मंगलवार, जुलाई 04, 2017

क्यों लिखे, पढ़े और बनाए जा रहे ब्लाग

क्यों लिखे, पढ़े और बनाए जा रहे ब्लाग
‘ब्लाग’। शब्द, बहुत पुरान नहीं तो नवीन भी नहीं। एक दौर था, जब यह खूब लिखा और पढ़ा जाता था। यह फेसबुक के आने का शुरुआती वक्त हुआ करता था। हां, वाट्सअप तो था ही नहीं और ट्विटर की चिड़िया कुछ खास लोगों तक ही समिति हुआ करती थी। बहुत बने, बहुत सजे और बहुत पढ़े भी गए, ब्लाग। लेकिन फिर धीरे धीरे कुछ अलग होता चला गया। सवाल यह है कि ब्लाक आखिर क्यों बनाए और लिखे जा रहे हैं। हम जैसे पत्रकार तो ब्लाग इसलिए बनाते और लिखते हैं कि जो बातें या चीजें अखबार या टीवी के माध्यम से नहीं लिख सकते, उन्हें लिखने का यह एक स्वतंत्र मंच मिल जाता है। ‘पत्रकारिता जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य ही तो होता है।’  लेकिन अगर तसल्ली से लिखा जाए तो वही साहित्य की श्रेणी आकर खड़ा हो जाता है। अखबार में हम खबरें लिख सकते हैं। टीवी में हर स्टोरी दिखा सकते हैं। लेकिन जरूरी तो नहीं कि हम सिर्फ यही तक सीमित रहते हों। कविता, कहानी, व्यंग्य आदि कहां लिखे जाएं। इसके लिए एक रास्ता मिल गया वह है ‘ब्लाग’ का। जो पत्रकार नहीं वे कुछ नहीं लिख सकते क्या? क्यों नहीं लिख सकते। अगर लिखा है तो कोई पढ़े, यह भी मन में रहता ही है, तो कैसे पढ़ा जाए? ब्लाग के ही माध्यम से पढ़ा जाए। इसलिए गैर पत्रकार भी ब्लाग लिखने लगे। ‘बड़े लोग’ मसलन महानायक टाइप या टीवी के जाने माने एंकर और पत्रकार भी ब्लाग लिखते हैं। वे कुछ भी लिखें, हिट मिल ही जाते हैं। वे अपने घर की कहानी लिखें तो भी और टीवी में पढ़ी गई अपनी स्क्रिप्ट ही क्यों न लिख दें, उन्हें पढ़ा तो जाएगा ही। नाम ही इतना बड़ा है।
लेकिन, इधर जब से फेसबुक और वाट्सअप ने जोरदार तरीके से धमक दी है, ब्लाग कुछ कम हो गए हैं। हां ब्लाग की जगह लोग ब्लाक को ज्यादा जानने और समझने लगे हैं। ज्ञान की गंगा बहाने के लिए इससे अच्छी जगह भला और क्या मिलेगी। सो जो नहीं वही हो जाता है शुरू। लेकिन जब कुछ अर्थपूर्ण लिखना हो, तो ब्लाग ही वह जगह होती है, जहां लिखा और पढ़ा जाना चाहिए। इसलिए लंबे अर्से बाद एक बार फिर से ब्लागिंग की शुरुआत, आज की इसी पोस्ट के साथ....

