रविवार, जुलाई 25, 2010

तो क्या अब चम्मच भी न दी जाए!

कैसी विडम्बना है। जो हमें फूटी आंख नहीं सुहाने चाहिए। जिन्हें देखते ही गोली मार देनी चाहिए। उनकी हम इतनी सुरक्षा करते फिरते हैं कि कहीं उनके बाल की खाल भी भी बांकी न हो जाए। अगर उन पर कोई हमला करता है तो हम उन्हें बचाते हैं और चोट लग जाने पर मरहम पट्टी करते हैं। दवाई का खर्चा भी हमारा ही।
जी, बात कर रहा हूं। अबू सलेम साहब की। अरे साहब न कहूं तो क्या कहूं। साहब जैसा ही तो ठाट है उनका। आम आदमी मरे चाहे जिए, किसी को कोई परवाह नहीं। पर अबू साहब को कुछ हो जाए तो सरकार के कान के बाल खड़े हो जाते हैं। अरे ये कैसे हो गया? उन जनाब पर हमला हो गया, घायल हो गए। हमलावर कौन? उनके ही पुराने साथी मुस्तफा दोसा साहब। दोनों जनों ने मिलकर 12 मार्च 1993 में मुंबई में सिलसिलेवार बम विस्फोट किए। तब दोनों साथी थे। यानी हमजोली। अब दुश्मन हो गए, एक दूसरे की खून के प्यासे। कहते भी हैं दोस्त अगर दुश्मन हो जाए तो उससे बड़ा दुश्मन और कोई नहीं होता। तब दोनों भाई दाउद इब्राहिम जी के लिए काम करते थे। अबू साहब ने जब नई राह अपनाई तो दोसा जी को यह बात बर्दाश्त नहीं हुआ। भाई से दगाबाजी? तब से ही दोसा जी अबू साहब से नाराज थे। मन में था कि इसको तो मैं देख लूंगा। दोसा जी कई दिनों से उन चम्मच को चमका या यूं कहें घिर रहे थे जो उन्हें खाना खाने के लिए दी जाती है। जब चमक गई तो बस फिर क्या था। कर दिया अबू साहब पर हमला। पता चला है कि उन्हें गले में कुछ चोटें आई हैं। तुरंत उनकी दवाई कराई गई और अब वह विश्राम कर रहे हैं। हालांकि अबू साहब भी कम नहीं हैं। वो तो दोसा जी की सेहत अबू जी से अच्छी थी नहीं तो अबू जी भी कुछ कर देते तो कोई बड़ी बात नहीं।
एक सवाल यहां उठ रहा है कि क्या जेल में कैदियों को जो चम्मच दी जाती है वह भी बंद कर देनी चाहिए। हालांकि अभी तक इस तरह की कोई खबर नहीं आई है कि सरकार इस पर विचार कर रही है पर अगर एक दो इस तरह की वारदात हो गईं तो सरकार को सोचना होगा। मैं सरकार से थोड़ा पहले सोच ले रहा हूं। एक बात और अगर चम्मच बंद कर दी तो ये माननीय कैदी साहब लोग खाना कैसे खाएंगे। हाथ से? ऐसे तो उन्होंने कभी नहीं खाया। ठहरिए खाया तो है। जब अबू साहब आजमगढ़ में रहते थे तो कैसे खाते होंगे। तब तो गरीबी थी। तो शायद हाथों से ही खाते होंगे। और खाने से हाथ गंदे हो जाते थे तो उन्हें धोने के लिए साबुन भी नहीं मिलता था। मिट्टी से हाथ धोने पड़ते थे। लेकिन वो तो गुजरे जमाने की बात हो गई। अब तो चम्मच-कांटे और न जाने क्या क्या। अब कैसे हाथ से खाएंगे। हाथ मैले नहीं हो जाएंगे? खैर यह दूर की कौड़ी है। सरकार को इस पर विचार करना चाहिए।
हां, सरकार जिस बात को लेेकर परेशान है वह परम आदरणीय मोहम्मद आमिर अजमल कसाब साहब की सुरक्षा है। इतनी महान शख्सियत की सुरक्षा में कहीं सेंध न लग जाए इसको लेकर सरकार के कान खड़े हो गए हैं। अगर कसाब को कुछ हो गया तो क्या होगा। पाकिस्तान को क्या जवाब देगी हमारी सरकार? क्या किया हमारे कसाब के साथ? हमारा एक आदमी भी ठीक से नहीं रख पाए और बातें करते हो? चलो जाओ हम तुमसे कोई बात नहीं करेंगे। आतंकवाद पर भी नहीं। हमारा लाल कसाब कहां है?
आम आदमी जो देश के लिए मरा जा रहा है, देश की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश की सेवा कर रहा है, देश की अर्थव्यवस्था में कोई न कोई सहयोग दे रहा है। तिरंगे को अपनी आन, बान और सम्मान समझता है। उसकी हमारी सरकार को कोई फिक्र नहीं। यहां एक सवाल और भी उठता है। यह आम आदमी है कौन? सवाल किया तो जवाब आया जो आम के मौसम में भी जो आम न खा पाए वही आम आदमी है। तो साहब यह तो आम का मौसम चल रहा है। मैं देखता हूं कि बहुत बड़ी संख्या में लोग आम नहीं खा पा रहे हैं। दुकानों और ठेलियों पर रखे आम सड़ रहे हैं पर कोई खरीदार नहीं मिल रहा। क्यों? जवाब वही महंगाई डायन खाए जात है।
खैर, महंगाई की बात फिर कभी, फिलहाल महान लोगों की हो रही थी। बात यहीं खत्म करना चाहता हूं। सवाल कई हैं और जवाब सरकार को तलाशने हैं। जो सरकार तय करेगी हम सभी को मानना है, क्योंकि सरकार तो हम सबने मिलकर बनाई है ना। तो ठीक है साहब ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अबू साहब, दोसा साहब और अजमल साहब की सुरक्षा में कोई सेंध न लगे नहीं तो गजब ही हो जाएगा। जरा संभलकर..................

