भारत का एक महत्वपूर्ण अंग अलग हो गया। आज सब जानते हैं कि अपने उसी हिस्से के कारण भारत को नित नई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। पाकिस्तान का तो जैसे एक सूत्रीय लक्ष्य है कि भारत के बढ़ते कदमों को रोकना। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ही वह खुद कहां है और क्या करेगा। भारत की बढ़त को रोका जाए उनके हुकमरानों की यही चाहत रहती है। यह बंटवारा यूं ही नहीं हुआ। इसके पीछे सोची समझी रणनीति और चाल थी जो शायद आज हमारी समझ में आ रही है। यह भी दीगर है कि बहुतों को अभी भी यह समझ नहीं आ रही है। अगर ऐसा न होता तो हिन्दी की हालत आज यह नहीं होती जो है। कहा गया है कि अगर देश के सभी राज्यों की विधानसभा इस बात पर मोहर लगा दें कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए तो कौन है जो इसे रोक सकता है।
भारत अनेकताओं में एकता वाला देश है। यह बात कहने और सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है पर धरातल पर सोचें तो यही अनेकता कभी-कभी देश की दुश्मन भी बन जाती है। ब्रिटिश शासक शायद जानते थे कि देश के सभी राज्यों की विधानसभा हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बात पर सहमत नहीं होंगी, इसीलिए वे ऐसा अनुच्छेद बना गए और हम हैं कि उसी लकीर के फकीर बने हुए हैं। कभी हम मराठी बन जाते हैं तो कभी पंजाबी। कभी बंगाली बन जाते हैं तो कभी बिहारी। इसीलिए एकजुटता के साथ हिन्दी को मान-सम्मान दिलाने का प्रयास नहीं करते।

14 सितम्बर आने पर हमें हिन्दी की याद आती है। अखबारों में लेख छप जाते हैं और ब्लॉग पर पोस्ट लिख दी जाती है। हिन्दी पखवाड़ा आयाजित किया जाता है और फिर साल भर के लिए हिन्दी को भुला दिया जाता है। हम भी अगले वर्ष फिर हिन्दी की बात करेंगे...

रविवार, अगस्त 22, 2010

सावधान ! आगे खतरा है

सबसे पहले तो मैं ये बता दूं कि मैं जो कुछ भी यहां लिखने जा रहा हूं मैं चाहता हूं कि वह गलत निकले। क्योंकि अगर मेरी कही हुई बात गलत निकली तो ही ठीक है। लेकिन फिर भी आशंकाओं के बादल मंडरा रहे हैं।
15 अगस्त शांति से निपट गया है। जम्मू-कश्मीर की घटना छोड़ दें तो बाकी सभी जगह सब ठीक ठाक रहा। अगस्त का महीना समाप्त होते ही ऐसा कुछ होने वाला हैै कि कुछ भी हो सकता है। सबसे पहले इस बात की संभावना है कि अयोध्या विवाद का फैसला सितम्बर में आ जाए। फैसला आएगा तो यह तय कि कुछ न कुछ जरूर होगा। अगर फैसला मुसलमानों के पक्ष में जाएगा तो हिन्दूवादी संगठन चुप नहीं बैठेंगे और कुछ न कुछ जरूर करेंगे, इसके लिए अंदरखाते योजना बननी भी शुरू हो गई है। फैसला आते ही कुछ न कुछ होगा। अगर फैसला हिन्दुओं के पक्ष में आया तो मुसलमान भी चुप बैठेंगे यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी। हालांकि यह सही है कि मुस्लिम संगठनों ने अभी कुछ आक्रामक तेवर नहीं दिखाए हैं लेकिन फैसला आने के बाद क्या हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। चुंकि यह धार्मिक मुद्दा है लोगों की भावनाओं का मुद्दा है, इसलिए यह कुछ सीमित स्थानों पर ही सीमित रहेगा यह भी नहीं कहा जा सकता। अगर जरा सी भी आग लगी तो पूरे देश में फैलेगी और न जाने कितनों को जला कर राख कर देगी। शायद इसीलिए यूपी की मुख्यमंत्री ने दूरदृष्टि का परिचय देते हुए पुलिस अधिकारियों की छुट्टी रद्द कर दी है। ताकि अगर हालात खराब हों तो स्थिति पर तत्काल नियंत्रण पाया जा सके।
मैं नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो, लेकिन बहुत हद तक आशंका है कि कुछ न कुछ होगा जरूर।
दूसरी स्थित बनेगी अक्टूबर में। इस माह में कॉमनवेल्थ गेम्स यानी राष्ट्रमंडल खेल होंगे। हमारे देश के नेताओं को जो कुछ भी करना है वे कर चुके हैं और अंदरखाते कर भी रहे होंगे जिनका खुलासा शायद बाद में हो। लेकिन बाहर के लोगों का क्या कहिएगा। जी, हां मैं बात कर रहा हूं भाड़े के आतंककारियों की। क्या आपको लगता है कि पाकिस्तान और तालिबान यह चाहेंगे कि भारत में राष्ट्रमंडल खेल शांति से हो पाएं? मुझे तो नहीं लगता। वैसे भी भारत में पिछले बहुत दिन से कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ है। पाकिस्तान के हालात खराब चल रहे हैं। बाढ़ से पूरा देश त्रस्त हैं। लोग भूखों मर रहे हैं। सेना राष्ट्रपति जरदारी हो हटाने के लिए पूरे प्रयास कर रही है। कुछ दिनों में ही वहां कुछ बड़ा परिवर्तन दिखे तो अचरज नहीं होना चाहिए। बहुत संभव है कि भारत पर कुछ दिन से इसलिए हमला न हुआ हो कि राष्ट्रमंडल खेल होने हैं। ऐसे मौके पर कुछ किया जाए तो कहने ही क्या। तय है कि निश्चित रूप से बड़ी संख्या में विदेशी भी मारे जाएंगे और भारत की भद्द पिटेगी वह अलग से। वैसे भी आतंककारी अब चाहते हैं कि भारतीयों के साथ साथ विदेशी भी मारे जाएं, इसीलिए होटल ताज पर हमला किया गया था। दिल्ली सुरक्षा इंतजामात को लेकर वैसे भी संतुष्ट नहीं है। भले कोई बड़ी वारदात न हो लेकिन आतंककारी माहौल बिगाडऩे का प्रयास नहीं करेंगे यह मानने वाली बात नहीं है।
तीसरी बात, पेंटागन से खबर आई है कि चीन ने भारत की सीमा पर परमाणु मिसाइल तैनात कर दी है। हालांकि चीन ने इसका खंडन किया और बकवास करार दिया है लेकिन फिर भी चौकन्ना तो रहना ही होगा। यह सही है कि चीन ऐसी कोई हरकत नहीं करेगा, जिससे उसे कोई परेशानी हो, लेकिन वह भारत पर अतिरिक्त दबाव बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा। वह सीमा तक अपने सड़क मार्ग को दुरुस्त कर रहा है। यह सही है कि हाल-फिलहाल इस मामले में कोई संकट नहीं आने वाला लेकिन भविष्य किसने देखा है? चीन जिस स्तर की तैयारियां कर रहा है वह निश्चित रूप से चौंकाने वाली और सतर्क करने वाली है। अगर चीन के इरादे नेक हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन अगर जरा भी शंका हुई तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। पूरा देश राष्ट्रमंडल खेल की तैयारियों में लगा रहे और चीन सिर पर आकर बैठ जाए तो क्या कहिएगा।
खतरे और भी हैं, जो बिना बताए आ सकते हैं। सतर्क सबसे रहने की जरूरत है। मैं एक बार फिर कह दूं कि मैं नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो। मंदिर-मस्जिद मामले का कोई ऐसा हल निकले जो दोनों पक्ष मान लें और देश में सौहार्द का माहौल बना रहे। राष्ट्रमंडल खेलों में अभी तक जो हुआ सो हुआ अब सब सही हो जाए। आतंककारी अपने झंझावातों में फंसे रहे और इधर न आ पाएं। आएं भी तो उनका कोई मंसूबा पूरा न होने दिया जाए, उन्हें मुंह तोड़ जवाब दिया जाए। चीन अपने देश में जो कुछ भी कर रहा है वह अपने विकास के लिए कर रहा हो, उसका इरादा भारत को नुकसान पहुंचाने का न हो। चाहता तो यही हूं, लेकिन कौन जाने कब क्या हो जाए।
जाने क्या होगा रामा रे...

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

हंगाम है क्यों बरपा...



वीरेंद्र सहवाग। एक विस्फोटक बल्लेबाज। दुनिय भर के गेंदबाज उनके नाम से कांप जाते हैं। बहुत से लोग उनमें सचिन का अक्स देखते हैं। अब तक भारत के लिए 225 एक दिनी मैच खेल चुके हैं। सात हजार से अधिक रन बना चुके हैं। उन्होंने 12 शतक और 36 अद्र्धशतक लगाए हैं। टेस्ट क्रिकेट में तो उनका रिकॉड और भी अच्छा है। माना जाता है कि जब सहवाग बल्लेबाजी करते हैं तो भारतीय टीम के लिए खेलते हैं। उन्हें शतक और अद्र्धशतक की चिंता नहीं रहती। जब वह अपनी रौ में हों तो तभी आउट होते हैं जब वे खुद कोई गलती करें। शतक और अद्र्धशतक क्या दोहरे शतक के नजदीक होने पर भी वे दबाव में नहीं आते और तब भी छक्का लगा सकते हैं। ऐसा यूं ही नहीं कहा जाता। कई बार वे ऐसा करके दिखा भी चुके हैं।
लेकिन, यह क्या। सारी बातें धरी की धरी रह गईं। सहवाग शतक नहीं बना पाए तो यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया। क्यों भई? क्या सहवाग जैसा बल्लेबाज शतक के लिए इतना परेशान हो सकता है? मेरा व्यक्तिगत मानना है कि सहवाग जब चाहते हैं शतक लगा सकते हैं। दिक्कत ये है कि वे शतक की परवाह नहीं करते। एक दिनी और ट्वेंटी-20 क्रिकेट में बहुत कम देखने को मिलता है कि उन्हेंने जितने रन बनाए हो उससे ज्यादा गेंद खेली हों। लेकिन अब मेरी राय कुछ हद तक बदलने सी लगी है।
सचिन तेंदुलकर निर्विवाद रूप से देश के ही नहीं वरन् दुनिया के महान बल्लेबाज हैं। लेकिन उन पर अक्सर यह आरोप लगता रहता है कि वह टीम के लिए नहीं, रिकॉर्ड के लिए खेलते हैं। यह बात अलग है कि सचिन अब रिकॉर्ड के मोहताज नहीं बल्कि रिकॉर्ड उनके मोहताज हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि देसी या विदेशी किसी ने भी कभी भी सहवाग पर मजाक में ही सही यह आरोप लगाया हो।
मजे की बात तो यह है कि मैच के बाद सहवाग ने कहा कि श्रीलंकाई गेंदबाज ने हार से डर से उन्हें नो बॉल डाल दी। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इतने बड़े और विस्फोटक बल्लेबाज से इस तरह के बयान की उम्मीद कैसे की जा सकती है। क्या रंदीव के नो बाल डालने से श्रीलंका की हार टल गई। क्रिकेट को अनिश्चितताओं का खेल कहा जाता है कि लेकिन उस समय मैच की जो स्थिति थी, श्रीलंका के जीतने की संभावना कहीं से भी नहीं थी। फिर हार के डर से रंदीव नो बॉल कैसे फेंक सकते हैं।
सहवाग अभी लम्बे समय तक क्रिकेट खेलेंगे और शतक ही नहीं दोहरा शतक तक बनाने के अनेक मौके उनके पास आएंगे। उन्हें उस ओर ध्यान देना चाहिए। और अच्छा प्रदर्शन कर खुद के रिकॉर्ड की फिक्र किए बगैर भारत को जिताने पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि देश के लिए खेलने का मौका हर किसी को नहीं मिलता। उन्हें मौका मिला है तो अपने रिकॉड के लिए इतनी तुच्छ बात नहीं करनी चाहिए।
अब एक और महत्वपूर्ण बात, जो इस पूरे लेख को अपूर्ण करती है। मेरे यह सब लिखने का मतलब यह कतई नहीं निकला जाना चाहिए कि श्रीलंका ने जो किया वह ठीक किया। क्रिकेट को शायद इसलिए इतनी प्रसिद्धि मिली कि उसे भद्र जनों का खेल कहा जाता है। और श्रीलंका ने जो हरकत की वह निश्चित रूप से भद्र जनों वाली नहीं है। खेल को खेल की भावना से खेला जाना चाहिए। और यह बात श्रीलंका को ही नहीं भारत को भी ध्यान में रखना चाहिए। मेरा कहना और मानना सिर्फ इतना है कि पूरे मामले को इतना तूल नहीं दिया जाना चाहिए।
पूरे मामले में रंदीव को सजा मिल चुकी है उन्हें एक मैच के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। दिलशान का भी इसमें हाथ पाया गया इसलिए उन पर भी बैन लगाया गया है। संगकारा को भी चेतावनी दी गई है। यह सही है कि इन सब के बाद भी सहवाग की सेंचुरी वापस नहीं आ सकती पर सहवाग अगर अच्छा खेलेंगे तो फिर से शतक लगा सकते हैं।
अंत में बस इतना ही कहूंगा खेल का खेल ही रहने दो कोई नाम न दो....

