रविवार, नवंबर 28, 2010

बस! बहुत हो गया क्रिकेट क्रिकेट

राष्ट्रमंडल खेलों के बाद अब एशियाड भी समाप्त हो गया। भारत को इस बार छठा स्थान प्राप्त हुआ। इस बार भी कई ऐसे खिलाडिय़ों ने भारत को गौरवांवित कराया, जिन्हें देश तो क्या उनके मोहल्ले के लोग ही नहीं जानते थे। अब साबित हो गया है कि राष्ट्रमंडल खेलों में मिली सफलता कोई तुक्का नहीं थी और न ही यह इसलिए मिली कि खिलाड़ी अपनी जमीन पर खेल रहे थे। कुल मिलाकर उन्होंने कड़ी मेहनत की और अच्छा प्रदर्शन किया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें सफलता मिली।

राष्टमंडल खेलों की समाप्ति पर कई विशेषज्ञ इस बात पर चिंता जाहिर कर रहे थे कि क्या इतनी जल्दी हमारे खिलाड़ी फिर से अपने आप को तैयार करके वैसा ही प्रदर्शन दोहरा पाएंगे जैसा उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स में किया। खिलाडिय़ों ने हाल के दिनों में अपने आप को मिले दो मौकों पर साबित कर दिया है और आगे भी अगर मौका मिलेगा तो वे किसी से पीछे नहीं रहेंगे और साबित कर देंगे। अब सरकार की बारी है कि वह इन नये सितारों को दिश दे जिससे यह और ऊंचाईयों को छू सकें।

मुझे लगता है अब क्रिकेट क्रिकेट का शोर बंद होना चाहिए। क्रिकेट के अलावा और भी खेल हैं। खास बात यह है कि ये खेल क्रिकेट जितना समय भी नहीं लेते और खिलाड़ी जीतकर भी दिखाते हैं। अब क्रिकेट के लिए पूरा दिन बर्बाद करने से कोई लाभ नहीं। हमें चीन की ओर देखना चाहिए, जो दो सौ स्वर्ण जीतने के करीब था। वह क्रिकेट नहीं खेलता। हम क्रिकेट में विश्व विजेता रहे लेकिन अन्य खेलों में कुछ नहीं कर पाए। अब जबकि नई पीढ़ी क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में रुचि ले रही है तो हमें उनका उत्साहवद्र्धन करना चाहिए। अगले कुछ समय में जनसंख्या के मामले में हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। क्या यही एक क्षेत्र है जिसमें हम चीन को पछाड़ सकते हैं। हमारे युवा खिलाडिय़ों ने साबित कर दिया है कि बिना किसी खास टे्रनिंग के भी वे पदक जीत सकते हैं अगर उन्हें थोड़ा सा संबल मिल जाए तो वे और भी कमाल कर सकते हैं। हालांकि, हम लोग दिल्ली और दोहा को पीछे छोड़कर खुश हैं पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी तो यह आगाज है अब भारत सबकी निगाहों में आ गया है और अब असल परीक्षा शुरू होगी। शिखर पर पहुंचना आसान है लेकिन उसे कायम रखना मुश्किल होता है। अब यही मुश्किल काम हमें करना होगा।

मीडिया को भी इसमें अहम रोल अदा करना है। राष्ट्रमंडल खेल चूंकि दिल्ली में ही हो रहे थे, सो पदक जीतते ही मीडिया उन्हें अपने स्टूडियो में बुला रहा था। एक बारगी तो ऐसा लगा कि हर चैनल में होड़ सी है कि कौन सा चैनल पहले विजेताओं से बात करे। अब जबकि एशियन गेम्स के चैम्पियन आएंगे तो उनका स्वागत कैसे होता है। कौन चैनल विजेता के घर तक की स्थिति का जायजा लेता है। यह देखना होगा।