मंगलवार, जुलाई 20, 2010

मीडिया को गरियाने का मौका कोई नहीं छोड़ता

हालिया रिलीज फिल्म 'लम्हा' में अनुपम खेर का एक डायलॉग है 'अगर एश्वर्या चांद नहीं देख पातीं तो मीडिया में वह भी खबर बन जाती है पर कश्मीर में न जाने कितनी महिलाएं है, जिन्होंने अपने पति को न जाने कितने दिनों से नहीं देखा है।' डायलॉग को लेकर फिल्म के निर्देशक राहुल ढोलकिया और अनुपम खेर बहुत डरे हुए थे कि कहीं अमिताभ बच्चन नाराज न हो जाएं। लेकिन उनकी खुशी का तब कोई ठिकाना नहीं रहा जब अमिताभ ने इस पर ऐतराज नहीं जताया बल्कि कह दिया कि यह सच्चाई है और एश्वर्या को इसमें एक सेलिब्रिटी के रूप में दिखाया गया है। फिल्म के निर्देशक राहुल कहते हैं कि इसमें एश्वर्या का मजाक नहीं उड़ाया गया है बल्कि आजकल की व्यवस्था पर एक प्रहार किया गया है।
जब इस डायलॉग पर अमिताभ की राय मांगी गई तो उन्होंने इसे स्वीकार करने में तनिक भी देरी नहीं की। उन्होंने कहा कि जो बात कही गई है वह सही है। एक बात जो अमिताभ ने नहीं कही, वह यह कि चुंकि इसमें मीडिया को निशाना बनाया गया है इसलिए कोई प्रश्न ही नहीं था कि अमिताभ इस डायलॉग को फिल्म से हटाने या फिर किसी और प्रकार से रखने के लिए कहते। वो तो चाहते ही हैं कि मीडिया को गाली दी जाए।
कुछ दिन पहले ही अंग्रेजी के एक टीवी चैनल ने एक संगठन का स्ट्रिंग ऑपरेशन किया और उसके मंसूबों का खुलासा कर दिया। संगठन के कार्यकर्ता इतने नाराज हुए कि उन्होंने संबंधित टीवी चैनल के दफ्तर पर हमला बोल दिया और जमकर तोडफ़ोड़ की। बात जब संगठन के बड़े नेताओं तक पहुंची तो उन्होंने कह दिया कार्यकर्ताओं ने जो कुछ भी किया है वह सही है। अगर मीडिया को अभिव्यक्ति की आजादी है तो हमें भी विरोध की आजादी है। विभिन्न टीवी चैनलों पर तोडफ़ोड़ के जो दृश्य दिखाए जा रहे थे उसमें साफ दीख रहा था कि वहां सुरक्षा के लिए मौजूद पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे खुद चाह रहे हो कि ऐसा ही होता रहे। यानी मीडिया वाले पिटते रहें।
इन सब बातों पर गौर करें तो एक बात साफ है कि कोई व्यक्ति हो या संगठन, मीडिया को गरियाने का मौका कोई भी हाथ से नहीं जाने देता। अमिताभ के मन में तो मीडिया के प्रति इतना क्रोध भरा है कि न चाहते हुए भी वह समय समय पर दिखाई पड़ ही जाता है। बोफोर्स कांड के समय में मीडिया की रिपोर्ट से अमिताभ इतना खफा हुए थे कि काफी समय तक उन्होंने कोई साक्षात्कार ही नहीं दिया। अगर मीडिया के बिना उनका गुजारा हो जाए तो शायद वह आज भी उससे बात न करें। अभी भी अमिताभ जब भी मीडिया से मिलते हैं तो सिर्फ अपने मतलब के लिए। जब उनकी कोई फिल्म रिलीज हो रही होती है तो वह टीवी चैनल के दफ्तर में आकर बैठ जाते जाते हैं, लेकिन जब उनके बेटे की शादी होती है तो देश की पूरी मीडिया पर लाठी तक चलवाने में अमिताभ को हिचक नहीं होती। फिल्म 'पा' में अभिषेक बच्चन के चरित्र में अमिताभ खुद ही नजर आते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अमिताभ में जैसे कह कह फिल्म बनवाई हो।