शनिवार, अगस्त 07, 2010

सीरीज सार : भारत बनाम श्रीलंका




भारत ने श्रीलंका के साथ खेली जा रही तीन टेस्ट मैचों की सीरीज ड्रा कराने में कामयाबी हासिल कर ली है। बड़ी बात यह कि इस जीत के साथ ही भारत की नम्बर एक की पदवी भी बरकरार रही। अब सीरीज समाप्त हो गई है लिहाजा जरूरी है कि इस दौरान क्या क्या हुआ इस पर विचार किया जाए।
पहली बात तो यह हुई कि धौनी की किस्मत एक बार फिर उनके साथ रही। धौनी ने अब तक अपनी कप्तानी में कोई भी सीरीज नहीं गंवाई है। इस बार भी यह रिकॉर्ड कायम रहा। मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि धौनी किस्मत के धनी हैं, इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ। दूसरी बड़ी बात टेस्ट क्रिकेट से मुरलीधरन जैसे दिग्गज का जाना रहा। उन्होंने दूसरे टेस्ट के बाद संन्यास ले लिया। इतने बड़े और खुशमिजाज स्पिनर की ऐसी की खूबसूरत विदाई होनी थी जैसी की हुई है। श्रीलंकाई टीम पर उनका जाना कितना असर करेगा यह बाद में पता चलेगा। फिलहाल क्रिकेट के चाहने वालों को उनकी कमी खलती रहेगी।
अब बात भारतीय बल्लेबाजों के प्रदर्शन की। इसमें मैं सचिन का प्रदर्शन शामिल नहीं करूंगा, क्योंकि वह निर्विवाद रूप से महान बल्लेबाज हैं और उन पर मैं कोई टिप्पणी करके खतरा मोल लेना नहीं चाहता। बात सुरेश रैना से करते हैं। उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया। उन्होंने पहले की टेस्ट में शतक लगाया और इसके साथ ही वे मोहम्मद अजहरुद्दीन, सौरभ गांगुली और वीरेंद्र सहवाग जैसे दिग्गजों के क्लब में शामिल हो गए। वे बाएं हाथ के बल्लेबाज हैं। उनमें कहीं न कहीं सौरभ गांगुली की झलक मिलती है। सौरभ जैसा जुझारूपन उनमें है कि नहीं यह वक्त और जरूरत के मुताबिक ही पता चलेगा, लेकिन फिलवक्त उन्होंने उज्ज्वल भविष्य की आशा तो जगा ही दी है। अब बात वीवीएस लक्ष्मण की। एकदिनी क्रिकेट में भले वे असफल करार दे दिए गए हों पर टेस्ट क्रिकट में उन्होंने एक बार फिर साबित किया कि उनका कोई जवाब नहीं। अक्सर लोग सचिन और उनके प्रदर्शन की बात करते हैं पर लक्ष्मण को बिसरा दिया जाता है। लक्ष्मण की उम्र 37 के आसपास है और उनकी कलाइयों का इस्तेमाल अब भी देखते ही बनता है। तीसरे टेस्ट के चौथे दिन भारत को जीत के लिए 257 रन का लक्ष्य मिला। भारत ने दिन का खेल खत्म होने तक 53 रन पर तीन अहम विकेट गवां दिए तो लगा कि भारत यह मैच बचा पाएगा कि नहीं, लेकिन ऐसे समय में अक्सर संकटमोचन बन कर आने वाले लक्ष्मण ने फिर अपनी अहम भूमिका निभाई और भारत को जीत के दरवाजे तक पहुंचाया। लक्ष्मण के साथ दिक्कत यह है कि वे अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी लाइम लाइट में नहीं आ पाते। शायद उन्हें इसका हुनर भी नहीं मालूम। वह अब तक सचिन, सौरभ और यहां तक की धौनी आदि की तरह युवाओं के लिए आइडियल नहीं बन पाए। जबकि यह भी सही है कि लक्ष्मण की बैटिंग स्टाइल से युवाओं को बहुत कुछ सीखने को मिल सकता है। टीम के भीतर जितना मान सम्मान लक्ष्मण को मिलता है उतना बाहर नहीं मिला पाता। खैर, यह युवाओं का मामला है वे किसे माने और किसे नहीं।
अब बात राहुल द्रविण की। दीवार के उपनाम से पहचाने जाने वाले इस बल्लेबाज ने इस बार निराश किया। मुझे पता है कुछ ही दिन में उनको लेकर तरह-तरह की अटकलें लगनी शुरू हो जाएंगी। कहा जाएगा कि दीवार ढह गई है, दीवार टूटने लगी है। पूरी सीरीज की बात करें तो राहुल तीन टेस्ट मैचों की छह पारियों में मिलाकर भी शतक नहीं लगा पाए। वे 19 की मामूली सी औसत से कुल 95 रन ही बना सके। इससे पहले दक्षिण अफ्रीका के दौरे में भी राहुल कुछ खास नहीं कर पाए। पहले राहुल को आउट करने के लिए गेंदबाजों में शर्त लगती थी लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। अब कुछ रन बनाने के बाद उन्हें भी साधारण तरीके से आउट कर दिया जाता है। ऐसे समय में जबकि बहुत से युवा अच्छा प्रदर्शन कर टीम में शामिल होने की दावेदारी पेश कर रहे हैं बहुत संभव है कि टेस्ट क्रिकेट से उनकी जल्द विदाई कर दी जाए। हालांकि मैं खुद नहीं चाहता कि ऐसा हो। भारत को अभी उनकी जरूरत है। राहुल की सौरभ गांगुली की तरह भले जुझारूपन की मिसाल नहीं दी जाती हो पर मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि वे भी बहुत जुझारू हैं और आने वाले दिनों में कोई शानदार पारी खेलकर सबका मुंह बंद कर दें तो कोई बड़ी बात नहीं। याद करिए वह दौर जब भारत के पास कोई ऐसा खिलाड़ी नहीं था जो अच्छी कीपिंग के साथ-साथ टीम के लिए रन भी जोड़ सके। ऐसे में राहुल ने यह भूमिका बखूबी निभाई। राहुल टीम में बाहर जाते हैं या वे अच्छा प्रदर्शन कर फिर टीम का अहम हिस्सा बन जाएंगे यह समय पर ही पता चलेगा।
भारत की बात यहीं तक अब बात श्रीलंका की। श्रीलंका में सिर्फ एक ही खिलाड़ी बात करूंगा और वह है सूरज रांदिव। वह ऑफ स्पिन गेंदबाजी करते हैं और युवा हैं। दिग्गज मुरली के बाद श्रीलंका को एक ऐसे स्पिन की जरूरत है, जिससे विरोधी टीम के बल्लेबाज खौफ खाएं। हालांकि अजंता मेंडिस अच्छी गेंदबाजी कर रहे हैं पर बल्लेबाजों में उनका खौफ नहीं दिखता। रांदिव ने अभी दो ही टेस्ट खेले हैं और दूसरे टेस्ट में ही उन्होंने पांच विकेट झटक लिए। खास बात यह कि इसमें सचिन तेंदुलकर का विकेट भी शामिल है। श्रीलंका के लिए जहां यह शुभ संकेत हो सकता है वहीं विरोधी टीमों के लिए खतरे की घंटी। संभव है कि अपने नाम की तरह सूरज सबसे बड़ा सितारा बन जाएं।
भारत को अब श्रीलंका में ही 10 से त्रिकोणीय सीरीज खेलनी है। इसमें तीसरी टीम न्यूजीलैंड की होगी। बहुत से खिलाड़ी भारत वापस लौट आएंगे वहीं कुछ को टीम का हिस्सा बनने श्रीलंका जाना है। तो अब टेस्ट के पांच के दिन के खेल से मुक्ति और अब लीजिए एकदिनी क्रिकेट का मजा।

ये पोस्ट यहां भी प्रकाशित हुई।

सीरीज सार : भारत बनाम श्रीलंका

भारत -श्रीलंका सीरिज़, क्या खोया -क्या पाया -पंकज मिश्र

रविवार, जुलाई 25, 2010

तो क्या अब चम्मच भी न दी जाए!

कैसी विडम्बना है। जो हमें फूटी आंख नहीं सुहाने चाहिए। जिन्हें देखते ही गोली मार देनी चाहिए। उनकी हम इतनी सुरक्षा करते फिरते हैं कि कहीं उनके बाल की खाल भी भी बांकी न हो जाए। अगर उन पर कोई हमला करता है तो हम उन्हें बचाते हैं और चोट लग जाने पर मरहम पट्टी करते हैं। दवाई का खर्चा भी हमारा ही।
जी, बात कर रहा हूं। अबू सलेम साहब की। अरे साहब न कहूं तो क्या कहूं। साहब जैसा ही तो ठाट है उनका। आम आदमी मरे चाहे जिए, किसी को कोई परवाह नहीं। पर अबू साहब को कुछ हो जाए तो सरकार के कान के बाल खड़े हो जाते हैं। अरे ये कैसे हो गया? उन जनाब पर हमला हो गया, घायल हो गए। हमलावर कौन? उनके ही पुराने साथी मुस्तफा दोसा साहब। दोनों जनों ने मिलकर 12 मार्च 1993 में मुंबई में सिलसिलेवार बम विस्फोट किए। तब दोनों साथी थे। यानी हमजोली। अब दुश्मन हो गए, एक दूसरे की खून के प्यासे। कहते भी हैं दोस्त अगर दुश्मन हो जाए तो उससे बड़ा दुश्मन और कोई नहीं होता। तब दोनों भाई दाउद इब्राहिम जी के लिए काम करते थे। अबू साहब ने जब नई राह अपनाई तो दोसा जी को यह बात बर्दाश्त नहीं हुआ। भाई से दगाबाजी? तब से ही दोसा जी अबू साहब से नाराज थे। मन में था कि इसको तो मैं देख लूंगा। दोसा जी कई दिनों से उन चम्मच को चमका या यूं कहें घिर रहे थे जो उन्हें खाना खाने के लिए दी जाती है। जब चमक गई तो बस फिर क्या था। कर दिया अबू साहब पर हमला। पता चला है कि उन्हें गले में कुछ चोटें आई हैं। तुरंत उनकी दवाई कराई गई और अब वह विश्राम कर रहे हैं। हालांकि अबू साहब भी कम नहीं हैं। वो तो दोसा जी की सेहत अबू जी से अच्छी थी नहीं तो अबू जी भी कुछ कर देते तो कोई बड़ी बात नहीं।
एक सवाल यहां उठ रहा है कि क्या जेल में कैदियों को जो चम्मच दी जाती है वह भी बंद कर देनी चाहिए। हालांकि अभी तक इस तरह की कोई खबर नहीं आई है कि सरकार इस पर विचार कर रही है पर अगर एक दो इस तरह की वारदात हो गईं तो सरकार को सोचना होगा। मैं सरकार से थोड़ा पहले सोच ले रहा हूं। एक बात और अगर चम्मच बंद कर दी तो ये माननीय कैदी साहब लोग खाना कैसे खाएंगे। हाथ से? ऐसे तो उन्होंने कभी नहीं खाया। ठहरिए खाया तो है। जब अबू साहब आजमगढ़ में रहते थे तो कैसे खाते होंगे। तब तो गरीबी थी। तो शायद हाथों से ही खाते होंगे। और खाने से हाथ गंदे हो जाते थे तो उन्हें धोने के लिए साबुन भी नहीं मिलता था। मिट्टी से हाथ धोने पड़ते थे। लेकिन वो तो गुजरे जमाने की बात हो गई। अब तो चम्मच-कांटे और न जाने क्या क्या। अब कैसे हाथ से खाएंगे। हाथ मैले नहीं हो जाएंगे? खैर यह दूर की कौड़ी है। सरकार को इस पर विचार करना चाहिए।
हां, सरकार जिस बात को लेेकर परेशान है वह परम आदरणीय मोहम्मद आमिर अजमल कसाब साहब की सुरक्षा है। इतनी महान शख्सियत की सुरक्षा में कहीं सेंध न लग जाए इसको लेकर सरकार के कान खड़े हो गए हैं। अगर कसाब को कुछ हो गया तो क्या होगा। पाकिस्तान को क्या जवाब देगी हमारी सरकार? क्या किया हमारे कसाब के साथ? हमारा एक आदमी भी ठीक से नहीं रख पाए और बातें करते हो? चलो जाओ हम तुमसे कोई बात नहीं करेंगे। आतंकवाद पर भी नहीं। हमारा लाल कसाब कहां है?
आम आदमी जो देश के लिए मरा जा रहा है, देश की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश की सेवा कर रहा है, देश की अर्थव्यवस्था में कोई न कोई सहयोग दे रहा है। तिरंगे को अपनी आन, बान और सम्मान समझता है। उसकी हमारी सरकार को कोई फिक्र नहीं। यहां एक सवाल और भी उठता है। यह आम आदमी है कौन? सवाल किया तो जवाब आया जो आम के मौसम में भी जो आम न खा पाए वही आम आदमी है। तो साहब यह तो आम का मौसम चल रहा है। मैं देखता हूं कि बहुत बड़ी संख्या में लोग आम नहीं खा पा रहे हैं। दुकानों और ठेलियों पर रखे आम सड़ रहे हैं पर कोई खरीदार नहीं मिल रहा। क्यों? जवाब वही महंगाई डायन खाए जात है।
खैर, महंगाई की बात फिर कभी, फिलहाल महान लोगों की हो रही थी। बात यहीं खत्म करना चाहता हूं। सवाल कई हैं और जवाब सरकार को तलाशने हैं। जो सरकार तय करेगी हम सभी को मानना है, क्योंकि सरकार तो हम सबने मिलकर बनाई है ना। तो ठीक है साहब ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अबू साहब, दोसा साहब और अजमल साहब की सुरक्षा में कोई सेंध न लगे नहीं तो गजब ही हो जाएगा। जरा संभलकर..................