गुरुवार, अक्तूबर 13, 2016

दशहरा, रावण, शरीफ, मोदी और पुतला

कुछ बातों अजीबो गरीब होती हैं... कुछ सिर्फ अजीब होती हैं... लेकिन केवल गरीब नहीं होती। हां, उनको करने वाले लोग जरूर गरीब होते हैं। गरीब से तात्पर्य आर्थिक स्थिति से नहीं, बल्कि मानसिक स्थिति से है। खैर, एक अजीब बात जो इस बार दशहरे पर देखने को मिली, वह थी दशहरे पर रावण के रूप में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और कुछ इंडियाज मोस्ट वांटेड आतंकियों का पुतला दहन करना। अगर हम रावण के साथ इनका पुतला दहन करते हैं तो माना जा सकता है कि हम दोनों को एक समान मान और समझ रहे हैं। रावण माना राक्षस था... अहंकारी था... लेकिन क्या हम उसके गुणों से बाकिफ नहीं हैं। वह प्रकांड विद्वान था। जिसके वध के बाद भगवान राम स्वयं अपने भाई लक्ष्मण को ज्ञान प्राप्त करने के लिए भेजते हों, उसकी विद्वता पर हम- आप क्या शक करने की स्थिति में होते हैं। राम होना को नामुमकिन है, लेकिन आज के दौर में रावण होना भी इससे कमतर नहीं है। यह और बात है कि जिसे भगवान ने मारा, उसे हम बिल्कुल गया गुजरा समझ ले रहे हैं। क्या हम नवाज और मोस्ट वांटेड आतंकियों को रावण के समकक्ष नहीं बनाए दे रहे हैं। यह किसी एक प्रदेश में, एक जिले में, एक समाज ने नहीं किया। देशभर में सैकड़ों जगह यही कारनामा अंजाम दिया गया। हद तो तब हो गई, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी रावण बनाकर पुतला दहन किया गया। उनके साथ तमाम और नेता शामिल कर लिए गए।
विरोध दर्ज कराने के लिए पुतला दहन की परम्परा नई नहीं है। अक्सर लोग इसका सहारा लेते हैं, लेकिन कम से कम यह तो समझ लें कि हम किसका रूप बनाकर किसे जलाने का प्रयास कर रहे हैं।

बुधवार, नवंबर 13, 2013

अभावशाली मैं


अपना मुन्नू सबसे प्रभावशाली है। भले सरदारों में सही। असरदार न सही, प्रभावशाली ही सही। लेकिन मैं क्या हूं. .... .... । मुझे भी तो कुछ न कुछ होना चाहिए। वैसे मैं हूं तो बहुत कुछ। मैं ब्राह्मण हूं, पत्रकारिता करता हूं। कामचलाऊ साहित्य भी रच देता हूं। दर्शनशास्त्र में मास्टर डिग्री है तो चिंतक भी कहा जा सकता है। वैसे बालों के गिर जाने के कारण यह तथ्य और भी पुष्ट होता है कि मैं चिंतक हूं। और भी बहुत कुछ हूं। अगर सबका जिक्र करूंगा तो सूची लम्बी हो जाएगी। लेकिन यहां तो प्रभाव का ही सर्वथा अभाव है। जिन लोगों में प्रभाव का अभाव नहीं उनका भी जवाब नहीं। अपने हिसाब से नए-नए तरीके से सूची बनवाते हैं और उसमें अपना नाम डलवा लेते हैं। मजे की बात यह है कि इस सूची में मुन्नू के साथ साथ उनकी पत्नी का नाम भी है। अब सवाल घूम फिरकर वही आता है। पहले तो अपन के पास पत्नी है ही नहीं और अगर हो भी तो क्या फायदा ऐसी पत्नी का जो प्रभावशाली न हो। अपन न सही पत्नी ही प्रभावशाली हो तो काम बन सकता है। लेकिन यहां तो न तो नौ मन तेल है और न ही राधा के नाचने की कोई उम्मीद। दरअसल मेरा प्रभावशाली न होना और जीवन में किसी प्रभावशालिनी का न होना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं प्रभावशाली नहीं हूं, इसलिए कोई संगिनी नहीं है। और दीगर यह भी है कि संगिनी नहीं है, इसलिए प्रभावशाली नहीं हूं। इतना जरूर है कि सरदारों की सूची में भले अपना मुन्नू नम्बर वन हो, लेकिन असरदारों की सूची में मेरा नम्बर ही वन होगा। जब मैं यहां मेरा कहता हूं तो मेरा मतलब सिर्फ स्वयं से नहीं है। मेरा मतलब देश के हर आमआदमी से है, जो प्रभावशालियों की किसी सूची में नहीं है, लेकिन शक्तिशाली बहुत। वह स्वयं के लिए कोई सूची नहीं बनवा सकता, वह अभाव में जीता है। दरअसल हम यानी आम आदमी यह समझ नहीं पा रहा है कि वह कितना प्रभावशाली है। जिस दिन उसके ज्ञान चक्षु खुल जाएंगे वह डेढ़ हजार मुन्नुओं और उनकी पत्नियों से बहुत ज्यादा प्रभावशाली हो जाएगा।