अक्सर क्रिकेट के अलावा किसी खेल में जीत के बाद कुछ देर तो हम उसे याद रखते हैं और फिर देखने लगते हैं क्रिकेट। अब इसमें बदलाव आना चाहिए। 1983 का विश्वकप जीतने के बाद देश में क्रिकेट क्रांति आई थी। हर बच्चा क्रिकेटर बनना चाहता था। उसी का परिणाम है कि आज क्रिकेट में हम नम्बर वन हैं। अब जबकि जिमनास्टिक में भी देश का नाम रोशन हो चुका है तो बच्चों और युवाओं के साथ-साथ उनके अभिभावकों को भी सोचना चाहिए कि उनका बच्चा क्रिकेट में 13 खिलाड़ी बन कर रहे या रेस में सबसे आगे आए। अब उन क्रिकेटरों से दूरी जरूरी है जो आराम करने के लिए समय तब मांगते हैं जब न्यूजीलैंड जैसी टीम हमारे घर में ही खेल रही है। उन्हें तब आराम की दरकार नहीं होती जब आईपीएल चल रहा होता है। आईपीएल में आराम न करने की वजह सब जानते हैं। अगर कोई क्रिकेटर वाकई देश के लिए खेलता है तो फिर आईपीएल से आराम ले ना कि किसी एक दिवसीय या टेस्ट शृंखला में। यह बदलाव का दौर है और मुझे यकीन है कि बदलाव खेल में भी आएगा...

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

यह संक्रमण काल है!

