रविवार, फ़रवरी 28, 2010

उदभावना के पाठकों के लिए खास

उदभावना के सभी पाठकों को मेरी ओर से होली की हार्दिक शुभकामनाएं। आप भी यहां टिप्पणी कर मुझे बधाई दे सकते हैं। इस बार की होली मैं चंडीगढ में मना रहा हूं। पिछले साल जलंधर में था। होली पर एक आलेख लिखने का मन है लेकिन समय के अभाव के कारण फिलहाल ऐसा नहीं कर पा रहा हूं। दरअसल हरियाणा, पंजाब और चंडीगढ में कुछ विवाद के कारण काम कुछ ज्यादा है इसलिए व्यस्ता है। लिखना सचिन तेंदुलकर पर भी है लेकिन बात वही। व्यस्तता। जब सचिन पर लिखने का मन हुआ तो रेल और आम बजट की वजह से ऐसा नहीं कर सका।पर इतना जरूर कहूंगा कि जल्द ही ऐसा करूंगा।एक बार फिर होली की बधाई।

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

ढाई आखर प्रेम के

क्या आप क्लाडियस को जानते हैं। शायद नहीं। क्लाडियस रोम के राजा थे। उनका मानना था कि ताकत और परिश्रम के लिए ब्रहमचर्य अति आवश्यक है। उनकी सेना के लडाके कुंआरे थे। लेकिन एक शख्स ने उनसे लोहा लेने की ठानी। वे थे संत वेलेंटाइन। उन्होंने सेना के कई लडाकों की गुपचुप तरीके से शादी करा दी। एक न एक दिन तो भेद खुलना ही था। खुला और उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।
सवाल यह है कि लोग किसे जानते और मानते हैं। क्लाडिसय को या वेलेंटाइन को। जाहिर तौर पर वेलेंटाइन को। क्यों। शायद इसलिए कि उन्होंने प्रेम और सत्य को जीने की कोशिश की। तो क्या प्रेम और सत्य के अनुयायियों का यही हश्र होता है। लेकिन एक तथ्य और सत्य है कि ऐसे ही लोग इतिहास लिखते हैं। इतिहास ऐसे ही लोगों को अपने में समां जाने की अनुमित देता है। पोप ने पांचवी शताब्दी में उनकी जयंती माननी शुरू की और यह समूची दुनिया की धडकन बन गई।
अब दूसरी बात। कहा जाता है कि लैला खूबसूरत नहीं थी। लेकिन सब जानते हैं कि मजनू ने प्रेम के प्रतिमान स्थापित किये। देह तो उसका जरिया भर बनी। एक सप्ताह पहले ही वेलेंटाइन डे को लेकर उथल पुथल शुरू हो जाती है। अधकचरे किशोरों से लेकर प्रौढ तक को नाईयों के आधुनिक रूप ब्यूटी पार्लरों में भारी भीड देखी जा रही है। सभी अपने चेहरे पर तरह तरह के लेप और रसायन लपेटे हैं। किस लिए। इसलिए ताकि खूबसूरत दिखें। तो क्या खूबसूरती और प्रेम में कोई संबंध है। खूबसूरती प्रेम है या प्रेम खूबसूरत है। क्या कम खूबसूरत को प्रेम का अधिकार नहीं। प्रेम खूबसूरतों की बपौती है।
एक और बात। शुरू से सुनता आ रहा हूं कि प्रेम न बाडी ऊपजै, प्रेम ने हाट बिकाय। लेकिन अब प्रेम पर बाजार हावी होता जा रहा है। प्रेम को प्रदर्शित करने वाली हर वस्तु बाजार में उपलब्ध है। अब सवाल यह है कि क्या प्यार अपनी निजता खोता जा रहा है। जो भाव दिल में उपजने चाहिए उसके लिए किसी बाजारू चीज का सहारा। जो चीज निज नहीं है तो वह सार्वजनिक है और मोहब्बत सार्वजनिक कैसे। बाजार में फूल से लेकर चाकलेट वाले और न जाने किस किस ने प्रेम को प्रदर्शित करने का ठेका ले लिया है। इसके लिए ढेर सारे आफर भी हैं। आओ और प्रेम ले जाओ।
दरअसल प्रेम भारत में ही नहीं समूचे संसार में हमेशा से ही एक अति वैयक्तिक विषय माना जाता रहा है। शायद यही कारण है कि प्रेम की जन्म और मत्यु की तरह अब तक कोई सर्वमान्य व्याख्या नहीं हो सकी। जीवन में ये तीन शब्द हमेशा नये अर्थ और अंदाज में हमारे सामने आते ही रहते हैं। जिसने भी इनसे खिलवाड करने की कोशिश की यकीनी तौर पर सजा भुगतनी पडी। इसके विपरीत जिसने भी इसकी पवित्रता को बनाए रखा उसे इतिहास ने पन्नों में दर्ज होने की अनुमित दी।
कबीर भी कहते हैं कि पोथी पढ पढ जग भया पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम के पढै सो पंडित होय। रविववार को वेलेंटाइन डे है। यानी छुटटी का दिन। यही उम्मीद और आशा है कि कोई अनहोनी नहीं घटेगी और प्यार को प्यार ही रहने दिया जाएगा। कोई इसे कोई नाम देने की कोशिश नहीं करेगा।