बुधवार, जुलाई 03, 2013

सालगिरह


आज तो जरूर घर में डांट पड़ेगी ही। कोई मुझे बचा नहीं पाएगा। यह सोचता हुआ मैं नियमित समय से करीब एक घंटे देरी से आफिस बाहर निकला। गाड़ी स्टार्ट की तो याद आया कि मोबाइल तो आफिस में ही छोड़ आया हूं। मेरे साथ अक्सर यही होता है, जब भी जल्दी में कोई काम करता हूं तो जल्दी की बजाय देर ही हो जाती है। खैर वापस जाकर मोबाइल लेकर गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ चला। गाड़ी की रफ्तार तेज और तेज होती जा रही थी। इसके साथ-साथ विचारों की शृंखला भी दू्रत गति से अनवरत जारी थी। कभी सोचता कि अभी क्या और कैसे करना है तो दूसरी ओर नौकरी को गाली देता जा रहा था। मन में आता था कि या तो करी या फिर  न करी। तनख्वाह तो एक दिन आती है, लेकिन उससे पहले ही तन-खा जाती है। ऐसी तनख्वाह से क्या फायदा। धीरे-धीरे खतम हुए जा रहा हूं। बचने का कोई रास्ता फिलवक्त दिख ही नहीं रहा। फिर विचार आया। आज जो कुछ भी कर पा रहा हूं, जो कुछ भी हूं। वह इस नौकरी की वजह से ही तो हूं। इसी से रोजी-रोटी चल रही है। और अगर नौकरी इतनी ही परेशान कर रही है तो क्यों नहीं इसे छोड़ देता। किसी ने पकड़ के तो रखा नहीं है। ये तो मेरी मजबूरी ही है न कि नौकरी किए जा रहा हूं। इसलिए आज तय कर लिया कि नौकरी के लिए कभी भला बुरा नहीं कहूंगा। खैर समय पर तय कर लिया। विचारों की तारतम्यता टूटी, खिड़की से बाहर देखा तो गाड़ी अपने आप वहीं आकर रुक गई थी जहां जाना था। फूलों की दुकान सामने थी। जैसे ही उतरा गीता को फोन आ गया। बोली, कहां हो? इससे पहले कि मैं कुछ जवाब दे पाता बोली, प्लीज झूठ मत बोलना क्योंकि वो आपको बोलना नहीं आता। मैंने कहा, फूल ले रहा हूं आता हूं। गीता बोली, ओह!!! अच्छा लगा यह जानकर कि आपको कम से कम यह याद तो है। अभी कितनी देर और लगेगी? बताया न रास्ते में हूं, जल्दी पहुंच जाउंगा। मैंने इतनी बात की और फोन काट दिया। ज्याद कुछ सुनने के मूड में मैं था नहीं। दुकान पर फूलों का जो सबसे बड़ा गुलदस्ता था वो लिया और आगे बढ़ गया। लेकिन, ये क्या। कुछ देर बाद गाड़ी के ब्रेक अपने आप दब गए। फिर से बाहर देखा तो याद आया कि अच्छा अभी केक भी तो लेना है। बेकरी में गया और आर्डर कर चुका केक जल्दी से पैक करवाया और गाड़ी में लेकर घर की ओर तेजी से गाड़ी बढ़ा दी। खाली सड़कों पर गाड़ी सरपट दौड़ी चली जा रही थी। घर अभी भी कुछ दूर ही है। इसी बीच मन में फिर से विचार कौंधा। शायद कुछ भूल रहा हूं। याद आया गीता के लिए तो कुछ लिया ही नहीं। फिर सोचा, जो लिया है वो उसी के लिए ही तो है। निर्णय लिया कुछ तो ले लेना चाहिए। पास ही एक जनरल स्टोर दिखा तो जाकर एक चाकलेट ले ली। अभी दुकान से बाहर निकल भी नहीं पाया था कि फोन की घंटी फिर