एक ऐसा संगठन जो अपने आप को अनुशासित और भारतीय होने का दंभ भरता है उसके प्रवक्ता कहते हैं कि मीडिया को अगर किसी बात की स्वतंत्रता है तो उन्हें भी है। उनकी स्वतंत्रता का मतलब मीडिया पर हमला करने से होता है। उनकी स्वतंत्रता इसमें निहित है कि वह किसी सम्मानित और बड़े मीडिया हाउस के दफ्तर में हमला कर तोडफ़ोड़ करें। आश्चर्य तो तब होता है जब उनके वरिष्ठ भी इस पर आपत्ति नहीं करते और इसे जायज ठहराते हैं। जहां तक पुलिस की भूमिका की बात की जाए तो पुलिस और मीडिया में हमेशा ठनी ही रहती है। पुलिस का अदना सा सिपाही हो या फिर वरिष्ठ अधिकारी, हमेशा इसी फिराक में रहता है कि किस तरह मौका निकाल कर मीडियाकर्मियों को पीटा जाए या कुछ ऐसा किया जाए, जिसे वह हमेशा याद रखें। कस्बे, शहर और जिला स्तर के पत्रकारों को अक्सर इस तरह की दिक्कतों का सामना करना ही पड़ता है। अब राष्ट्रीय स्तर पर भी यह देखने को मिल रहा है। मीडिया पर हमले के बाद सिर्फ टीवी में दिखने और अखबार में छपने के लिए सभी नेताओं ने कह दिया कि यह गलत है और ऐसा नहीं होना चाहिए पर उसके बाद कोई कुछ नहीं बोला। क्यों? क्योंकि कहीं न कहीं उसे भी लगा कि चलो ठीक ही हुआ। ये मीडिया वाले इसी लायक हैं। अब खुलेआम तो कह नहीं सकते कि ठीक हुआ तो चुप ही रहा जाए ज्यादा बेहतर है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। कोई कलाकार हो या खिलाड़ी, जब उसे जरूरत होती है तो अपने हिसाब से मीडिया का इस्तेमाल करता है और जब सब ओर वह चर्चित हो जाता है तो उसी मीडिया को दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल कर फेंक दिया जाता है। जब कभी भी मीडिया पर हमला होता है तो मीडिया अकेला रह जाता है। अब सवाल यह भी उठ सकता है कि मीडिया के खिलाफ लोगों में इतना आक्रोश आखिर क्यों है? क्या वाकई मीडिया रास्ता भटक गया है या फिर भ्रष्टाचार इतना बढ़ गया है और साजिशें इतनी ज्यादा है कि जब मीडिया इनका खुलासा करती है तो वे बर्दाश्त नहीं कर पाते? और कहीं न कहीं मीडिया को पीटने का मौका देखते हैं। एक बात तो साफ है कि भ्रष्टाचार तो बढ़ा है। देश में कितने ही नामी अखबार हैं और सभी में लगभग रोज किसी न किसी भ्रष्टाचार की पोल खोली जाती है, पर फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। रोज उसी गति से भ्रष्टाचार होता रहता है। यह तो बात अखबार की है। टीवी में भी किसी ने किसी स्केंडल का पर्दाफाश होता ही है। फिर भी भ्रष्टाचार रुक नहीं रहा। तो क्या मीडिया का जिसके लिए जन्म हुआ, वह बिसरा देना चाहिए और इन्हीं के साथ मिलकर इन्हीं जैसा हो जाना चाहिए। या फिर यूं ही पिटते हुए अपने काम को अंजाम देते रहना चाहिए यह सोचते हुए कि अच्छा काम करोगे तो विरोध तो होगा ही।