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

...ताकि न बने दूसरा अमर सिंह






सबसे पहले तो मैं ये बता दूं कि मैं राजनीति पर नहीं लिखता। इसके कई कारण हैं पर यहां कुछ एक का जिक्र कर दूं ताकि स्पष्ट हो जाए। पहली बात तो ये कि मैं जहां का निवासी हूं यानी उत्तर प्रदेश का वहां का एक बच्चा भी राजनीति और कि्रकेट पर राय दे सकता है। यहां राजनीति और कि्रकेट पर सबका अपना अपना दर्शन होता है। दूसरी बात ये कि देश में इस समय अगर किसी विषय के सबसे ज्यादा विश्लेशक हैं तो राजनीति और कि्रकेट के। मैं खुद को इन सब के सामने अपने आप को बहुत कमतर समझता हूं लिहाजा इस पर कुछ न लिखूं वहीं ठीक होगा।
अमर सिंह पर मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं उन्हें राजनेता नहीं नौटंकीबाज मानता हूं। वे नौटंकीबाजों के साथ गलबहियां करते हुए दिखते भी ज्यादा है। अमर सिंह ने नौटंकीबाज के अलावा अगर अमर सिंह कुछ हैं तो व्यापारी हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि किससे नजदीकी होने पर भविष्य में क्या लाभ होगा उसी के मुताबिक योजना बनाते हैं। खास बात जब अमिताभ का मुंम्बई का बंगला प्रतीक्षा नीलाम होने की कगार पर था तब अमर सिंह ने अमिताभ से दोस्ती का हाथ बढाया। अमिताभ मरता क्या न करता वाली हालत में थे। दोस्ती स्वीकार कर ली। अब जीवन भर उनकी डुगडुगी बजाते रहेंगे। कल को हो सकता है अभिषेक या एश्वर्या राय कहीं से चुनाव लडते दिखें। पहले तो वे किसी दल में महासचिव भी थे अब तो ऐसा नहीं रहा तो भला मैं अमर सिंह पर लिखकर राजनीति पर कहां लिख रहा हूं।
खैर अब विषय पर। जैसी कि हेडिंग है कि ताकि फिर कोई अमर सिंह न बने। मेरे कहने का मतलब इतना ही है कि जब आप किसी दल में हो और ठीक ठाक पोजीशन हो तो कभी भी अपनी हद पार नहीं करनी चाहिए। अमर ने सपा के कई दिग्गज नेताओं पर निशाना साधा और उन्हें नेपथ्य में डाल दिया। अमर ने बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खान और राजबब्बर सरीखे नेताओं पर जमकर प्रहार किये और सफल भी रहे। लेकिन इस बीच अमर भूल गए कि अब वे किस पर निशाना साध रहे हैं दरअसल विदवानों के विदवान अमर ने एक गलती कर दी और वह यह कि उन्होंने इस बात गलत निशाना साध लिया। उनका निशाना बने राम गोपाल यादव। यादव से ही जाहिर है वह मुलायम सिंह के रिश्तेदार होंगे। जी हैं भी। यह बात नेताजी मुलायम सिंह यादव को रास नहीं आई और उसी का परिणाम आज सबके सामने है। अमर सपा में दूसरे नम्बर पर पहुंच गए थे। हकीकत में तो कभी कभी वे नम्बर एक भी दिखते थे। दल के मालिक भले मुलायम हों पर अमर जो चाहते थे करवा लेते थे। लेकिन जरा सी भूल उन्हें भारी पड रही है। अमर सिंह को पता होना चाहिए कि बाप का उत्तराधिकारी बेटा ही बनता है। किसी भी क्षेत्रीय दल को देख लीजिए उसका मुखिया या तो संस्थापक होगा या फिर संस्थापक का बेटा।
बहुत छोटी पोस्ट में कहने का मतलब यही है कि अगर आप किसी दल में ठीक ठाक पोजीशन में हैं तो चुपचाप अपना काम करते रहें। कभी भी दल का मालिक बनने की कोशिश न करें। नहीं तो दूसरा अमर सिंह बनते देर नहीं लगेगी। इसीलिए कहता हूं ताकि न बने दूसरा अमर सिंह।

मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

यह रहमान का सर्वश्रेष्ठ है क्या


बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा आठ में पढता था। एक गाना आया था मुक्काला, मुकाबला ओ लैला...ण क्या था इन गाने में नहीं जानता। सच कहूं तो तब तक संगीत क्या होता है इस बारे में भी कुछ नहीं जानता था। पता तो ये भी नहीं था कि इसका संगीत किसने दिया है, पर गाने को सुनकर झूम उठता था।
उन दिनों घर में डेक थी। कुछ कैसेट थे। पुरानी फिल्मों के। नया कैसेट उस समय पचीस से तीस रुपये तक आता था। घर से पैसे मिलते नहीं थे। सो हमसे है मुकाबला का नया कैसेट ले पाना कठिन था। उन दिनों कैसेट में डबिंग का खूब चलन था। किसी पुराने कैसेट में नये गाने डब करा लीजिए और जी भर के सुनिये। जिन गानों को खतम कराना है उनका चुनाव भी कठिन ही होता था। लेकिन फिर भी अब मुकाबला सुनना है तो किसी गाने को तो कुरबानी देनी ही पडेगी। एक गाने का चयन किया और उसकी जगह मुकाबला डब करावा लिया। दुकान वाले ने मुकाबला तो डब किया ही साथ ही उर्वशी उर्वशी करने एक और गाना भर दिया। घर लेकर आया तो दोनों गाने सुने। अब यह तय कर पाना दुश्कर हो गया कि जो गाना मैनें अपने मन से डब कराया है वह ज्यादा अच्छा है या फिर जो दुकान वाले ने खुद कर दिया वह। दोनों गाने इतने सुने की कैसेट की रील खराब हो गई पर उन गानों को सुनकर दिल नहीं भरा। लगातार वही गाने गुनगुनाने पर कई बार घर में डांट भी खानी पडी पर उसकी परवाह किसे थी। गाना अच्छा है तो गुनगुनाओ बस।
एक और वाकया। लखनऊ में था। इंटर की कोचिंग के लिए चारबाग के पानदरीबा में जाया करता था। उन दिनों सत्र समाप्त होने पर स्लेम बुक भरवाने का बडा चलन था। कई की स्लेम बुक मैने भरी तो मुझे भी लगा कि मैं भी बिछड रहे साथियों की कोई निशानी अपने पास रख लूं। तो साहब मैनें भी स्लेम बुक भरवानी शुरू कर दी। उसमें एक कालम होता था आपका पसंदीदा गाना। यकीन मानिये जितने लोगों ने उसे भरा उसमें करीब अस्सी फीसदी ने उस कालम में इश्क बिना क्या जीना यारों, इश्क बिना क्या मरना भरा था। उस समय तक संगीत के बारे में कुछ कुछ जानकारी होने लगी थी और ये जानता था कि इस गाने को संगीत से किसने संवारा है। मैंने भी ताल फिल्म का कैसेट लेकर सुनना शुरू किया तो फिर एक समस्या। यह तय करना कठिन हो गया कि कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है। इश्क बिना, नहीं सामने, कहीं आग लगे, ताल से ताल या फिर कोई और।