मंगलवार, जुलाई 20, 2010

मीडिया को गरियाने का मौका कोई नहीं छोड़ता

हालिया रिलीज फिल्म 'लम्हा' में अनुपम खेर का एक डायलॉग है 'अगर एश्वर्या चांद नहीं देख पातीं तो मीडिया में वह भी खबर बन जाती है पर कश्मीर में न जाने कितनी महिलाएं है, जिन्होंने अपने पति को न जाने कितने दिनों से नहीं देखा है।' डायलॉग को लेकर फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया और अनुपम खेर बहुत डरे हुए थे कि कहीं अमिताभ बच्चन नाराज न हो जाएं। लेकिन उनकी खुशी का तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब अमिताभ ने इस पर ऐतराज नहीं जताया बल्कि कह दिया कि यह सच्चाई है और एश्वर्या को इसमें एक सेलिब्रिटी के रूप में दिखाया गया है। फिल्म के निर्देशक राहुल कहते हैं कि इसमें एश्वर्या का मजाक नहीं उड़ाया गया है बल्कि आजकल की व्यवस्था पर एक प्रहार किया गया है।
जब इस डायलॉग पर अमिताभ की राय मांगी गई तो उन्होंने इसे स्वीकार करने में तनिक भी देरी नहीं की। उन्होंने कहा कि जो बात कही गई है वह सही है। एक बात जो अमिताभ ने नहीं कही, वह यह कि चुंकि इसमें मीडिया को निशाना बनाया गया है इसलिए कोई प्रश्न ही नहीं था कि अमिताभ इस डायलॉग को फिल्म से हटाने या फिर किसी और प्रकार से रखने के लिए कहते। वो तो चाहते ही हैं कि मीडिया को गाली दी जाए।
कुछ दिन पहले ही अंग्रेजी के एक टीवी चैनल ने एक संगठन का स्ट्रिंग ऑपरेशन किया और उसके मंसूबों का खुलासा कर दिया। संगठन के कार्यकर्ता इतने नाराज हुए कि उन्होंने संबंधित टीवी चैनल के दफ्तर पर हमला बोल दिया और जमकर तोडफ़ोड़ की। बात जब संगठन के बड़े नेताओं तक पहुंची तो उन्होंने कह दिया कार्यकर्ताओं ने जो कुछ भी किया है वह सही है। अगर मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी है तो हमें भी विरोध की आजादी है। विभिन्न टीवी चैनलों पर तोडफ़ोड़ के जो दृश्य दिखाए जा रहे थे उसमें साफ दीख रहा था कि वहां सुरक्षा के लिए मौजूद पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे खुद चाह रहे हो कि ऐसा ही होता रहे। यानी मीडिया वाले पिटते रहें।
इन सब बातों पर गौर करें तो एक बात साफ है कि कोई व्यक्ति हो या संगठन, मीडिया को गरियाने का मौका कोई भी हाथ से नहीं जाने देता। अमिताभ के मन में तो मीडिया के प्रति इतना क्रोध भरा है कि न चाहते हुए भी वह समय समय पर दिखाई पड़ ही जाता है। बोफोर्स कांड के समय में मीडिया की रिपोर्ट से अमिताभ इतना खफा हुए थे कि काफी समय तक उन्होंने कोई साक्षात्कार ही नहीं दिया। अगर मीडिया के बिना उनका गुजारा हो जाए तो शायद वह आज भी उससे बात न करें। अभी भी अमिताभ जब भी मीडिया से मिलते हैं तो सिर्फ अपने मतलब के लिए। जब उनकी कोई फिल्म रिलीज हो रही होती है तो वह टीवी चैनल के दफ्तर में आकर बैठ जाते जाते हैं, लेकिन जब उनके बेटे की शादी होती है तो देश की पूरी मीडिया पर लाठी तक चलवाने में अमिताभ को हिचक नहीं होती। फिल्म 'पा' में अभिषेक बच्चन के चरित्र में अमिताभ खुद ही नजर आते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अमिताभ में जैसे कह कह फिल्म बनवाई हो।
एक ऐसा संगठन जो अपने आप को अनुशासित और भारतीय होने का दंभ भरता है उसके प्रवक्ता कहते हैं कि मीडिया को अगर किसी बात की स्वतंत्रता है तो उन्हें भी है। उनकी स्वतंत्रता का मतलब मीडिया पर हमला करने से होता है। उनकी स्वतंत्रता इसमें निहित है कि वह किसी सम्मानित और बड़े मीडिया हाउस के दफ्तर में हमला कर तोडफ़ोड़ करें। आश्चर्य तो तब होता है जब उनके वरिष्ठ भी इस पर आपत्ति नहीं करते और इसे जायज ठहराते हैं। जहां तक पुलिस की भूमिका की बात की जाए तो पुलिस और मीडिया में हमेशा ठनी ही रहती है। पुलिस का अदना सा सिपाही हो या फिर वरिष्ठ अधिकारी, हमेशा इसी फिराक में रहता है कि किस तरह मौका निकाल कर मीडियाकर्मियों को पीटा जाए या कुछ ऐसा किया जाए, जिसे वह हमेशा याद रखें। कस्बे, शहर और जिला स्तर के पत्रकारों को अक्सर इस तरह की दिक्कतों का सामना करना ही पड़ता है। अब राष्ट्रीय स्तर पर भी यह देखने को मिल रहा है। मीडिया पर हमले के बाद सिर्फ टीवी में दिखने और अखबार में छपने के लिए सभी नेताओं ने कह दिया कि यह गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए पर उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं उसे भी लगा कि चलो ठीक ही हुआ। ये मीडिया वाले इसी लायक हैं। अब खुलेआम तो कह नहीं सकते कि ठीक हुआ तो चुप ही रहा जाए ज्यादा बेहतर है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। कोई कलाकार हो या खिलाड़ी, जब उसे जरूरत होती है तो अपने हिसाब से मीडिया का इस्तेमाल करता है और जब सब ओर वह चर्चित हो जाता है तो उसी मीडिया को दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है। जब कभी भी मीडिया पर हमला होता है तो मीडिया अकेला रह जाता है। अब सवाल यह भी उठ सकता है कि मीडिया के खिलाफ लोगों में इतना आक्रोश आखिर क्यों है? क्या वाकई मीडिया रास्ता भटक गया है या फिर भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है और साजिशें इतनी ज्यादा है कि जब मीडिया इनका खुलासा करती है तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाते? और कहीं न कहीं मीडिया को पीटने का मौका देखते हैं। एक बात तो साफ है कि भ्रष्टाचार तो बढ़ा है। देश में कितने ही नामी अखबार हैं और सभी में लगभग रोज किसी न किसी भ्रष्टाचार की पोल खोली जाती है, पर फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रोज उसी गति से भ्रष्टाचार होता रहता है। यह तो बात अखबार की है। टीवी में भी किसी ने किसी स्केंडल का पर्दाफाश होता ही है। फिर भी भ्रष्टाचार रुक नहीं रहा। तो क्या मीडिया का जिसके लिए जन्म हुआ, वह बिसरा देना चाहिए और इन्हीं के साथ मिलकर इन्हीं जैसा हो जाना चाहिए। या फिर यूं ही पिटते हुए अपने काम को अंजाम देते रहना चाहिए यह सोचते हुए कि अच्छा काम करोगे तो विरोध तो होगा ही।

यह आलेख कई बेवसाइटों पर भी प्रकाशित हुआ है। यहां उनका यूआरएल दे रहा हूं। चाहें तो वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं। अपनी टिप्पणी देकर बात को आगे बढ़ाएंगे तो अच्छा रहेगा।


http://vichar.bhadas4media.com/home-page/37-my-view/346-2010-07-21-06-30-47.html

http://www.aajkikhabar.com/blog/1113472807.html

http://mediamanch.com/Mediamanch/NewSite/Catevar.php?Catevar=8&Nid=2182

http://jansattaexpress.net/news.php?news=2152

http://www.voiceofjournalist.com/topstory.php?headline=headline&val_id=96&type=1

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

एसएमएसमीनिया


टीचर : एक साथ जवाब दो।
यूपी की मुख्यमंत्री कौन हैं?
कुतुबमीनार कहां है?
शताब्दी की रफ्तार?
मुर्गी क्या देती है ?