यह आलेख कई बेवसाइटों पर भी प्रकाशित हुआ है। यहां उनका यूआरएल दे रहा हूं। चाहें तो वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं। अपनी टिप्पणी देकर बात को आगे बढ़ाएंगे तो अच्छा रहेगा।


http://vichar.bhadas4media.com/home-page/37-my-view/346-2010-07-21-06-30-47.html

http://www.aajkikhabar.com/blog/1113472807.html

http://mediamanch.com/Mediamanch/NewSite/Catevar.php?Catevar=8&Nid=2182

http://jansattaexpress.net/news.php?news=2152

http://www.voiceofjournalist.com/topstory.php?headline=headline&val_id=96&type=1

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

एसएमएसमीनिया


टीचर : एक साथ जवाब दो।
यूपी की मुख्यमंत्री कौन हैं?
कुतुबमीनार कहां है?
शताब्दी की रफ्तार?
मुर्गी क्या देती है ?


एक महिला फायर स्टेशन फोन करती है। फोन संता उठाता है।
महिला : मेरे घर में आग लग गई है।
संता : पानी डालो
महिला : डाला, पर अभी नहीं बुझी।
संता : तो मैं आकर क्या करुंगा, पानी ही तो डालूंगा।

मेरी जुदाई का गम न करना,
दूर रहूं तब भी प्यार कम न करना।
अगर मिले जिन्दगी के किसी मोड़ पर,
तो प्लीज बंदरों की तरह उछलकूद मत करना।


एक लड़की और एक लड़का एक दूसरे को किस कर रहे थे। अचानक लड़की के पिता आ जाते हैं।
डैडी : क्या कर रहे हो?
लड़की : इस साले ने मेरी लिपगार्ड ले ली थी, वही वापस ले रही हूं।

बीवी : मैं जब गाना गाती हूं तो तुम बाहर क्यों चले जाते हो?
पति : ताकि कोई ये न समझे की मैं तुम्हारा गला दबा रहा हूं।