बजी। समझ गया कि फोन किसका है। डांट के डर से ये भी नहीं देखा कि मेरी समझ सही है या कि नहीं। गाड़ी आगे बढ़ा दी। सड़कों पर सन्नाटा पसरा होना मेरे लिए फायदेमंद साबित हो रहा था। बस कुछ ही क्षणों में आखिर घर पहुंच ही गया। इससे पहले कि दरवाजे पर घंटी बजाता, गीता ने दरवाजा खोल दिया। उम्मीद के विपरीत, उसने मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया। उसके बाद मेरे सीने से लग गई। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा और कमरे की ओर बढ़ गया। अंदर देखा तो पता चला गीता ने पूरे कमरे का लेआउट ही बदल दिया है। कुछ नया करने की आदत के चलते वो अक्सर ऐसा करती रहती है। मैंने पूछा, मैं अपना सामान कहां रखूंगा तो बोली, यहां आप कुछ नहीं रखेंगे, बैडरूम में मैंने अलग जगह बना दी है। अपना जरूरी सामान आज से आप वहीं रखेंगे। मैं सिर हिलाता हुआ बैडरूम की ओर चला गया। वहां पहुंचकर मैं दंग रह गया। उसे भी शानदार ढंग से सजाया गया था। मैंने बाहर आकर पूछा, यह सब क्या किया। वे सिर्फ मुस्कुराकर रह गई और चाभी लेकर गाड़ी से सामान लेने चली गई। जब तक मैं रिलेक्स हुआ वे फूल और केक लेकर आ गई। फूलों को गले से लगाकर उसने मुझे थैंक्यू बोला। अब उसने केक को डिब्बे से निकालकर मेज पर सजा दिया। फूल भी मेज पर सजे रखे थे। उसने मुझे बुलाया और कहा, केक काटिए। मैंने चाकू से केक पर पहला बार किया वैसे ही वह बोली, हैप्पी मैरिज एनीवर्सिरी डियर पापा, शादी की सालगिरह मुबारक हो पापा। खुशी के इस मौके पर बरबस ही मेरे आंसू निकल पड़े। मैंने गीता को गले से लगा लिया। मैंने उसे और उसने मुझे भीगी पलकों से ही केक खिलाया। वहां रखे फूल भी उसने मेरे आंचल में भर दिए। मैंने लाई हुई चाकलेट उसे दी और कहा, बेटा गीता ये तुम्हारे लिए। चाकलेट हाथ में लेकर बोली, आज मेरे कुछ नहीं पापा। आज सब कुछ मम्मी के लिए ही होगा। मेरे लिए कल कुछ लेते आइएगा। बैडरूम में अपनी मां की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई, जैसे कोई भगवान के आगे खड़ा होता है। एक मिनट आंख बंद किए खड़ी रही फिर चाकलेट वहीं रखकर चली आई। मैंने पूछा, तुमने ये सब क्यों किया बेटा? तो बोली, पापा मैंने आपको हमेशा मम्मी और मेरे लिए सब कुछ करते देखा तो क्या मम्मी के बिना आई शादी की पहली सालगिरह मैं ऐसे ही जाने देती। आप और मम्मी हर साल इस दिन को सेलीबे्रट करते थे। मम्मी के जाने के बाद मेरी यह जिम्मेदारी थी कि मैं आपको आज खुशी दूं। मम्मी नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं तो हूं। मेरी आंखों से फिर से आंसू बह निकले। सीता की तस्वीर देखकर उसे इतनी अच्छी बेटी देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं थे। बस मन गदगद हुआ जा रहा था।