एक महिला फायर स्टेशन फोन करती है। फोन संता उठाता है।
महिला : मेरे घर में आग लग गई है।
संता : पानी डालो
महिला : डाला, पर अभी नहीं बुझी।
संता : तो मैं आकर क्या करुंगा, पानी ही तो डालूंगा।

मेरी जुदाई का गम न करना,
दूर रहूं तब भी प्यार कम न करना।
अगर मिले जिन्दगी के किसी मोड़ पर,
तो प्लीज बंदरों की तरह उछलकूद मत करना।


एक लड़की और एक लड़का एक दूसरे को किस कर रहे थे। अचानक लड़की के पिता आ जाते हैं।
डैडी : क्या कर रहे हो?
लड़की : इस साले ने मेरी लिपगार्ड ले ली थी, वही वापस ले रही हूं।

बीवी : मैं जब गाना गाती हूं तो तुम बाहर क्यों चले जाते हो?
पति : ताकि कोई ये न समझे की मैं तुम्हारा गला दबा रहा हूं।



जी, ये कुछ एसएमएस हैं। चाहें तो चुटकुले भी कह सकते हैं। ये बानगी भर है। ऐसे ना जाने कितने चुटकुलेनुमा एसएमएस मेरे पास आते हैं। इनके आने का भी कोई समय निर्धारित नहीं है। 24 घंटे में कभी भी, मेहमान की तरह।
कहां से आ रहे हैं ये एसएमएस? और कौन कर रहा है ये एसएमएस? तो साहब जवाब है कि कर तो मेरे मित्र और जानने वाले ही रहे हैं। क्या मेरे मित्र और जानने वाले इतने रहीस हैं कि एक दिन में 50-50 मैसेज कर दे। और एक ही दिन क्यों महीनों से, बल्कि कुछ तो सालों से। नहीं साहब न तो मेरे मित्र इतने रहीस हैं और न ही इतने बेवकूफ। वे जिस कंपनी का मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं उसने एक स्कीम निकाली है। बहुत ही कम पैसे का पैक ले लो और महीने भर तक असीमित एसएमएस करो। एक बार पैसा दे ही दिया है तो क्यों नहीं करें एसएमएस। लेकिन उसमें करें क्या? सबसे ऊपर जो कुछ एसएमएस लिखे हैं वही आ रहे हैं।
क्या है इन एसएमएस में ? ये बताने की जरूरत नहीं। एसएमएस में या तो संता बंता के नाम पर किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाया जाता है या फिर फूहड़ शायरी रची जाती है। ये नहीं हुआ तो समाज और परिवार का तानाबाना ही बिगाडऩे की कोशिश की जा रही होती है। हमें पता भी नहीं चल पाता कि कब हम इसके शिकार हो गए और हो जाते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि मिलने वाले एसएमएस जब एक दो दिन नहीं आते तो हम फोन करके पूछते हैं कि क्या हुआ। नाराज हो क्या, मैसेज नहीं आ रहे हैं।
जिस तरह फोन का अधिक इस्तेमाल करने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है उसी तरह क्या अधिक मैसेज पढऩे और भेजने से भी कोई बीमारी हो सकती है? पता नहीं पर शोधकर्ताओं के लिए यह शोध का विषय हो सकता है। मुझे लगता है कि अधिकतम लोग इस मैसेजमीनिया के शिकार हो गए हैं। कोई भेजता होगा तो कोई पढ़ता होगा। जो इसमें से कुछ नहीं करता वह निश्चित रूप से भाग्यशाली है, किस्मतवाला है।
मजे की बात यह है कि मोबाइल कंपनियां वही स्कीम पहले कम दाम पर शुरू करती हैं और जैसे ही उन्हें लगता है कि लोग अब इस मोहपाश में फंस गए वैसे ही शुरू हो जाता है दाम बढ़ाने का खेल। पहले अगर पचास रुपए में तीन सौ एसएमएस मिलते थे तो अब सौ रुपए में डेढ सौ मैसेज ही मिलेंगे। अब हमारी तो आदत पड़ चुकी है तो चाहे दो सौ रुपए का मिले हमें तो लेना ही है।
एसएमएस में कहीं प्रेमी प्रेमिका के बीच के अंतरंग बातों को बताया जाता है तो कहीं किसी नेता या अभिनेता पर टिप्पणी की जाती है। उन्हें पढ़कर हम खुश होते हैं।

तो साहब, मेरा यही निवेदन है कि अभी सावधान हो जाइए। अगर आप के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है तो छोड़ दीजिए और अगर नहीं हो रहा है तो अच्छी बात है। कहीं इस चक्कर में पड़ मत जाइएगा।

एक बात और। हो सकता है आप मेरी बात से सहमत न हों। और इसे इसे अच्छा मानते हों। तब बहुत अच्छा है। निवेदन है कि अपनी बात इस मंच पर रखें ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी बात को जान सकें और इस बहस को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।

शनिवार, जुलाई 10, 2010

काफिले में बुझा चिराग-ए-अमन

एक हिन्दू और एक मुसलमान। जब खाप पंचायत के नाम पर लोग एक ही सम्प्रदाय में विवाह के लिए मौत तक का फरमान जारी कर सकते हैं ऐसे में अलग अलग सम्प्रदायों को मानने वाले शादी के बारे में कैसे सोच सकते हैं। खासकर हिन्दू और मुसलमान में तो बिल्कुल भी नहीं। लेकिन, उन्होंने न सिर्फ सोचा बल्कि किया भी।
तसदुद्दीन और ऊषा शर्मा ने विवाह के लिए परिवार वालों, आस पड़ोस वालों और समाज से न जाने क्या क्या सुना। लेकिन, किसी की परवाह नहीं की। प्यार किया, शादी की और इज्जत के साथ समाज में रहने लगे। कुछ दिन बाद उनके एक पुत्र हुआ। नाम रखा 'अमनÓ। इसलिए कि लोगों को बताना जो था कि एक हिन्दू और मुसलमान शादी करके कैसे अमन के साथ जी सकते हैं। ये कट्टरवादियों के मुंह पर एक जोरदार तमाचे की तरह था। लेकिन.... लेकिन.... लेकिन शायद उनकी यह खुशी कुछ ही दिन की थी। दस साल का होते होते अमन मौत के आगोश में समा चुका था। एक तरह से उसकी हत्या की गई थी। और हत्या का कारण बना हमारे देश का प्रधानमंत्री। जी, मनमोहन सिंह।
अमन एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया। परिजन उसे लेकर अस्पताल जा रहे थे, लेकिन उसी दिन हमारे प्रधानमंत्री जी उसी शहर कानपुर में आना था। उनकी सुरक्षा के लिए ऐसे बंदोबस्त की परिंदा भी आसमान से उडऩे से पहले घबरा जाए और दस बार सोचे। एक तरफ उनकी सुरक्षा में लगे जवान और दूसरी ओर अपने घर के इकलौते चिराग की जान की भीख मांगते अमन के माता पिता। हालात ऐसे कि किसी का भी कलेजा मुंह में आ जाए, लेकिन अमन को खून से तर-बतर देखने के बाद भी किसी का दिल नहीं पसीजा। उन्हें अस्पताल नहीं जाने दिया गया। सो तसदुद्दीन और उषा का इकलौता चिराग और हिन्दू -मुस्लिम एकता का प्रतीक रास्ते में ही मिट गया।
संभव है अगर अमन सही समय पर अस्पताल पहुंच गया होता तो बच जाता। लेकिन, अफसोस ऐसा नहीं हो सका। मैं प्रधानमंत्री की सुरक्षा की खिलाफत नहीं कर रहा। किसी भी देश के प्रधानमंंत्री की सुरक्षा की जानी चाहिए। बात जब भारत की हो तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। लेकिन, सुरक्षा के नाम पर किसी की बलि ले ली जाए तो कहना पड़ता है। सुरक्षा अपनी जगह है पर आम आदमी की जान की कुछ तो कीमत होनी चाहिए। क्या प्रधानमंत्री की सुरक्षा में जवान अपने वाहन से अमन को अस्पताल नहीं ले जा सकते थे? अगर किसी नेता या अधिकारी के साथ या उनके परिजन के साथ ऐसा होता तो भी जवान ऐसे ही अपना कत्र्तव्य निभाते या फिर कोई रास्ता निकालते ? एक बड़ा सवाल यहां यह भी उठता है कि अमन की मौत का जिम्मेदार किसे माना जाए? प्रधानमंत्री को ? इस व्यवस्था को ? या फिर किसी और को ? जाहिर सी बात है जिम्मेदार किसी और को ही माना जाएगा। कोई और इतना शक्तिशाली जो नहीं है। मामला कोई भी हो गलत काम की जिम्मेदारी हमेशा कमजोर की ही बनती है। क्योंकि उसकी सबसे बड़ी गलती यही है कि वह कमजोर है। और विडम्बना ये है कि वह शक्तिशाली बन भी नहीं सकता। क्योंकि शक्तिशाली नहीं चाहेंगे कि कोई कमजोर उनके करीब आए।
दुखियारी मां ने प्रधानमंत्री से तो कुछ नहीं कहा, क्योंकि देश की जनता की तरह वह अभागी भी जानती है कि वे कुछ नहीं कर सकते। हालांकि उसने सोनिया गांधी से जरूर गुहार लगाई है। उषा ने उन्हें एक पत्र लिखा है और याद दिलाया है कि अपनों से दूर होने का गम कैसा होता है और जब हालात ऐसे हों। उषा ने अपने लिए कोई मुआवजा नहीं मांगा है बल्कि इस व्यवस्था को बदलने की मांग की है। ऐसी व्यवस्था किस काम की जो आम आदमी की जान ले ले।
लगता तो नहीं कि व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होगा, हां उसे अपने बेटे की मौत के बदले में कुछ लाख रुपए की मुआवजा राशि जरूर दे दी जाएगी कि ये लो तुम्हारे बेटे की कीमत और चुप हो जाओ, जो चल रहा है उसे चलने दो........

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

हो गए 1000 विजिटर्स

जी, बिल्कुल सही समझे आप, मेरे ब्लॉग पर विजिट करने वालों की संख्या 1000 तक पहुंच गई है। यह मैं नहीं ब्लॉग पर लगा गेट विजेट बता रहा है।

इस मौके पर मैं आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जो मेरे ब्लॉग पर आए। कुछ मुझे जानते होंगे और कुछ नहीं। लेकिन, अब आप चुंकि ब्लॉग पर आ ही गए हैं तो जान ही गए होंगे। वास्तव में यह क्षण मुझे बहुत गौरवांवित महसूस करा रहा है। इसलिए जैसे ही मेरी नजर 1000 विजिटर्स पर गई मैं खुद को रोक नहीं पाया और आपका शुक्रिया अदा करने आ गया।
बहुत से लोग एक दो बार ही मेरे ब्लॉग पर आए होंगे और कुछ कई बार। आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया अपना प्यार और मार्गदर्शन इसी तरह बनाए रखें, ताकि समय-समय पर कुछ अच्छा लिखने का साहस कर सकूं। वैसे तो पोस्ट के नीचे टिप्पणी की संख्या से मुझे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता पर अगर लिखे को कोई अच्छा बताता है तो जाहिर सी बात है खुशी होती है।
मैं अक्सर देखता हूं कि जो भी मैं लिखता हूं बहुत सारे लोग उसकी प्रशांसा ही करते हैं पर एक और निवदेन मैं इस मौके पर करना चाहता हूं कि अगर कोई बात अखर रही है और आलोचना करना चाहते हैं तो तर्कों के साथ आइए, अपनी बात रखिए, आपका स्वागत है। मैं उन लोगों में से नहीं जो सिर्फ प्रशंसा सुनना चाहते हैं आलोचना नहीं, बल्कि मुझे आलोचक ज्यादा पसंद आते हैं। वे आपको आपकी गलती बताते हैं, जिससे सुधार किया जा सके।

अक्सर देखा होगा कि जब किसी खेल में किसी खिलाड़ी को मैच का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया जाता है तो वह ज्यादा बोल नहीं पाता। कुछ कुछ ऐसा ही हाल मेरा है, मैं लिख नहीं पा रहा हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि आपका बहुत बहुत शुक्रिया अपने आशीर्वाद दिया। उम्मीद करता हूं आगे भी आपका मार्गदर्शन और प्यार बना रहेगा।

आइए अब देखते हैं कहां कहां से लोगों ने मुझे आशीर्वाद दिया।

भारत ८४४
यूनाइटेड स्टेट ११४
कनाडा १०
आस्टे्रेलिया ८
यूनाइटेड किंगडम ८
थाइलैंड 5
यूएई ३
साउदी अरब
ओमान १
रवांडा १
सिनेगल १
यूरोप १
युके्रन १
जर्मनी १

सोमवार, जुलाई 05, 2010

कैसा रहा भारत बंद ?