जी, ये कुछ एसएमएस हैं। चाहें तो चुटकुले भी कह सकते हैं। ये बानगी भर है। ऐसे ना जाने कितने चुटकुलेनुमा एसएमएस मेरे पास आते हैं। इनके आने का भी कोई समय निर्धारित नहीं है। 24 घंटे में कभी भी, मेहमान की तरह।
कहां से आ रहे हैं ये एसएमएस? और कौन कर रहा है ये एसएमएस? तो साहब जवाब है कि कर तो मेरे मित्र और जानने वाले ही रहे हैं। क्या मेरे मित्र और जानने वाले इतने रहीस हैं कि एक दिन में 50-50 मैसेज कर दे। और एक ही दिन क्यों महीनों से, बल्कि कुछ तो सालों से। नहीं साहब न तो मेरे मित्र इतने रहीस हैं और न ही इतने बेवकूफ। वे जिस कंपनी का मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं उसने एक स्कीम निकाली है। बहुत ही कम पैसे का पैक ले लो और महीने भर तक असीमित एसएमएस करो। एक बार पैसा दे ही दिया है तो क्यों नहीं करें एसएमएस। लेकिन उसमें करें क्या? सबसे ऊपर जो कुछ एसएमएस लिखे हैं वही आ रहे हैं।
क्या है इन एसएमएस में ? ये बताने की जरूरत नहीं। एसएमएस में या तो संता बंता के नाम पर किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाया जाता है या फिर फूहड़ शायरी रची जाती है। ये नहीं हुआ तो समाज और परिवार का तानाबाना ही बिगाडऩे की कोशिश की जा रही होती है। हमें पता भी नहीं चल पाता कि कब हम इसके शिकार हो गए और हो जाते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि मिलने वाले एसएमएस जब एक दो दिन नहीं आते तो हम फोन करके पूछते हैं कि क्या हुआ। नाराज हो क्या, मैसेज नहीं आ रहे हैं।
जिस तरह फोन का अधिक इस्तेमाल करने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है उसी तरह क्या अधिक मैसेज पढऩे और भेजने से भी कोई बीमारी हो सकती है? पता नहीं पर शोधकर्ताओं के लिए यह शोध का विषय हो सकता है। मुझे लगता है कि अधिकतम लोग इस मैसेजमीनिया के शिकार हो गए हैं। कोई भेजता होगा तो कोई पढ़ता होगा। जो इसमें से कुछ नहीं करता वह निश्चित रूप से भाग्यशाली है, किस्मतवाला है।
मजे की बात यह है कि मोबाइल कंपनियां वही स्कीम पहले कम दाम पर शुरू करती हैं और जैसे ही उन्हें लगता है कि लोग अब इस मोहपाश में फंस गए वैसे ही शुरू हो जाता है दाम बढ़ाने का खेल। पहले अगर पचास रुपए में तीन सौ एसएमएस मिलते थे तो अब सौ रुपए में डेढ सौ मैसेज ही मिलेंगे। अब हमारी तो आदत पड़ चुकी है तो चाहे दो सौ रुपए का मिले हमें तो लेना ही है।
एसएमएस में कहीं प्रेमी प्रेमिका के बीच के अंतरंग बातों को बताया जाता है तो कहीं किसी नेता या अभिनेता पर टिप्पणी की जाती है। उन्हें पढ़कर हम खुश होते हैं।

तो साहब, मेरा यही निवेदन है कि अभी सावधान हो जाइए। अगर आप के साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है तो छोड़ दीजिए और अगर नहीं हो रहा है तो अच्छी बात है। कहीं इस चक्कर में पड़ मत जाइएगा।

एक बात और। हो सकता है आप मेरी बात से सहमत न हों। और इसे इसे अच्छा मानते हों। तब बहुत अच्छा है। निवेदन है कि अपनी बात इस मंच पर रखें ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी बात को जान सकें और इस बहस को आगे बढ़ाने में सहयोग करें।