रविवार, जून 16, 2013

लोहा दे दो लोहा

उन्हें लोहा चाहिए। किसलिए??? लोहा काटने के लिए???? लेकिन वे तो किसी का लोहा मानते ही नहीं। वे खुद को पुरुष नहीं, महापुरुष भी नहीं बल्कि लोहा पुरुष कहलाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं। लोहे को काटने के लिए लोहे की ही जरूरत पड़ती है। उन्हें लोहा किस लोहे को काटने के लिए चाहिए। एक लोहा थे, उन्हीं के दल में। उन्हें तो ऐसा काटा कि अब वे मोम भी नहीं रह गए। न तो कोई देख रहा है और न ही पूछ रहा है। वे तो लग गए ठिकाने। अब दूसरा किसे काटने की तैयारी वे कर रहे हैं, यह सवाल खड़ा है।
खैर, लोहा देने वाला भी तैयार हैं। जगह-जगह से आवाज आ रही है कि हमसे लोहा ले लो हमसे। इस ध्वनि का शोर इतना है कि रोज सुबह लोहा-टीन बेचो की आवाज लगाने वाले भी परेशान हैं कि पूरे देश का लोहा जब यही ले लेंगे, तो हमारे लिए क्या बचेगा। रद्दी, अखबार और टीन खरीदकर ही काम चलाना पड़ेगा। लेकिन उससे क्या होगा। जितना मुनाफा लोहे में है, उतना और किसी में नहीं। रोजी-रोटी पर भी संकट आ सकता है। एक स्वर में आवाज उठ रही है, यह आदमी हमारे धंधे की वाट लगाने पर तुला है। अपना काम तो ठीक से करता नहीं। हम रोज कमाने और रोज खाने वालों के लिए सिरदर्दी पैदा कर दी है। यह तय हो गया है कि अगर  फिर से इस आदमी ने लोहे की बात भी जुबान से निकाली तो फिर देखो। हम कैसे लोहा लेते हैं। घर-घर जाकर लोहा लेना हमारा तो पुश्तैनी काम है। ये तो अभी बस शुरू ही करने वाले हैं। ये कल का छोरा और अन्य कामों में  चाहे जितना माहिर हो, लेकिन लोहा!!!!!!! वो हमसे बेहतर कोई नहीं ले सकता।