आज भारत बंद रहा। क्यों? महंगाई बहुत हो गई है, इसे कम होना चाहिए। विपक्ष ने मांग की थी भारत बंद की। बंद सफल रहा या असफल यह अलग बात है, लेकिन क्या मिला इस बंद से जरा इस पर गौर फरमाइए।
बंद का असर किस पर पड़ा। गरीबों पर या फिर रहीसों पर। जो इस महंगाई में पिस रहा है उस पर या फिर.......। बाजार बंद रहे। सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा। जिन लोगों ने दुकानें खोलीं भी उन्हें बंद करा दिया गया। क्यों? अरे भारत बंद है भई, तुम दुकान कैसे खोल सकते हो। अगर दुकान खोल ली तो बंद असफल नहीं हो जाएगा, विपक्ष का मखौल नहीं उड़ेगा। एक अदने से दुकानदार की वजह से पूरे विपक्ष के किए धरे पर पानी फिर जाए, ये कैसे हो सकता है।
इस भारत बंद से क्या मिला। पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन और पता नहीं किस किस के दाम कम हो गए क्या ? चलो नहीं भी हुए तो क्या आश्वासन ही मिला है कि सरकार दाम कम करने की कोशिश कर रही है, जल्द ही कीमतें काबू में आ जाएंगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार ने तो बंद के एक दिन पहले ही कह दिया था कि कीमतें किसी भी कीमत पर कम नहीं होंगी।
फिर बंद का फायदा क्या? जिनके घर महीने भर का राशन एक ही दिन आ जाता है उन्हें तो कुछ फर्क नहीं पड़ा। फर्क उन्हें पड़ा जो रोज कमाई कर आटा, सब्जी और सरसों का तेल लेकर घर जाते हैं। आज न तो वे कमाई कर पाए और न ही घर जाते समय खाने का सामान ही ले जा पाए। असर उन ठेली वालों पर पड़ा जिनकी ठेली पर आज कोई नहीं आया। आए भी तो वही भारत के सबसे जिम्मेदार नागरिक। यह कहने की ठेली हटा लो, आज भारत बंद है। मना किया तो डरया धमकाया और सामना इधर उधर फेंक दिया।
क्या इसीलिए भारत बंद हुआ? क्या यही इसका मकसद था? नहीं तो क्यों बेवजह का ड्रामा किया गया। आपके यहां कैसे हालात थे। जैसे मैंने लिखा वैसा ही या इससे कुछ जुदा। बताएंगे तो अच्छा लगेगा। नहीं बताएंगे तो भी कोई बात नहीं।

रविवार, जून 27, 2010

मुन्नाभाई कौन

फिर धरे गए मुन्नाभाई। एक और मुन्नाभाई, मुन्नाभाई कर रहे इलाज, मुन्नाभाइयों पर प्रशासन की नजर, अब मुन्नाभाइयों की खैर नहीं और न जाने क्या क्या। इस तरह की हेडिंग अक्सर समाचार पत्रों में पढऩे के लिए मिल जाती हैं। अक्सर तब, जब मेडिकल या फिर अन्य किसी की प्रवेश परीक्षाएं चल रही होती हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर ये मुन्नाभाई है कौन। क्या यह राजकुमार हीरानी की बनाई गई फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस का जिक्र हो रहा है। जवाब होगा हां। फिल्म में मुन्नाभाई का किरदार संजय दत्त ने निभाया था। उसके पिता चाहते हैं कि वह डॉक्टर बन जाए, लेकिन वह असल में आपराधिक प्रवृत्ति का शख्स होता है। स्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह पिता को खुश करने के लिए मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेता है। उसकी उम्र बहुत हो चुकी है, लेकिन अपने साथी सर्किट के सहयोग से तमाम तरह के गलत हथकंडे अपनाकर वह मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा लेता है। उसके बाद क्या होता है इस पर जाउंगा तो विषयांतर हो जाएगा।
मूल बात पर आते हैं। चूंकि फिल्म का किरदार गलत तरीके अपनाकर प्रवेश पा जाता है इसलिए अखबारों में एक चलन चल पड़ा है कि जैसे ही कोई गलत तरीकों से परीक्षा देते पकड़ा जाता है तो अखबारों हेडिंग लगा दी जाती है, मुन्नाभाई धरे गए। यह कह पाना मुश्किल है कि यह प्रयोग किसने शुरू किया पर आजकल यह खूब चलन में है। लगभग सभी अखबारों और सभी क्षेत्रों में। सवाल यह भी है कि क्या यह सही है? जो लोग नकल करते या दूसरों की जगह परीक्षा देते पकड़े जाते हैं, वह सभी वाकई मुन्नाभाई हैं? क्या उनमें वे भी गुण हैं, जो फिल्म के मुन्नाभाई में थे? क्या वह लोगों के दुखदर्द को उसी शिद्दत से समझते हैं जितना फिल्मी मुन्नाभाई समझता है? क्या वह दूसरों के लिए जान देने की हिम्मत रखता है? सवाल कई हैं पर जवाब का पता नहीं।
याद पड़ता है कि कुछ समय पहले एनडीटीवी के रवीश जी ने पप्पू को लेकर एक रिपोर्ट की थी, जिसमें कई पप्पुओं की पीड़ा उभर कर सामने आई थी। एक विज्ञापन आता था पप्पू पास हो गया। रवीश जी ने बहुत शानदार तरीके से रिपोर्ट को बनाया और अपने ब्लॉग नई सड़क पर लिखा भी। हमारे देश में जितना प्रचलित नाम पप्पू है, शायद उतना ही मुन्ना भी। हर घर में अगर पप्पू मिल जाएगा तो हर एक घर छोड़कर कोई न कोई मुन्ना भी होता है। पप्पू की पीड़ा तो रवीश जी ने समझी पर मुन्ना की पीड़ा। उसका क्या होगा। क्या पप्पू की पीड़ा पीड़ा है और मुन्ना की पीड़ा ड्रामा। अगर ऐसा नहीं है तो मुन्ना के साथ यह खिलवाड़ क्यों हो रहा है? मैं भी एक पत्रकार हूं और अपने अखबार में कोशिश करता हूं कि इस तरह की हेडिंग न जाए, जिससे किसी मुन्ना का दिल दुखे फिर भी ऐसा हो रहा है। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उन सभी मुन्नाओं का क्षमा प्रार्थी हूं, जिन्हें इस तरह की हेडिंग पढ़कर ठेस लगती हो लेकिन मुन्ना जैसा दिल रखना हर किसी के वश की बात नहीं।

गुरुवार, जून 24, 2010

किस्मत के धोनी



आखिरकार 15 साल बाद फिर वह दिन आ ही गया जब भारत क्रिकेट के मामले में एक बार फिर एशिया का सिरमौर बन गया। क्रिकेट प्रेमी तो इस जीत से खुश हैं ही पर सबसे ज्यादा खुशी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को होगी। धोनी इस बार बाल-बाल बच गए। एशिया कप फाइनल में हारने का मतलब धोनी की कप्तानी से विदायी भी हो सकती थी। जीत के बाद अब कुछ समय के लिए तो उन पर अंगुली नहीं ही उठेगी। यह भी दीगर है कि इस जीत में धोनी का कुछ खास योगदान नहीं रहा। उन्होंने फाइनल में 50 गेंद में 38 रन बनाए, जिसे केवल ठीक ठाक ही कहा जा सकता है, अगर बात एक दिनी मैच की हो तो।

मैं बार-बार और हर बार यही कहता रहा हूं कि धोनी किस्सत के धनी हैं और इस बार भी यही साबित हुआ। धोनी इस बात से तो खुश होंगे ही कि उन्होंने अपनी कप्तानी में 15 साल का सूखा समाप्त किया साथ ही उनकी खुशी का एक कारण और होगा वह हैं सचिन तेंदुलकर। यह टूर्नामेंट उन्होंने सचिन की गैर मौजूदगी में जीता है। एक समय था जब भारतीय क्रिकेट के बारे मेें कहा जाने लगा था कि सचिन के बगैर टीम नहीं जीतती। धोनी जबसे कप्तान बने हैं उनकी कोशिश रही है कि इस टैग से बचा जाए।

अब जरा यह समझने की कोशिश करते हैं कि धोनी की कप्तानी पर खतरा आखिर था क्यों। दरअसल उनकी कप्तानी काफी समय से खतरे में थी, पर वेस्टइंडीज में खेले गए टी-ट्वेंटी विश्व कप से जल्दी विदायी ने आग में घी का काम किया। जिन कारणों से धोनी को कप्तान बनाया गया था वही काफी समय से धोनी में देखने को नहीं मिल रहे थे। उनकी सबसे बड़ी समस्या यही थी कि जो रणनीति वे बनाते थे उसे मैदान में क्रियान्वित नहीं कर पा रहे थे और जब रणनीति मैदान में नहीं चलेगी तो उसका फायदा क्या ? अपनी बल्लेबाजी की तरह कप्तानी में भी जो आक्रामकता धोनी में दिखती थी वह अब न तो उनकी बल्लेबाजी में देखने को मिल रही है और न ही मैदान पर कप्तानी करते समय। कैप्टन कूल कहे जाने वाले धोनी अक्सर मैदान पर गर्म होते हुए भी दिखे हैं। इसका कारण कई वरिष्ठ खिलाडिय़ों का टीम में होना माना जा सकता है। यह बात सही है कि वरिष्ठों की मौजूदगी में कप्तानी करना किसी के लिए भी आसान नहीं होता और धोनी भी इससे दो चार हो रहे हैं। काबलियत इसी में है कि वरिष्ठों को पूरा सम्मान देकर भी उन्हें अच्छा खेल खेलने के प्रोत्साहित किया जाए।
२३ जून को फाइनल के रिहर्सल के तौर पर खेले गए मैच में जब पूरी टीम 209 रन बनाकर आउट हो गई तो लगा कि शायद इस बार भी कप हाथ से जाता रहेगा, लेकिन तारीफ करनी होगी दिनेश कार्तिक की जिन्होंने बेहतरीन खेल का प्रदर्शन करते हुए 66 रन बनाए। हालांकि, उन्होंने इतने रन बनाने के लिए 126 गेंदें खेलीं। गेंदबाजी में नेहरा ने कमाल का प्रदर्शन किया और नौ ही ओवर में चार विकेट ले लिए। धोनी की कप्तानी में भारत ने अभी तक किसी टूर्नामेंट में 7 बार फाइनल मुकाबला खेला और उसमें से यह भारत की चौथी जीत है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि इस जीत के साथ ही धोनी एक नई शुरुआत करेंगे। जो क्षमताएं उनमें हैं उसका इस्तेमाल जरूरत पडऩे पर करेंगे, जिससे फिर उनकी कप्तानी पर सवाल न उठें।

शनिवार, जून 19, 2010

वे क्यों बनें प्रधानमंत्री

आरजी। पार्टी के वरिष्ठ नेता और पदाधिकारी उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं। पार्टी में छोटे कद के नेता उन्हें आरजी जी कहते हैं, आखिर जी भी तो लगना है। कुछ लोग उनके नाम के आगे बाबा लगा देते हैं। जैसे संजय दत्त को संजू बाबा। कुछ लोग उन्हें युवराज और राजकुमार के भी सम्बोधन से पुकारते हैं। आज वे 40 साल के हो गए। कविता की भाषा में कहें तो उन्होंने 40 बसंत देख लिए। यह बात अलग है कि इन चालीस सालों में से काफी समय उन्होंने विदेश में बिताया है। अब पता नहीं विदेश में बसंत होता है कि नहीं, होता भी है तो कैसा ? पता नहीं।

सबसे पहले तो उन्हें जन्मदिन की बधाई। यह जानते हुए भी उन्हें बधाई दे रहा हूं कि वे ब्लॉग नहीं पढ़ते और न ही अमर सिंह की तरह ब्लॉग लिखते ही हैं। लेकिन, मेरी भावना उन्हें बधाई देने की है किसी न किसी तरह उन तक पहुंच ही जाएगी।

उनकी मां और पिता की तरह उनका भी राजनीति में आने का मन नहीं था पर आना पड़ा। और अब वे अपने पुरखों की पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव हैं। हालांकि प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि युवा आगे आएं और पार्टी की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाएं। इसके लिए वे आरजी का ही उदाहरण देते हैं और किसी योग्य युवा को वे शायद नहीं जानते। प्रधानमंत्री अपनी दूसरी पारी के दौरान एक साल होने पर सरकार की कथित उपलब्धियों के लिए संवाददाता सम्मेलन बुलाते हैं तो शान से कहते हैं कि वे चाहते हैं कि आरजी प्रधानमंत्री बनें। प्रधानमंत्री क्या, पार्टी और पार्टी के बाहर का हर शख्स जानता है कि अगले लोकसभा चुनाव में भारत की सबसे पुरानी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी वही होंगे। प्रधानमंत्री ने यह बात इसलिए कही कि यह जरूरी है या फिर इसलिए कि मजबूरी है, सब जानते हैं।
लेकिन, एक बात जो मुझे अक्सर अखरती है और मैं सोचता रहता हूं पर सोच नहीं पाता, वह यह कि आखिर उन्हें प्रधानमंत्री बनने की जरूरत क्या है। उनके परिवार में कई लोग प्रधानमंत्री रहे। लेकिन उनकी मां ने यह सिलसिला तोड़ा। भारत में लोकतंत्र है और उसमें सबसे बड़ा पद राष्ट्रपति का होता है उसके बाद प्रधानमंत्री होता है। लेकिन मजे की बात यह है कि एक पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष इन दोनों लोगों से बड़ी हैं। जिसे चाहती हैं उसे राष्ट्रपति बनवा सकती हैं, जिसे चाहें प्रधानमंत्री। हां, दो और पद है लोकसभा अध्यक्ष और उप राष्ट्रपति का। उनमें इतनी कूबत है कि इस पद पर भी वे जिसे चाहें विराजमान कर सकती हैं। किसी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष में इतनी ताकत हो सकती हैं क्या, राजनीति के विषय में मेरी समझ बहुत कम है, पर शायद नहीं। लेकिन, वे ऐसी ही हैं। 2004 में वे प्रधानमंत्री पद के बहुत करीब पहुंच गईं थी, पर पता नहीं क्यों उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया पार्टी के लोग गुहार लगाते रहे पर वे नहीं मानीं और अब वे क्या हैं, बता ही चुका हूं। अगर वे प्रधानमंत्री बन जातीं तो क्या उनमें इतनी ताकत होती। मेरी समझ में तो नहीं।