बहुत मुश्किल है। समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूं। इधर कई बार कुछ लिखने की कोशिश की लेकिन जब तक एक विषय पर लिखने का मन बनाया तब तक कोई दूसरी घटना हो जाती, जो पहली से बड़ी लगती। जब तक उस पर सोचा तब तक उससे बड़ी बात हो जाती। यही करते-करते एक माह से अधिक बीत गया। अब लगने लगा है कि जिस तरह खबरों का सिलसिला लगातार जारी रहता है और एंकर बाद में कह जाता है कि आप देखते रहिए उसी तरह आप देश को और उसकी हालात को देखते रहिए। आपके टीवी बंद कर देने से यह क्रम टूटेगा नहीं।
इस देश की क्या हालत हो गई है। किस पर भरोसा करूं। देश भ्रष्टाचार में आकंठ डूब चुका है। अभी बहुत समय नहीं बीता जब राजनीति बहुत नेक पेशा माना जाता था। बल्कि इसे तो पेशा माना ही नहीं जाता था। यह तो समाज सेवा का एक माध्यम था। इसमें भी बहुत समय नहीं बीता जब हर तरह के भ्रष्टाचार में, घपलों में, घोटालों में किसी न किसी नेता की ही संलिप्तता पाई जाने लगी। इसके बाद नेता का मतलब बहुत ही तुच्छ व्यक्ति हो गया। लोग नेता शब्द से ही घृणा करने लगे। जब भी किसी बड़ी परीक्षा के परिणाम आते और उनमें विजयी हुए प्रतिभागियों से पूछा जाता, तो वे सब कुछ बनना चाहते हैं, लेकिन नेता नहीं। नेता शब्द कितना बदनाम हो चुका है इस उदाहरण से यह आसानी से समझा जा सकता है। अब सवाल यह है कि किस-किस से घृणा कीजिएगा, क्या-क्या नहीं बनिएगा। सब तो एक ही जैसे हैं। जीवन में कुछ करना है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा।
गौर करें तो पाएंगे कि बोफोर्स को छोड़ दें तो मुझे याद नहीं पड़ता कि इतने बड़े घोटाले में किसी प्रधानमंत्री का नाम सामने आया हो। मंत्री ही अपने स्तर पर इससे निपट लेते थे। लेकिन, अब एक बार फिर प्रधानमंत्री जैसा पद दागदार हो गया है। भले वे पाक साफ हों पर उनकी साफ सुथरी पोशाक पर 'कीचड़Ó के छीटे तो पड़ ही गए हैं। बाद में क्या होता है। यह बाद की बात है। अभी तक चाल, चरित्र और चेहरे की दुहाई देने वाले भाजपाई हालांकि समय समय पर अपना असली चेहरा उजागर करते आए हैं, लेकिन जब आप किसी पर अंगुली उठा रहे हो कम से कम उस समय तो आप पर कोई ऐसा आरोप न लगे, जिसके लिए आप दूसरे को घेर रहे हों। भाजपा कुछ-कुछ उसी तरह के घोटाले के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस को घेर रही थी, जैसा उनके मुख्यमंत्री ने कर्नाटक में कथित रूप से किया है। बड़ी हैरानी होती है।
अगर यह ढूंढऩे निकला जाए कि कौन से पेशे से जुड़ा व्यक्ति सही है तो मुझे नहीं लगता कि आपको किसी पेशे से जुड़ा व्यक्ति मिल पाएगा। हालांकि, यह बात सही है कि किसी एक व्यक्ति के भ्रष्ट हो जाने से कोई पेशा कलंकित नहीं हो जाता। लेकिन, कहीं न कहीं यह तो लगता ही है कि इस पेशे से जुड़ा व्यक्ति गलत काम में संलिप्त है। हमारी भारतीय संस्कृति में बाबा को बहुत मान और सम्मान दिया जाता है। दरअसल उन्हें भगवान का ही दूसरा रूप माना जाता है। लेकिन, बड़े-बड़े और नामी बाबाओं ने कैसे हमारी भक्ति और उम्मीदों पर तुषारापात किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। मैं यहां किसी बाबा का नाम नहीं लूंगा। क्योंकि, एक तो इससे उनके भक्तों को आघात लगेगा और दूसरा यह सूची बहुत लम्बी हो जाएगी। हमारे देश की पुलिस तो रिश्वत लेने , फर्जी एनकाउंटर करने और अन्य कई तरहों की हरकतों के कारण बहुत बदनाम हो चुकी है, लेकिन सेना को तो बहुत पूज्य माना जाता है। उन्हें हम अपना रक्षक मानते हैं। लेकिन, जब उन्हीं रक्षकों का सेनापति ही किसी भ्रष्टाचार में संलिप्त पाया जाता है तो क्या कह कर अपने मन को समझाइएगा। बात किस सेना प्रमुख की हो रही है और उन महाशय ने क्या किया है, मुझे नहीं लगता कि यह बताने और समझाने की जरूरत है।
बहुत दिनों तक यह मानता रहा कि कम से कम कोई पत्रकार किसी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं पाया जाता। इसके कई कारण रहे। एक तो यह कि उसके ऊपर पहले से ही समाज के समाने सबकी कलई खोलने की जिम्मेदारी होती है वही अगर कुछ गलत करेगा तो किस मुंह से किसी को गलत कहेगा। मैं खुद इस पेशे में आया इसका अन्य कारणों के साथ-साथ शायद एक बड़ा कारण यह भी था। लेकिन, अभी हाल ही में देश के दो पत्रकारों ने कथित रूप से दलाली में शामिल होकर मेरी इस धारणा को भी चूर-चूर कर दिया। बड़ी बात यह रही कि ये दो वे नाम हैं, जिनका नाम बहुत सलीके और सम्मान के साथ लिया जाता है। बहुत से युवा पत्रकार उनसे मिलने, बात करने और उनके जैसा बनने का ही सपना संजाते रहते हैं। लेकिन, मुझे नहीं लगता कि अब कोई भी उनके जैसा बनने की सोचेगा भी। कम से कम जब तक वे पाक-साफ नहीं हो जाते तब तक तो कतई नहीं।
हालांकि, अंत में यह कह देना भी जरूरी है कि मैं बहुत आशवादी व्यक्ति हूं और यह मानता हूं कि परिवर्तन ही संसार का नियम है और जो आज है वह कल नहीं रहेगा। यह भी बदल जाएगा।

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