रविवार, जनवरी 31, 2010

पत्रकार होना पाप है क्या





दीपक शर्मा

साप्ताहिक अवकाश समाप्त होने के बाद अलीगढ़ से वापस आगरा जा रहा था। बस में चार पांच वृद्ध लोग मिल गए। सभी पवन कुमार वर्मा के ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के सच्चे प्रतिनिधि थे।

पता नहीं किस बात से बात शुरू हुई और जल्द ही मेरे काम के बारे में पूछ बैठे। जवाब मिलने पर उन्हीं में से एक बोले...क्या.. अखबार में नौकरी करते हो। (उल्लेखनीय है कि वह सभी अपनी-अपनी पारिवारिक और संतानों द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों के संबंध में आपस में स्पर्धा कर रहे थे)। मेरी अखबार की नौकरी के लिए ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे में कोई पिछड़ा हुआ काम करता हूं।

....खैर अगले 20 मिनट उन्होंने मुझे बताने में लगाए कि मीडिया बिक गया है। सब कुछ मैनेज होता है। कुछ नहीं कर सकता। तुम ही क्या कर लोगे। इस बीच मैने अपना पेशागत अत्मसम्मान बचाने का असफल प्रयास करते हुए कहा भी कि बाबूजी मैं तो केवल नौकरी करता हूं।..भ्रष्टाचार सभी क्षेत्रों में है।...भष्टाचार द्विपक्षीय क्रिया है आदि..आदि...लेकिन वह नहीं माने।

उन्होंने यह एक पक्षीय निष्कर्ष निकाल लिया..। उनके अनुसार अन्य सैंकड़ों युवाओं की तरह मैं भी उस आराम तलब युवा पीड़ी का हिस्सा हूं, जो संघर्ष से कोसों दूर हैं। क्योंकि संघर्ष तो सिर्फ उनकी संतानों ने किया है। जो कहीं पर प्रबंधक है। तो कोई कहीं न कहीं वैल सैटल्ड है। पुत्रियों को भी अच्छा दहेज देकर शानदार जगह भेजा गया। (यहां पर वह दहेज की रकम का उल्लेख करना भी नहीं भूले)

...सादाबाद तक आते आते मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैनें उनकी उम्र और बालों की सफेदी को दरकिनार करते हुए प्रतिरोध करने का मन बनाया।...इस प्रकार की चेष्टा के साथ कि आस-पास के अन्य यात्री भी सुन लें। एक बुजुर्ग से कहा कि बाबूजी आप किस विभाग से रिटायर हैं--बोले मैं आगरा यूनिवर्सिटी में प्रवक्ता था। दूसरे से पूछा तो पता चला बैंक से रिटायर थे। एक बुजर्ग ने यह भी बताया कि वह स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। 15 साल की उम्र में जेल चले गए थे।
....मैनें पहले बुजुर्ग से कहा जिस वक्त आप प्रवक्ता बने उस समय नेट जैसी परीक्षा नहीं थी। एमए करने के बाद सीधे पढ़ाने का अवसर मिलता था। बाद में नौकरी वरिष्ठों के आशीर्वाद पर बढ़ती रहती थी। सवाल के लहजे में पूछा.. आप नेट परीक्षा आज की तारीख में क्लीयर करके फिर से लेक्चरर बन सकेंगे। बैंक वालों से कहा आज क्लर्क के लिए भी बैंक भर्ती बोर्ड है। चपरासी तक के लिए स्पर्धा है। क्या आप आप बैंकिंग की भर्ती परीक्षा की रीजनिंग सॉल्ब करने का दावा करते हैं। .....स्वतंत्रता सेनानी जी से भी कहा...आप के समय में जिसने भी बोल दिया इन्कलाब जिन्दाबाद वह देशभक्त हो गया। आज में भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मर भी जाऊं तो कोई मुझे देशभक्त नहीं बल्कि आप जैसे ही मुझे बेवकूफ कहेंगे। चौथे बुजुर्ग से भी कहा कि जिस पिता ने अपनी पुत्री के लिए रिश्ता देखते समय यह देखा हो कि लड़के की उपरी कमाई कितनी है। उसे भ्रष्टाचार पर बात करने का भी नैतिक अधिकार नहीं है।...