यह बात मैं इसलिए लिख रहा हूं कि जब उनमें इतनी शक्ति है तो फिर उनके बेटे और चालीस बसंत पार कर चुके आरजी साहब को क्या जरूरत है कि वे प्रधानमंत्री बनें। अपनी मां की तरह वह भी तो त्याग की मूर्ति बन सकते हैं। त्याग का त्याग और सत्ता की सत्ता, बल्कि सत्ता के भी ऊपर शीर्ष पर, जिसका कोई नामकरण अभी तक नहीं किया गया है। आज उनका चालीसवां जन्मदिन है मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। वह बहुत पढ़े लिखे हैं और कोलंबिया की अपनी महिला मित्र से दूर रहते हैं। जब वे अपनी महिला मित्र के सम्पर्क में थे शायद उन्हें पता नहीं होगा कि वे राजनीति में आएंगे लेकिन अब आ ही गए हैं जान गए हैं कि राजनीति में बहुत सारी चीजें मिलती हैं तो बहुत सी चीजें त्यागनी भी पड़ती हैं।

अगर मेरी यह पोस्ट उनका कोई करीबी पढ़े तो कृपया कर उन तक मेरी बात पहुंचा दे तो बड़ी मेहरबानी होगी। दरअसल मेरी पहुंच उन तक नहीं है। शुक्रिया।

बुधवार, जून 16, 2010

कहाँ कहाँ हैं आप


आजकल मैं बहुत परेशान हूं। परेशानी का कारण है सोशल नेटवर्किंग साइट्स। रोज किसी न किसी मित्र का मेल आ जाता है कि फलां नेटवर्किंग साइट पर जुडि़ए। ये सिलसिला आज से नहीं बहुत दिनों से या यूं कहूं कि बहुत सालों से चल रहा है। मुझे पता भी नहीं कि कब मेरे पास इस तरह का पहला मेल आया था। पहले घर में लैंडलाइन फोन होते थे, लेकिन आप उन्हें हर जगह ले जा नहीं सकते थे। उसके विकल्प के तौर पर मोबाइल आया। उसे आप कहीं भी ले जा सकते हैं। फिर आया इंटरनेट का जमाना। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने पहली बार अपना मेल आईडी बनाया तो लग रहा था कि पता नहीं कौन सा तीर मार लिया। उस समय फिल्म खामोशी का मजरूर साहब का गीत याद आ रहा था और मन ही मन उसे गुनगुना भी रहा था। गीत है 'आज मैं ऊपर आसमां नीचेÓ।

खैर सबको अपना ईमेल आईडी बांटने लगा। और बड़ी श् ाान से। सबका मेल आईडी लेता भी था। मेल भले न करूं। सच तो यह है कि किसी का मेल आता भी नहीं था। कभी महीने दो महीने बाद साइबर कैफे जाता तो वही शादी करवाने वाली साइटों के या फिर बैंक के मेल आते थे। कभी कभी कोई सामान भी बेचने आता था। शायद उसे पता नहीं था कि उसका मुझे मेल करना एक तरह से बेकार ही है। उन्हें कभी डिलीट कर देता तो कभी देखता की ऐसे तो मेल बाक्स खाली हो जाएगा तो कुछ एक छोड़ देता। अगली बार फिर जाता तो उन्हें डिलीट करता, क्योंकि तब तक कोई और अपना सामान बेचने चुका होता था।

खैर, अब आपको अपनी परेशानी बताता हूूं। पहले जब जीमेल पर मेल अकाउंट बनाया तो पता चला कि ऑरकुट भी कोई चीज होती है। पहली बार जब एक दोस्त ने पूछा कि क्या तुम ऑरकुट पे हो तो सबसे पहले यही पूछा कि ये क्या होता है। उसे भी ज्यादा पता नहीं था जितना पता था उसने बता दिया। मैंने भी धीरे धीरे सीखना शुरू किया और फिर तो मजा आने लगा। मोबाइल ने दूरियां कम की थी आप किसी से भी कभी भी सम्पर्क कर सकते हैं लेकिन उसके लिए उसका नम्बर होना जरूरी था। जब गहराई में गया तो पता चला कि ऑरकुट में तो आप नाम डाल दीजिए और अगर उस व्यक्ति का वहां अकाउंट है तो वह मिल जाएगा। कई बार तो सजेशन भी आ जाता है। मैंने कई पुराने दोस्त इस तरह से खोजे। लेकिन इधर देख रहा हूं कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स की बाढ़ सी आई हुई है। ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर, लिंकडेन, झूज, टैग्ड, हाई-5, माई कंटोस, माई स्पेस, फ्लिकर और बज। हो सकता है कुछ भूल भी रहा होऊं। समस्या यह है कि किस किस से जुड़ूं। सब पर जुडऩे के लिए मेल आ चुका है और अभी भी आ रहा है। कभी सोचता हूं कि इन पर क्यों जाऊं। क्या इससे कुछ फायदा होगा या फिर नुकसान। हालांकि, यह बहस का मुद्दा है कि यह नेटवर्किंग साइट्स सही हैं या गलत। पिछले दिनों पाकिस्तान और अफगानिस्तान ने फेसबुक पर पाबंदी लगा दी थी लेकिन कुछ ही समय बाद उन्हें पाबंदी हटानी पड़ी। आखिर ऐसा क्यों करना पड़ा। कहीं ये हमारी सोचने समझने की शक्ति खत्म तो नहीं कर रहीं। चुंकि पत्रकारिता के पेशे में हूं तो पहले सोचता था कि शायद पत्रकार ही इनसे जुड़ते हैं क्योंकि पेशे की मांग है कि उनका सामाजिक दायरा बड़ा होना चाहिए पर अब देखता हूं कि पत्रकार तो पत्रकार वकील, नेता, अभिनेता और हर पेशे से जुड़ा व्यक्ति यहां मिल जाता है। भई कमाल हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स। हर कोई इनका दीवाना है। सोचता हूं कि कहीं ये दीवानगी भारी न पड़ जाए।

आप किन-किन सोशल नेटवर्किंग साइट्स से जुड़े हैं और क्यों। क्या है इनका और हमारा भविष्य अगर अपने विचार साझा करेंगे तो अच्छा लगेगा।

सोमवार, जून 07, 2010

ये कैसी यंगिस्तान

भारतीय क्रिकेट टीम। सही नाम तो यही है। मोहम्मद अजहरुद्दीन के समय तक देश की क्रिकेट टीम को इसी नाम से पुकारा जाता था। कमान सौरभ गांगुली के हाथों में आई तो इसे 'टीम इंडियाÓ का नाम दे दिया गया। कहा गया कि इस टीम में एकता है। हर खिलाड़ी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन पूरी निष्ठा और लगन से कर रहा है।

वो एक जमाना था। समय बदला तो बाबू मोशाय गांगुली हाशिए पर चले गए और झारखंडी लाल महेंद्र सिंह धोनी को टीम की कमान सौंपी गई। जबकि युवराज सिंह इस पद के प्रबल दावेदार थे। खैर, जब सचिन को छोड़कर सभी वरिष्ठ खिलाडि़यों की विदाई हो गई तो टीम को यंगिस्तान कहा जाने लगा। यानी सभी खिलाड़ी युवा हैं, जोश से भरपूर। इसी यंगिस्तान की पहली परीक्षा गत दिनों हुई। श्रीलंका और जिम्बाब्वे जैसी अपेक्षाकृत कमजोर समझी जाने वाली टीम के साथ भारत ने त्रिकोणीय सिरीज में हिस्सा लिया। मजे की बात यह रही कि पहली ही परीक्षा में टीम की पोल खुल गई। टीम ने कुल चार मैच खेले। उनमें एक जीता और तीन हारे। खास बात यह रही कि तीन में से टीम ने दो मैच जिम्बाब्वे से हारे और सिरीज से बाहर हो गई। इससे पहले करीब साढ़े तीन साल पहले कुआलालंपुर में तीन देशों की सिरीज हुई थी, टीम उसमें फाइलन तक नहीं पहुंच पाई थी। इस सिरीज में दूसरी टीमें ऑस्ट्रेलिया और वेस्टइंडीज थीं। लेकिन, गौर करें तो पता चल जाएगा कि उस हार में और इस हार में कितना फर्क है। ऑस्टे्रलिया और वेस्टइंडीज किसी भी टीम को हरा सकती हैं। उस समय टीम भी इतनी युवा नहीं थी। युवाओं और अनुभव का अच्छा तालमेल उस टीम में था। लेकिन, इस बात तो यंगिस्तान उससे हार गई जो कमजोर मानी जाती है। हालांकि, मैं मानता हूं कि क्रिकेट में कोई भी टीम बड़ी या छोटी नहीं होती वही टीम जीतती है जो उस दिन अच्छा प्रदर्शन करती है। तो क्या माना जाए कि भारत ने जिम्बाब्वे के खिलाफ लगातार दो मैचों में घटिया प्रदर्शन किया। उसी टीम ने जिसे भविष्य की टीम माना जा रहा है और यंगिस्तान के नाम से पुकारा जा रहा है। इस सिरीज से यह पता लग गया है कि इस टीम के खिलाड़ी कितने पानी में हैं।


खैर, अब बात उस टीम की जो एशिया कप के लिए चुनी गई है। टूर्नामेंट १५ जून से होना है। कुछ ही देर पहले इसके लिए टीम का चयन किया गया। इसमें युवराज सिंह को टीम में शमिल नहीं किया गया है। कारण है लगातार लचर प्रदर्शन, जो आईपीएल से ही शुरू हो गया था और अब तक जारी है। वे भी यंगिस्तान के सदस्य माने जाते हैं। अब बात उन अन्य खिलाडि़यों की जो यंगिस्तान के सदस्य हैं पर उन्हें इस सिरीज के लिए टीम में शामिल नहीं किया गया। युसुफ पठान, जो सिर्फ आईपीएल में ही चलते हैं। बाकी जब उन्हें भारत की तरफ से खेलना हो तो पता नहीं उनका दमखम कहां चला जाता है। कभी-कभी तो लगता है कि युसुफ के बल्ले से शॉट पैसे देखकर ही निकलते हैं। जितने ज्यादा पैसे उतना ही जोरदार शॉट। नहीं तो वे बल्ला लिए खड़े रहेंगे और गेंद उनकी गिल्लियां बिखेर देगी। दिनेश कार्तिक, जो आईपीएल में दिल्ली डेयरडेविल्स के सदस्य हैं और अच्छे बल्लेबाज माने जाते हैं। उनके साथ एक समस्या धोनी की भी है। धोनी भी विकेट कीपर हैं और कार्तिक भी। एेसा बहुत कम होता है कि टीम में दो विकेट कीपर शामिल किए जाएं और धोनी को हटाना फिलहाल किसी के वश की बात नहीं दिखती। लेकिन, इसके बाद भी इतने समय तक एक बल्लेबाज की हैसियत से टीम में बने रहना उनके लिए बड़ी बात है। वे एक दो रन चुराने में माहिर माने जाते हैं। वैसे ही जैसे मोहम्मद कैफ माने जाते हैं। लेकिन, लगता है अब टीम को एक-एक, दो-दो बनाने वाले नहीं बल्कि एेसे लोग चाहिए जो चौका-छक्का लगाएं। भले वे टीम को जिता न पाएं। एक और नाम है जो एशिया कप की टीम लिस्ट में नहीं है वह है अमित मिश्रा का। एक एेसा भी समय था जब अमित को अनिल कुंबले की जगह भरने वाला बताया गया था। अब हालात यह हैं कि उन्हें उस टीम में भी जगह नहीं मिल पा रही है जो किसी बड़े टूर्नामेंट में खेलने जा रही है। अंतिम एकादश की तो बात ही छोड़ दीजिए।