लखनऊ में ही था और दोस्तों को एआर रहमान के प्रति मेरी दीवानगी का अहसास हो चुका था। एक दिन बातों की बातों में एक दोस्त ने पूछ लिया कि अब तक रहमान ने जितनी फिल्मों में संगीत दिया है उनमें से सबसे अच्छा संगीत कौन सी फिल्म का है। अब मेरे जेहन में उन समय तक कि कई फिल्मों के गाने कौंधने लगे। रोजा, बाम्बे, रंगीला, हिन्दुस्तानी, तक्षक, वन टू का फोर, जुबैदा, साथिया, दिलसे, दौड, कभी न कभी, जीन्स, डोली सजा के रखना, पुकार, नायक, मीनाक्षी और भी न जाने कौन कौन सी। उस समय बात को टाल गया। कुछ दिन बाद फिर वही सवाल उठाया गया तो मैं कोई जवाब नहीं दे सका। जवाब इसलिए नहीं दे सका क्योंकि मेरे लिए यह तय कर पाना मुशिकल ही नहीं बलि्क असंभव सा है कि रहमान का कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है और कौन सा कम।
रहमान को जब पिछले साल जय हो के लिए आस्कर मिला तो इस बात की खुशी तो हुई की रहमान को आस्कर मिला है पर इससे ज्यादा खुशी इस बात की हुई कि रहमान मेरी पसंद है। आपकी पसंद पर जब सर्वश्रेष्ठ का ठप्पा लग जाता है तो शायद ऐसा ही होता है। कल जब रहमान को उसी गीत जय हो के लिए ग्रेमी अवार्ड मिला तो एक बार फिर यह सोचने पर विवश हुआ कि क्या जय हो रहमान की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अब तक रहमान ने जो रचा क्या वह इस लायक नहीं था कि उन्हें इतना सम्मान मिल पाता।
रोजा जानेमन, भारत हमको जान से प्यारा, रंगीला ले, तन्हा तन्हा यहां पर जीना, लटका दिखा दिया हमने, मुकाबला, मोरासाका मोराईया, ताल से ताल,छैंया छैंया, मोहे रंग दे बसंती, कभी न कभी तो आएगा वो, खोया खोया रहता है, कहता है मेरा खुदा, के सरा सरा,भनाभन दौड, राधा कैसे न जले, ओ युवा युवा, तेरे बिन, अजीमो शान शहांशाह, जाने तू या जाने न, कैसे मुझे तुम मिल गए, मसक्कली मटक्कली आदि इत्यादि में कौन ज्याद अच्छा है कौन कम तय कर पाना मेरे लिए अब भी असंभव है और हमेशा रहेगा। दरअसल मैं चाहता भी हूं कि यह असंभव रहे। जब लोग कहते है कि वाह रे रहमान और वार रे उनके चाहने वाले तो जो पुलक रोमांच होता है उसका बयान कर पाना संभव नहीं।

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