गुरुवार, जून 13, 2013

राजनीति के सौरभ गांगुली

उनसे कहा जा रहा है कि कप्तान होते हुए भी वे टीम से बाहर बैठें। टीम में उनकी कोई जरूरत नहीं, लेकिन कप्तान बने रहें। अगर कभी भूले भटके टीम में शामिल हो भी गए तो नॉनस्ट्राइकिंग एंड पर खड़े होकर सिर्फ मैच का मजा लें। लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं। दिल है कि मानता ही नहीं की तरह। उनका कहना है कि टीम इंडिया को बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदाना है। दरअसल टीम इंडिया उन्हीं का दिया हुआ नाम है। इससे  पहले भारतीय क्रिकेट टीम बोली जाती थी। उन्हीं ने टीम में वह जोश और जुनून भरा जोकि अब टीम लगातार जीत रही है। इसका के्रडिट कोई और कैसे ले सकता है। उनको याद दिलाया गया 2003 जब टीम फाइनल में पहुंचकर भी विश्वकप नहीं जीत पाई थी। उनका जवाब होता है कि यह क्या कोई कम बात है। कपिल देव के अलावा क्या कोई और कप्तान देश को फाइनल तक में पहुंचा पाया है। समय दीजिए, मौका आने दीजिए जीत कर भी दिखा देंगे। उनका से कहा जा रहा है कि देश के युवाओं को आगे आने दीजिए। तुरंत उनका जवाब आता है, युवाओं का जितना सहयोग मैंने किया है। उतना किसी ने नहीं किया। उदाहरण के लिए वे कुछ नाम भी गिना देते हैं। हरभजन सिंह, युवराज सिंह, वीरेंदे्र सहवाग आदि आदि। उन्हें एक और ऑफर दिया गया। कहा गया कि ठीक है आप टीम के सलाहकार बन जाइए। लेकिन नहीं। वे इसके लिए भी तैयार नहीं। सलाहकार क्या होता है????? जब तक जान में जान है, कप्तान ही रहेंगे। मानेंगे नहीं। ताज्जुब की बात यह है कि जिन डालमियां ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया वही डालमियां अब उनकी कारगुजारियों से परेशान हो गए हैं। उन्होंने भी सोच लिया है, आओ बेटा कर लो जो कुछ करना है, मौका मिला तो ऐसा घपचेटूंगा कि जमाना याद करेगा।
खैर, इसी का नतीजा रहा कि उन्हें बेइज्जत होकर टीम से बाहर होना पड़ा। अब घर-घर इस्तीफा लिए घूम रहे हैं, उसे भी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। सब मना कर रहे हैं। जब उनकी इज्जत नहीं तो इस्तीफे की कौन करे। अंतत: जनता की बेहद मांग पर धौनी को कप्तान बना दिया गया और वे मुंह टापते रह गए।