और अब बात सचिन की। सचिन श्रीलंका में एशिया कप में खेलने नहीं जा रहे हैं। उन्होंने चयन समिति से खुद को टीम में शामिल न करने का आग्रह किया था। बताया जा रहा है कि वे कुछ समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहते हैं। यह सही बात है, अतिव्यस्त क्रिकेट कार्यक्रम की वजह से खिलाड़ी अपने परिवार के साथ समय नहीं गुजार पाते। जब तक पूरी टीम श्रीलंका में एशिया की सबसे बेहतर टीम होने की लड़ाई लड़ेगी सचिन परिवार के साथ रहेंगे। बहुत संभव है कि मसूरी भी जाएं। वे अक्सर छुट्टियां बितानें मसूरी में अपने मित्र नारंग के यहां जाते हैं। लेकिन, अब दूसरी बात। क्या सचिन वास्तव में परिवार के साथ समय गुजारना चाहते हैं इसलिए श्रीलंका नहीं जा रहे। यह बात ठीक हो सकती है। पर दूसरा कारण इससे बड़ा है। दरअसल सचिन २०१२ का विश्वकप खेलना चाहते हैं, यह बात वह कई बार कह भी चुके हैं और उससे पहले कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते। मसलन कल को अगर उनका प्रदर्शन ठीक न हो तो तत्काल उन्हें टीम से बाहर कर देने की मांग उठने लगेगी। हो सकता है उन्हें टीम से निकाल दिया जाए। या फिर किसी मैच में खेलते हुए उन्हें चोट भी आ सकती है। जिससे उनके सामने मुश्किल आ सकती है। सचिन एेसा कुछ नहीं होने देना चाहते, जिससे वे विश्वकप खेलने से वंचित रह जाएं। वैसे सचिन की समझदारी की भी दाद देनी होगी।

जी, तो बात हो रही थी यंगिस्तान की। यंगिस्तान कितना मजबूत है और आने वाले दिनों में भारतीय क्रिकेट का भविष्य कितना उज्ज्वल है इसका अंदाजा पिछले दिनों हुए टूर्नामेंट के आधार पर लगाया जा सकता है। और हां किसी को शक हो तो एशिया कप भी देख लीजिएगा। खासकर उन खिलाडि़यों के प्रदर्शन पर नजर रखिएगा जो यंगिस्तान के सदस्य कहे जाते हैं।

देखिए और इंतजार कीजिए।

सोमवार, मई 31, 2010

काहे की जनता जनार्दन



भारत में लोकतंत्र है, कहने को दुनिया सबसे बड़ा लोकतंत्र। यहां सरकार को जनता चुनती है। आम और खास लोग मिलकर यह तय करते हैं कि उन पर कौन राज करे। जिसे जनता चुनती है वही राज करता है। चुनाव प्रक्रिया निष्पक्ष हो इसके लिए चुनाव आयोग न जाने क्या-क्या प्रयास करता है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद उसके हाथ पूरी तरह खुल जाते हैं। सब कुछ तत्काल और निष्पक्ष साफ सुथरा। प्रयास यही कि सब कुछ पाक साफ रहे। कहीं कोई शक की गुंजाइश न हो और जल्दी भी हो जाए इसी बात को ध्यान में रखते हुए चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (इवीएम) का आगमन हुआ। लेकिन, अब पता चल रहा है कि वही इवीएम देश के लोकतंत्र में छेद कर रही है।


नब्बे के दशक में बैलेट पेपर से मतदान होता था। एक कागज पर क्षेत्र के प्रत्याशियों के चुनाव चिह्न बने होते थे। जिस प्रत्याशी को आप चुनना चाहते हैं उसके आगे मोहर लगा दीजिए फिर एक खास तरीके से उसे फोल्ड कर वहीं रखे एक डिब्बे में डाल दीजिए। इस प्रकार मैनें भी कई बार मतदान किया है। प्रक्रिया थोड़ी लम्बी है। खैर, इसके बाद जब वोटों की गिनती का काम होता था तो कई दिन तक रहस्य बना रहता था कि कौन सा प्रत्याशी जीत रहा है। यह बात मतदान प्रतिशत पर निर्भर करती थी कि मत गिनने में कितना समय लगेगा। जितना अधिक मतदान उतना ही ज्यादा समय। यानी रहस्य उतना ही गहरा। प्रक्रिया लम्बी, लेकिन कहीं भी शक की गुंजाइश नहीं। सब कुछ शुद्ध पानी की तरह साफ-साफ। समय बदला। लोग बदले तो तकनीक भी बदल गई। समय कम लगे इसलिए आ गई इलेक्टॉनिक वोटिंग मशीन। वोट डालने में भी कम समय। बस बटन दबाओ और काम खत्म। गिनने में भी कम समय। जल्द ही पता पड़ जाता है कि कौन जीत रहा है, सब कुछ जल्दी-जल्दी। पहले लगता था कि यह भी पाक साफ है। २००९ में हुए लोकसभा चुनावों में हारी हुई पार्टियों ने आरोप लगाए कि इवीएम से छेड़छाड़ की जा सकती है, इसकी जांच होनी चाहिए। यानी आप वोट किसी और को डालें और चला किसी और को जाए। इसकी सेटिंग की जा सकती है। तब लगा कि शायद हार की टीस मिटाने के लिए यह सब किया जा रहा है। यानी खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली बात हो रही है। लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इस बात पर मोहर लगा दी है कि भारत में जो इलेक्टॉनिक वोटिंग मशीनें प्रयोग में लाई जा रही हैं उनमें छेड़छाड़ की जा सकती है। मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. एलेक्स और एक छात्र ने दावा किया है कि उन्होंने छेड़छाड़ में सफलता पाई है। प्रो. का कहना है कि उन्होंने होम मेड डिवाइस से इसके परिणाम बदल दिए।

तो क्या यह मान लिया जाए कि भारतीय लोकतंत्र में छेद किया जा रहा है। जोर शोर से शुरू की गई पेपर रहित प्रणाली फेल हो चुकी है। जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है। यानी आप वोट डालें किसी और को और चला किसी और को जाए। तो फिर काहे की जनता जनार्दन आयलैंड, नीदरलैंड और जर्मनी सहित कई देशों ने इन्हीं खामियों के चलते इवीएम का इस्तेमाल बंद कर दिया है। वे निरे बेवकूफ तो नहीं जो यूं तुरत-फुरत में कोई इतना बड़ा फैसला कर लेंगे। तो क्या अब भारत को भी एेसा ही करना चाहिए। खैर, यह तो देश के नीति-नियंता ही तय करेंगे।

खास बात यह है कि इससे पहले हैदराबाद की नेटइंडिया ने भी इसी तरह की बात कही थी। तब चूंकि मामला देसी था इसलिए इतनी तवज्जो इसे नहीं दी गई। हालांकि विपक्षी पार्टियों ने तब भी शोर किया था, लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक जब यही बात कह रहे हैं तब भी सत्ताधारी दल कुछ बोलने को तैयार नहीं। इसका मतलब क्या समझा जाए। सरकार को पिछले लोकसभा चुनावों में मिली अपनी जीत पर शक है या वह मामले को यूं ही टालना चाहती है। जो भी हो अगर अमेरिकी वैज्ञानिकों का निष्कर्ष सही है तो देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए कुछ न कुछ करना ही होगा। नहीं तो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को बिखरने से कोई बचा नहीं पाएगा।

गुरुवार, मई 27, 2010

तेंदुलकर को ग्वालियर का सलाम




भई अपने सचिन तेंदुलकर के क्या कहने। उनके बारे में क्या कहूं और क्या लिखूं। कई बार मन किया। कोशिश की, लेकिन नहीं लिख सका। वह इसलिए कि उनके बारे में क्या लिखूं। जब तक उनके किसी एक रिकॉर्ड के विषय में लिखा जाए, तब तक वे दूसरा रिकॉर्ड बना देते हैं। यह सिलसिला चलता ही रहता है। सच कहूं तो मन भी नहीं करता कि यह सिलसिला कभी बंद हो। जब सचिन ने ग्वालियर के रूपसिंह स्टेडियम में २०० रन बनाए तो चाहा कि लिखूं। लेकिन उससे पहले ही कई महान खेल पत्रकारों, विशेषज्ञों और न जाने किस-किस ने सब कुछ लिख डाला। खूब पढ़ा। जमकर पढ़ा। सोचता रहा कि मैं क्या लिखूं। कुछ समझ नहीं आया, तो यह विचार त्याग दिया। लेकिन क्या कहने। जब इतिहास लिखा गया तब मैं अंबाला में था, लेकिन कुछ समय बाद ही उस शहर में आ गया, जहां इतिहास रचा गया। अमर ग्वालियर और अमर रूपसिंह स्टेडियम। क्या कहने।
यहां आकर पता चला कि जब सचिन ने ग्वालियर के रूपसिंह स्टेडियम में नाबाद २०० रन बनाए थे तब से यहां के नगर निगम में एक प्रस्ताव लंबित था। उनके नाम से किसी मार्ग का नाम रखने का प्रस्ताव। वही प्रस्ताव गत दिनों नगर निगम परिषद की बैठक में पारित हो गया। यहां की पुरानी हुरावली रोड अब सचिन तेंदुलकर के नाम से जानी जाएगी। बैठक में इसके साथ ही एक निर्णय और लिया गया। रूपसिंह स्टेडियम की एक पवेलियन का नाम भी सचिन तेंदुलकर पवेलियन हो गया है। यह मई माह की परिषद की पहली बैठक थी। क्या कहने। भई वाह। आप क्या कहते हैं। मैं भी तो जानूं।

शुक्रवार, मई 21, 2010

एक है झारखंड


झारखंड यानी झार या झाड़ का खंड। झार माने वन और खंड माने टुकड़ा। कुल मिलाकर वन का एक टुकड़ा। अपने नाम के ही अनुरुप यह वन प्रदेश है। लम्बे संघर्ष और आंदोलन के बाद १५ नवम्बर २००० को यह देश का २८वां राज्य बना। यानी भारत के नवीनतम प्रांतो में से एक। इसकी राजधानी है रांची। मैं झारखंड का इतिहास या भूगोल नहीं बता रहा बल्कि इस राज्य के दुख में शरीक होने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि इसे राज्य का दुर्भाग्य मानूं या फिर खंड-खंड जनादेश देने वाली वहां की जनता की गलती। कुछ भी हो कहीं न कहीं तो गड़बड़ है। पहले भी लिख चुका हूं और फिर लिख रहा हूं कि मैं राजनीति पर नहीं लिखता। यहां भी राजनीति पर नहीं लिखूंगा पर एक राज्य का दुख जरूर बांटूंगा।
सत्ता हथियाने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से जोड़-तोड़ का खेल खेलना कोई नई बात नहीं। हर राज्य में समय समय पर यह अमूमन होता ही रहता है। राज्य क्या केंद्र में भी होता है। लेकिन जैसे ड्रामा झारखंड में इन दिनों खेला जा रहा है या पहले खेला गया वह अपने आप में शर्मिंदा करने के लिए काफी है। पिछले करीब एक महीने से यहां जो हो रहा है उसे नाटक या ड्रामा से ऊपर और क्या कहा जाए समझ नहीं पा रहा हूं। खास बात यह कि खेल अभी जारी है। रोज नए-नए घटनाक्रम हो रहे हैं, पर मामला है कि सुलटने का नाम ही नहीं ले रहा। खेल में शामिल और नाशामिल नेता भी इसे चटकारे मार कर देख रहे हैं और खंड-खंड जनादेश देने वाली जनता भी सोच रही है कि यह हमने आखिर क्या किया। पिछले एक महीने में कई बार एेसे मौके आए जब लगा कि अब इसका पटाक्षेप हो जाएगा पर फिर वही ढाक के तीन पात। जहां से चले थे वही रह गए।
बात शुरुआत से करें तो पता नहीं क्या ग्रह नक्षत्र हैं जो यहां स्थायित्व नहीं आने दे रहे। राज्य को राजनीतिक ग्रहण लगा हुआ है। राज्य बने हुए एक दशक हो गया लेकिन कुर्सी के खेल के अलावा राज्य ने इस दौरान और कुछ देखा हो मुझे याद नहीं पड़ता। विकास की जिस अवधारणा के साथ राज्य का गठन हुआ वह कहां गई किसी को पता भी नहीं। ज्यादा पीछे और गहराई में न जाएं तो भी दिखता है कि राज्य में नक्सलवाद की समस्या मुंह बाए खड़ी है लेकिन नेताओं को सत्ता की कुर्सी के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता। चाहे वह अपने आप को अलग कहने वाली भाजपा हो या सबसे पुरानी पार्टी का तमगा रखने वाली कांगे्रस यहां सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। महान झारखंड मुक्ति मोर्चा की बात ही क्या है। पार्टी और उसके मुखिया के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के समान होगा।
अब बात यह कि आखिर इस मर्ज की दवा क्या है। एेसी स्थिति में अगर सरकार बनती भी है तो क्या वह स्थायित्व दे पाएगी। क्या वह मजबूत सरकार होगी। क्या विपक्ष अपनी बात प्रखरता से रख पाएगा। अगर विपक्ष कमजोर हुआ तो इससे मजबूत तानाशाह का ही जन्म होगा। और मान लीजिए कि फिर से चुनाव की नौबत आई तो क्या होगा। नेता तो मैदान में उतर जाएंगे। उनके पास धन भी है और बल भी। पर इस कवायद में जो खर्चा आएगा उसकी चोट किस पर होगी। आम आदमी पर ही ना। एक बात और इस ब्लॉग के माध्यम से, कि अगर इस बार चुनाव हो तो आप कृपया इस तरह का जनादेश मत दीजिएगा। यह सही है कि आपको खराब में कम खराब कौन इसका चुनाव करना पड़ता है पर फिर भी आप अपने स्तर पर कुछ एेसा जरूर करिए जो इस तरह की नौबत फिर न आए। तकरीबन सौ साल पहले १९०० में सबसे पहले राज्य गठन की मांग की गई। तब से २००० तक विभिन्न स्तरों पर आंदोलन हुए। इस दौरान राज्य ने क्या कुछ नहीं देखा और कुछ रह गया था जो अब देखना बाकी है।