शनिवार, जुलाई 10, 2010

काफिले में बुझा चिराग-ए-अमन

एक हिन्दू और एक मुसलमान। जब खाप पंचायत के नाम पर लोग एक ही सम्प्रदाय में विवाह के लिए मौत तक का फरमान जारी कर सकते हैं ऐसे में अलग अलग सम्प्रदायों को मानने वाले शादी के बारे में कैसे सोच सकते हैं। खासकर हिन्दू और मुसलमान में तो बिल्कुल भी नहीं। लेकिन, उन्होंने न सिर्फ सोचा बल्कि किया भी।
तसदुद्दीन और ऊषा शर्मा ने विवाह के लिए परिवार वालों, आस पड़ोस वालों और समाज से न जाने क्या क्या सुना। लेकिन, किसी की परवाह नहीं की। प्यार किया, शादी की और इज्जत के साथ समाज में रहने लगे। कुछ दिन बाद उनके एक पुत्र हुआ। नाम रखा 'अमनÓ। इसलिए कि लोगों को बताना जो था कि एक हिन्दू और मुसलमान शादी करके कैसे अमन के साथ जी सकते हैं। ये कट्टरवादियों के मुंह पर एक जोरदार तमाचे की तरह था। लेकिन.... लेकिन.... लेकिन शायद उनकी यह खुशी कुछ ही दिन की थी। दस साल का होते होते अमन मौत के आगोश में समा चुका था। एक तरह से उसकी हत्या की गई थी। और हत्या का कारण बना हमारे देश का प्रधानमंत्री। जी, मनमोहन सिंह।
अमन एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया। परिजन उसे लेकर अस्पताल जा रहे थे, लेकिन उसी दिन हमारे प्रधानमंत्री जी उसी शहर कानपुर में आना था। उनकी सुरक्षा के लिए ऐसे बंदोबस्त की परिंदा भी आसमान से उडऩे से पहले घबरा जाए और दस बार सोचे। एक तरफ उनकी सुरक्षा में लगे जवान और दूसरी ओर अपने घर के इकलौते चिराग की जान की भीख मांगते अमन के माता पिता। हालात ऐसे कि किसी का भी कलेजा मुंह में आ जाए, लेकिन अमन को खून से तर-बतर देखने के बाद भी किसी का दिल नहीं पसीजा। उन्हें अस्पताल नहीं जाने दिया गया। सो तसदुद्दीन और उषा का इकलौता चिराग और हिन्दू -मुस्लिम एकता का प्रतीक रास्ते में ही मिट गया।
संभव है अगर अमन सही समय पर अस्पताल पहुंच गया होता तो बच जाता। लेकिन, अफसोस ऐसा नहीं हो सका। मैं प्रधानमंत्री की सुरक्षा की खिलाफत नहीं कर रहा। किसी भी देश के प्रधानमंंत्री की सुरक्षा की जानी चाहिए। बात जब भारत की हो तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। लेकिन, सुरक्षा के नाम पर किसी की बलि ले ली जाए तो कहना पड़ता है। सुरक्षा अपनी जगह है पर आम आदमी की जान की कुछ तो कीमत होनी चाहिए। क्या प्रधानमंत्री की सुरक्षा में जवान अपने वाहन से अमन को अस्पताल नहीं ले जा सकते थे? अगर किसी नेता या अधिकारी के साथ या उनके परिजन के साथ ऐसा होता तो भी जवान ऐसे ही अपना कत्र्तव्य निभाते या फिर कोई रास्ता निकालते ? एक बड़ा सवाल यहां यह भी उठता है कि अमन की मौत का जिम्मेदार किसे माना जाए? प्रधानमंत्री को ? इस व्यवस्था को ? या फिर किसी और को ? जाहिर सी बात है जिम्मेदार किसी और को ही माना जाएगा। कोई और इतना शक्तिशाली जो नहीं है। मामला कोई भी हो गलत काम की जिम्मेदारी हमेशा कमजोर की ही बनती है। क्योंकि उसकी सबसे बड़ी गलती यही है कि वह कमजोर है। और विडम्बना ये है कि वह शक्तिशाली बन भी नहीं सकता। क्योंकि शक्तिशाली नहीं चाहेंगे कि कोई कमजोर उनके करीब आए।
दुखियारी मां ने प्रधानमंत्री से तो कुछ नहीं कहा, क्योंकि देश की जनता की तरह वह अभागी भी जानती है कि वे कुछ नहीं कर सकते। हालांकि उसने सोनिया गांधी से जरूर गुहार लगाई है। उषा ने उन्हें एक पत्र लिखा है और याद दिलाया है कि अपनों से दूर होने का गम कैसा होता है और जब हालात ऐसे हों। उषा ने अपने लिए कोई मुआवजा नहीं मांगा है बल्कि इस व्यवस्था को बदलने की मांग की है। ऐसी व्यवस्था किस काम की जो आम आदमी की जान ले ले।
लगता तो नहीं कि व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होगा, हां उसे अपने बेटे की मौत के बदले में कुछ लाख रुपए की मुआवजा राशि जरूर दे दी जाएगी कि ये लो तुम्हारे बेटे की कीमत और चुप हो जाओ, जो चल रहा है उसे चलने दो........

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

हो गए 1000 विजिटर्स

जी, बिल्कुल सही समझे आप, मेरे ब्लॉग पर विजिट करने वालों की संख्या 1000 तक पहुंच गई है। यह मैं नहीं ब्लॉग पर लगा गेट विजेट बता रहा है।

इस मौके पर मैं आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, जो मेरे ब्लॉग पर आए। कुछ मुझे जानते होंगे और कुछ नहीं। लेकिन, अब आप चुंकि ब्लॉग पर आ ही गए हैं तो जान ही गए होंगे। वास्तव में यह क्षण मुझे बहुत गौरवांवित महसूस करा रहा है। इसलिए जैसे ही मेरी नजर 1000 विजिटर्स पर गई मैं खुद को रोक नहीं पाया और आपका शुक्रिया अदा करने आ गया।
बहुत से लोग एक दो बार ही मेरे ब्लॉग पर आए होंगे और कुछ कई बार। आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है कि कृपया अपना प्यार और मार्गदर्शन इसी तरह बनाए रखें, ताकि समय-समय पर कुछ अच्छा लिखने का साहस कर सकूं। वैसे तो पोस्ट के नीचे टिप्पणी की संख्या से मुझे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता पर अगर लिखे को कोई अच्छा बताता है तो जाहिर सी बात है खुशी होती है।
मैं अक्सर देखता हूं कि जो भी मैं लिखता हूं बहुत सारे लोग उसकी प्रशांसा ही करते हैं पर एक और निवदेन मैं इस मौके पर करना चाहता हूं कि अगर कोई बात अखर रही है और आलोचना करना चाहते हैं तो तर्कों के साथ आइए, अपनी बात रखिए, आपका स्वागत है। मैं उन लोगों में से नहीं जो सिर्फ प्रशंसा सुनना चाहते हैं आलोचना नहीं, बल्कि मुझे आलोचक ज्यादा पसंद आते हैं। वे आपको आपकी गलती बताते हैं, जिससे सुधार किया जा सके।