अपनी बात

ब्लाग बनाना अपने आप में बड़ा काम है। अगर बना भी लिया तो लिखना बड़ा काम है। और अगर लिख  भी लिया तो उसे लगातार लिखना तो बाकई बहुत बड़ा काम है। आप लगातर लिखते रहिए। लेकिन, कहीं एक बार ऐसा हुआ कि आपसे लिखना छूटा तो फिर आप देखेंगे कि फिर से लिखना आप महीनों नहीं सालों बाद भी नहीं कर पाएंगे। कई बार आप इसलिए लिखना छोड़ देते हैं कि आपके पास समय नहीं होता। या फिर कई बार लिखने के लिए भी कुछ नहीं होता। लेकिन कुछ ही दिन बाद आप देखते हैं कि आपके पास ज्यादा नहीं तो कम से कम इतना समय तो है ही कि कुछ लिख सकें। कई बार मौका और दस्तूर देखकर विचार भी आते हैं। कई बार आइडिया भी अच्छा आता है। लेकिन आप लिख नहीं सकते। क्यों??? क्योंकि आप लिखना छोड़ जो चुके हैं।
फेसबुक क्या आया सब तितर-बितर हो गया। मैं अकेला ही ऐसा नहीं  हूं जो ब्लाग लिखना छोड़ चुका था। मेरे जैसे न जानें कितने ऐसे लोग हैं। कुछ दिन तो ऐसे भी कटे जबकि लिखता भले नहीं था, लेकिन पढ़ता जरूर था। लेकिन कुछ ही समय बीता था कि अन्य लिखने वाले भी कम हो गए। कम क्या हो गए। शिफ्ट हो गए। बड़ी संख्या में लोग फेसबुक पर चले गए। फेसबुक के फायदे जो अनेक थे। एक बड़ा फायदा तो यह था कि जो व्यक्ति आपसे जुड़ा है उसे आपका लिखा हुआ जरूर दिखेगा। अगर कोई आपके लिखे की तारीफ करना चाहता है और लिखना नहीं चाहता तो लाइक का बटन चटका सकता है। आपको पता चल जाएगा कि उसे आपकी बात अच्छी लगी। ब्लाग के आगमन पर जैसे तमाम रचनाकर पैदा हो गए थे वैसे ही फेसबुक ने भी कई रचनाकार जन्मा दिए। सच्चाई तो यह है कि मैं भी कहीं न कहीं उसी की उपज हूं। मैं किसी अखबार का सम्पादक तो हूं नहीं कि जो बात ब्लाग पर लिखूं वह अपने अखबार के सम्पादकीय में चिपका लूं। और न ही किसी टीवी चैनल का प्राइम टाइम एंकर कि एक घंटे बहस करे। कुछ पत्रकार बिठा ले, कुछ पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं को बिठा लूं और लगूं ज्ञान बांचने। उसमें से जो भी लब्बोलुआब निकले वह कहीं छपने  के लिए भेज दूं।
हम पत्रकारों के साथ बड़ा संकट पहचान का होता है। प्रिंट मीडिया में यह संकट और भी गहरा जाता है। टीवी पर शाम को आपका चेहरा किसी अच्छे चैनल पर दो बार दिखा नहीं कि आप बड़े पत्रकार हो जाते हैं। जनता मान लेती है कि   आप बहुत बड़े ज्ञानी हैं। प्रधानमंत्री वहीं करता है जो आप कहते हैं। भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान आपके टीवी प्रोग्राम को देखकर ही यह तय करता है कि अंतिम ग्याहर कौन हों, आदि, आदि। हम डेस्क वालों का संकट सबसे विचित्र है।  रिपोर्टर का नाम भी किसी अखबार में चार-छह बार छप जाए तो एक क्षेत्र विशेष के लोग जरूर आपको जानने लगते हैं। चेहरे से सही नाम ही काफी है। लेकिन डेस्क वाले को शायद ही कोई जानता हो। कम ही लोग जानते हैं कि जो कुछ भी अखबार में सुबह छपता है वह आपने कितनी मेहतन से बनाया, सजाया और संवारा है। नाम भले ही रिपोर्टर का छप रहा है, लेकिन उसमें बड़ा योगदान आपका भी है। आप बाहर बताते रहिए कि साहब मैं फलां अखबार में हूं। कोई नहीं मानता। कई बार तो स्थितियां ऐसी भी आईं कि कहीं गया और बताया कि मैं फलां जगह हूं। तो सामने वाले ने मुझसे जूनियर रिपोर्टर को फोन करके तस्दीक की कि मैं सही हूं या नहीं।
तो कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि ब्लाग और फेसबुक ने इस संकट को काफी हद तक दूर किया था। लेकिन इसमें भी शर्त यह है कि  आप लगातार लिख रहे हैं कि नहीं। आप लाख अच्छा लिखते हों। आपकी शैली में कितना भी फ्लो हो। आपने लिखना छोड़ा नहीं कि  आप गए। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे इस बारे में यूं ही बात की और कहा कि तुम्हारा ब्लाग काफी रिच हो गया है उसे लिखना क्यों नहीं जारी रखते। लिखने की बात तो बहुत दिन से सोच रहा था लेकिन बात वही कि मुहूर्त नहीं निकल पा रहा था। उन्होंने कहा था कि अब और कुछ करने का समय तो निकल चुका है, जो कुछ लिख दोगे वही बचेगा। उनकी बात मानते हुए आज फिर से ब्लाग का श्रीगणेश कर रहा हूं। कोशिश यही करूंगा कि हर चार-छह दिन पर कुछ न कुछ लिखता रहूं। आपको पसंद आए या फिर न आए। वैसे भी ऐसा कुछ लिखने में तो समय लगेगा जो सबको पसंद आए, फिर भी कोशिश जारी रहेगी। आज ज्यादा कुछ न लिखते हुए सिर्फ अपनी बात लिख रहा हूं। देखते हैं कितने लोग इस पसंद करते हैं. . . . . . .

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