काइट्स

क्या आप कोई एक एेसा कारण बता सकते हैं जिसकी वजह से आप काइट्स देखने जाना चाहते हैं। हां, आपको बता दूं कि रितिक रोशन और बारबरा मोरी के बीच फिल्माए गए कुछ अंतरंग दृश्य सिर्फ अंतरराष्ट्रीय दर्शकों को ही देखने को मिलेंगे। क्योंकि उन दृश्यों को केवल अंतरराष्ट्रीय संस्करण में ही रखा गया है। इसके बाद भी क्या आप देसी संस्करण देखना चाहते हैं। अगर हां तो क्यों।

सोमवार, मई 03, 2010

अजमल आमिर कसाब


अजमल आमिर कसाब। है तो एक आतंकी का नाम लेकिन आज उसे बच्चा बच्चा जानता है। बचपन में सुना था कि या तो बहुत अच्छे बन जाओ या फिर बहुत बुरे। जो बहुत अच्छा काम करते हैं या तो वे याद रखे जाते हैं या फिर दो दुष्टता की हद पार कर जाते हैं वे जाने जाते हैं। बाकी बीच के लोगों को कोई नहीं जानता। आज वह बात सही सी लग रही है। कसाब को बच्चा बच्चा इसलिए जानता है कि उसे जघन्यता की सारी हदें पार कर दीं। बहुत संभव है कि इसमें मीडिया का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। अखबारों और टीवी में उसकी खबरें खूब प्रमुखता से छापी और दिखाई गईं। और जब लगातार तीन दिन तक मुंम्बई पर आतंकी साया रहा तब तो लाइव दिखाया गया। लगातार लाइव। अब २४ घंटे में कोई समय तो एेसा आएगा ही जब बच्चा टीवी देखेगा कि कभी नहीं देखेगा। खैर यह मुद्दा नहीं है। मूल बात कुछ और ही है।
वही हुआ जिसकी उम्मीद थी और जो होना चाहिए था। अजमल आमिर कसाब को अदालत ने दोषी करार दे दिया है। यानी उसके ऊपर जो आरोप लगे वे सही हैं। अब बहस होगी कि उसे सजा क्या दी जाए। इस पर तरह तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। कोई कह रहा है कि उसे मौत की सजा दे कम कुछ नहीं मिलना चाहिए। कोई कह रहा है कि मौत की सजा से क्या होगा। उसे जिन्दा रख कर ऐसी सजा दी जाए जो वह याद रखे। अजमल तो खुद ही चाहता है कि उसे मार दिया जाए। कुछ लोगों को मत इससे हटकर है। उनका कहना है कि यह सब सजाएं तो किसी को भी मिल ही जाती हैं। पहले से चली आ रही हैं यानी परम्परागत सजाएं हैं। अजमल भारत के ऊपर अब तक के इतिहास में हुए सबसे बड़े हमले का आरोपी है। उसने 166 भारतीयों क जान ली है। इन 166 लोगों में विजय सालस्कर,हेमंत करकरे और अशोक काम्टे जैसे भारत के सपूतों को मार डाला हो। उसे कोई परम्परागत सजा कैसे मिल सकती है। इस जघन्य अपराध के लिए तो कोई नई सजा बनानी चाहिए, जिसे देख कर कोई भी कांप जाए और आतंक फैलाने वालों और उनका साथ देने वाले अपना काम करने से पहले सौ बार सोचें। अदालत को इसके लिए कुछ खास कदम उठाने चाहिए। उसी पिटी पिटाई लकीर पर चलकर कुछ नहीं होगा। इस तरह की परम्परागत सजा कितनों को मिली। कितनों को उम्रकैद दी गई और कितनों को फांसी की सजा दी गई। उससे क्या हुआ।
इन्हीं सब बातों के बीच एक सवाल मेरे जहन में भी कौंधा। सवाल यह कि अदालत ने अगर कसाब को दोषी माना है तो बहुत हद तक संभव है कि उसे उम्रकैद तो न ही हो। हो सकता है उसे फांसी की सजा दे दी जाए। लेकिन असल सवाल सही है कि क्या उसे फांसी पर लटकाया जा सकेगा। क्या अब तक आतंक फैलाने वालों को अदालत से फांसी की सजा दी गई उन्हें लटका दिया गया। क्या अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। यही भारतीय लोकतंत्र की कहें या किसी भी कहें विडम्बना है। वे सब अभी जिंदा हैं और शान से रह रहे हैं। यही नहीं जिस देश के खिलाफ उन्होंने षड्यंत्र रचा जिस देश के लोगों को उन्होंने माना उसी देश के लोगों की मेहनत की रोटी वे खा रहे हैं। उनके लिए सुरक्षाकर्मी भी तैनात किए गए हैं। बस यही सवाल मुझे परेशान कर रहा है। मैं खुद यह समझ नहीं पा रहा हूं कि अजमल आमिर कसाब को क्या सजा मिलनी चाहिए। क्या उसे मौत दे देनी चाहिए या फिर जिंदा रखकर ऐसा सबक सिखाना चाहिए जो दूसरों के लिए नजीर बने। कुछ भी हो लेकिन मेरा खुद का मानना भी यही है कि कुछ तो खास इस बार होना चाहिए। हालांकि, इस बात पर संतोष जाहिर किया जा सकता है कि यह केस मात्र ५२१ दिन में ही पूरा हो गया और उसे दोषी करार दिया गया। शायद यही कारण है कि लोगों में न्यायपालिका के प्रति थोड़ा बहुत सम्मान अभी बचा है। अगर सजा का निर्धारण भी जल्द कर लिया जाए और उसका क्रियान्वयन भी ध्रुत गति से हो तो शायद लोगों के मन में यह आए कि चलो कोई हो या न हो लेकिन न्यायपालिका अभी जिंदा है और उस पर भरोसा किया जा सकता है।
हालांकि, इस आपाधापी के जीवन में बहुत कम लोग एेसे होते हैं जो ब्लॉग के लेख को पूरा पढ़ते हैं। कुछ लोग चार लाइनें पढ़कर आगे बढ़ जाते हैं। यह जरूरी नहीं कि जो टिप्पणी कर रहा है उसने पूरी पोस्ट पढ़ी ही हो। फिर भी मेरा फर्ज है इसलिए लिख रहा हूं कि अगर आपने पूरी पोस्ट पढ़ी है और टिप्पणी करने का मन कर रहा है तो कृपया कम से कम इस पोस्ट पर चलताऊ टिप्पणी न करें। अगर हो सके तो यह बताएं कि अजमल आमिर कसाब को क्या सजा दी जा सकती है। क्या हो सकता है। हालांकि यह बहुत छोटा मंच है। यहां लिखने से कोई खास फर्क पडऩे वाला नहीं है। जो न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं वह इस ब्लॉग को नहीं पढ़ेंगे और मैं कहता हूं पढ़ भी लें तो आपके कहने से सजा का निर्धारण नहीं करेंगे। लेकिन फिर भी यह मामला चुंकि बहुत संवेदनशील है इसलिए उतनी ही संवेदनशीलता से ही टिप्पणी कीजिएगा। कुछ समझ में न आए तो कुछ मत कीजिएगा पर फिर वही बात कहूंगा कि चलताऊ टिप्पणी कृपया इस पोस्ट पर न करें।

गुरुवार, अप्रैल 29, 2010

खेल क्रिकेट का



क्रिकेट का एक और संग्राम शुरू होने वाला है। मैं यहां महासंग्राम इसलिए नहीं लिख रहा क्योंकि अक्सर अखबार के पेजों के ऊपर जो लोगो लगाए जाते हैं, उनमें क्रिकेट का महासंग्राम ही लिखा होता है। चुनाव हों तो भी महासंग्राम और क्रिकेट हो तो भी महासंग्राम एेसा लगता है जैसे संग्राम तो कोई शब्द रह ही नहीं गया है जो है सो महासंग्राम ही है। जैसे कार्रवाई कोई शब्द नहीं रह गया जब तक उसमें सख्त और कड़ी न जुड़े बात बनती ही नहीं।
खैर, पूरा देश एक बार फिर क्रिकेट के खुमार में डुबने वाला है। विश्व इसलिए नहीं लिखा क्योंकि कुछ सीमित देश ही इसमें शिरकत करते हैं। अगर बात फुटबाल की होती तो शायद विश्व शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता था।
अब बात मुद्दे की बात। इस ब्लॉग पर मुद्दत के बाद। आईपीएल जिस खुशनुमा माहौल में शुरू हुआ उतने ही तनाव भरे माहौल में इसका समापन हुआ। अब ट्वेंटी-ट्वेंटी जितनी मुश्किल दौर में शुरू हो रहा है उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके विपरीत यह खुशनुमा माहौल में समाप्त हो। टूर्नामेंट अभी शुरू भी नहीं हुआ कि लोगों ने इसके विजेता को लेकर भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। कोई भारत को विजेता बना रहा है तो कोई पाकिस्तान को। जितने लोग उतने विजेता। ये वे लोग हैं जो जानते हैं कि क्रिकेट में भविष्यवाणी करना खतरे से खाली नहीं होता लेकिन आदत से मजबूर जो हैं। एक मैच की भविष्यवाणी भी खतरनाक होती है तो फिर प्रतियोगिता शुरू होने से पहले उसके विजेता के बारे में कयास कैसे लगाए जा सकते हैं। समझना मुश्किल है। शायद भविष्यवाणी करने वाले अपनी विद्वता भी दिखाना चाहते हैं। सबकी अपनी अपनी दुकान अपना अपना काम। दुकान भी तो चलानी है न भाई। सब जानते हैं कि क्रिकेट में वही टीम जीतती है मैच के दिन अच्छा खेलती है। तो मेरा मानना है कि जो टीम लगातार अच्छा खेलेगी वही विजेता बनेगी। वो कोई भी हो सकता है।
खेल बस शुरू ही होने वाला है। इसलिए मैं भी ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। हालांकि समय समय पर यहां अपनी बात जरूर रखता रहूंगा। आपसे गुजारिश है कि बात अच्छी लगे तो भी और खराब लगे तो भी अपनी टिप्पणी अवश्य करें। बाकी आपकी मर्जी।

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