अक्सर देखा होगा कि जब किसी खेल में किसी खिलाड़ी को मैच का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया जाता है तो वह ज्यादा बोल नहीं पाता। कुछ कुछ ऐसा ही हाल मेरा है, मैं लिख नहीं पा रहा हूं। बस इतना ही कहना चाहता हूं कि आपका बहुत बहुत शुक्रिया अपने आशीर्वाद दिया। उम्मीद करता हूं आगे भी आपका मार्गदर्शन और प्यार बना रहेगा।

आइए अब देखते हैं कहां कहां से लोगों ने मुझे आशीर्वाद दिया।

भारत ८४४
यूनाइटेड स्टेट ११४
कनाडा १०
आस्टे्रेलिया ८
यूनाइटेड किंगडम ८
थाइलैंड 5
यूएई ३
साउदी अरब
ओमान १
रवांडा १
सिनेगल १
यूरोप १
युके्रन १
जर्मनी १

सोमवार, जुलाई 05, 2010

कैसा रहा भारत बंद ?

आज भारत बंद रहा। क्यों? महंगाई बहुत हो गई है, इसे कम होना चाहिए। विपक्ष ने मांग की थी भारत बंद की। बंद सफल रहा या असफल यह अलग बात है, लेकिन क्या मिला इस बंद से जरा इस पर गौर फरमाइए।
बंद का असर किस पर पड़ा। गरीबों पर या फिर रहीसों पर। जो इस महंगाई में पिस रहा है उस पर या फिर.......। बाजार बंद रहे। सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा। जिन लोगों ने दुकानें खोलीं भी उन्हें बंद करा दिया गया। क्यों? अरे भारत बंद है भई, तुम दुकान कैसे खोल सकते हो। अगर दुकान खोल ली तो बंद असफल नहीं हो जाएगा, विपक्ष का मखौल नहीं उड़ेगा। एक अदने से दुकानदार की वजह से पूरे विपक्ष के किए धरे पर पानी फिर जाए, ये कैसे हो सकता है।
इस भारत बंद से क्या मिला। पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन और पता नहीं किस किस के दाम कम हो गए क्या ? चलो नहीं भी हुए तो क्या आश्वासन ही मिला है कि सरकार दाम कम करने की कोशिश कर रही है, जल्द ही कीमतें काबू में आ जाएंगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ। सरकार ने तो बंद के एक दिन पहले ही कह दिया था कि कीमतें किसी भी कीमत पर कम नहीं होंगी।
फिर बंद का फायदा क्या? जिनके घर महीने भर का राशन एक ही दिन आ जाता है उन्हें तो कुछ फर्क नहीं पड़ा। फर्क उन्हें पड़ा जो रोज कमाई कर आटा, सब्जी और सरसों का तेल लेकर घर जाते हैं। आज न तो वे कमाई कर पाए और न ही घर जाते समय खाने का सामान ही ले जा पाए। असर उन ठेली वालों पर पड़ा जिनकी ठेली पर आज कोई नहीं आया। आए भी तो वही भारत के सबसे जिम्मेदार नागरिक। यह कहने की ठेली हटा लो, आज भारत बंद है। मना किया तो डरया धमकाया और सामना इधर उधर फेंक दिया।
क्या इसीलिए भारत बंद हुआ? क्या यही इसका मकसद था? नहीं तो क्यों बेवजह का ड्रामा किया गया। आपके यहां कैसे हालात थे। जैसे मैंने लिखा वैसा ही या इससे कुछ जुदा। बताएंगे तो अच्छा लगेगा। नहीं बताएंगे तो भी कोई बात नहीं।

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