यही स्थित अन्य बुजुर्गों के समक्ष रखी।...कुछ निरुत्तर रहे तो एक दो ने इसे मेरी कोरी लफ्फाजी बताया। लेकिन इस बीच मैनें बस में अपना आत्म सम्मान बचाने लायक समर्थन जुटा लिया।...मैनें जोड़ा कि क्यों बुजुर्गों को अपने समय का संघर्ष सबसे जटिल, अपने समय की युवाअवस्था सबसे आदर्शमयी लगती है। जबकि आज स्पर्धा के चलते कदम-कदम पर अस्तित्व के लिए एक जंग लड़नी पड़ रही है।
...इस पूरे प्ररकरण में मुझे अभिव्यक्तिजन्य संतुष्टि मली। साथ ही कुछ सह यात्रियों की प्रशंसा। एक चीज और मिली। दो सीटों के बाद कस्बाई लुक लिए एक वृद्धा बैठी थी। कुछ सेकेंडों के मौन के बीच उसने कहा..सही कह रहयौ है लल्लू। मैनें इसे अपने दृष्टिकोण को उचित ठहराने का सबसे मजबूत आधार माना।


लेखक हिन्दी दैनिक डीएलए में कार्यरत हैं। यह पोस्ट उनके ब्लाग चबूतरा से साभार ली गई है। चाहें तो अन्य पोस्ट उनके ब्लाग पर जाकर देख सकते हैं। लेखक से 9837017406, 9359252126 पर सम्पर्क किया जा सकता है।

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

एक सानिया सौ अफसाने

खबर आई है कि टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा की सगाई टूट गई है। कुछ के लिए यह खबर राहत देने वाली हो सकती है। खुद सानिया के लिए भी। नहीं तो सानिया खुद इस बात का ऐलान क्यों करतीं।
खैर।

बात सानिया की हो और अफवाहें जन्म न ले संभव नहीं। शायद सानिया और अफवाहों का हमेशा का साथ है। जब 10 जुलाई को सानिया की सगाई हुई तो न जाने कितने कुंआरों की उम्मीदों पर जैसे वर्जपात हो गया। ऐसा नहीं है कि उन्हें सानिया से कुछ उम्मीद थी पर न जानें क्यों मैं अक्सर देखता हूं कि किसी क्षेत्र के सितारे की जब शादी तय होती है तो उनको चाहने वालों को धक्का जैसा लगता है। क्यों ऐसा होता है यह नहीं जानता पर होता है, ये मैंने देखा है।

बात उन दिनों की है जब मैं देहरादून में था। कुछ खास काम नहीं था। टीवी था केबल कनेक्शन था। खबरें देखने और सुनने का शौक बचपन से था। बात जब दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला और महानायक के पुत्र का विवाह हो तो भला कौन अपने आप को रोक पाएगा। बात ये भी थी लेकिन हकीकत यह भी है कि मीडिया ने शादी को इतना हाइप दिया कि मैं भी अपने आप को उस मोहपाश में बांधने से रोक नहीं पाया।

शादी हो रही थी अभिषेक और एश्वर्या की और न जाने कितने दिलों पर सांप लोट रहा था। ऐसा नहीं है उनमें सिर्फ एश्वर्या के ही दीवाने थे। अभिषेक के चाहने वालियों का भी आंकडा अच्छा खास था। कहने का मतलब है कि ऐसे मौकों पर लडकियां भी अपनी दीवानी दिखाने में पीछे नहीं रहतीं। सलमान खान के दीवानों की दीवानगी दस का दम में देखने को मिली। उनकी अभी तक शादी नहीं हुई है पर चाहने वाले उनके बच्चों के लिए कपडे ला रहे थे। कोई सलमान को छूकर अपने आप को धन्य समझ रही थी तो कोई देखकर। सच ही है दीवाने है दीवानों का न घर चाहिए मस्ती भरी एक नजर चाहिए।

तो बात सानिया की। सानिया की सगाई होना जितना बडा चर्चा का विषय था उससे ज्याद सगाई का टूट जाना। क्यों। क्योंकि इससे अफवहों को जन्म मिला। अभी करीब 15 दिन पहले ही सानिया ने कहा था कि शादी के बाद वह टेनिस को तलाक दे देंगी। माना जा रहा है कि शादी टूटने का कारण यही है। उनकी ससुराल वाले परम्परावादी हैं और नहीं चाहते थे कि उनकी बहू छोटे छोटे कपडे पहन कर टेनिस कोर्ट में उतरे। पुरानी कहावत है जितने मुंह उतनी बातें। तो वही हुआ भी। किसी का कहना है कि मोहम्म सोहराब के घर वालों को सानिया और इरफान पठान की नजदीकी नागवार गुजरी और दोनों परिवारों ने भरे मन से यह फैसला लिया। खैर अफवहें तो अफवाहें है क्या कीजिएगा।

हाल ही की बात करें तो सानिया बहुत ही खराब फार्म से जूझ रहीं है। क्या वाकई सानिया का खेल खराब हुआ है या फिर पारिवारिक उलझनों की बजह से ये सब हुआ।

गुरुवार, जनवरी 28, 2010

अब सोचता हूं

तुमने मुझे देखा

कुछ इस तरह

कि मंत्रमु्ग्ध मैं

दौडकर पहुंच गया

तुम्हारे पास

वर्जनाओं की लौह दीवार

लंघकर

क्षितिज के उस पार

तस्वीर की सारी रेखाएं

जहां आधी अधूरी हैं

अपूर्ण हैं

अब सोचता हूं

अपूर्णता ही पूर्णता है क्या

बुधवार, जनवरी 20, 2010

शोले और थ्री ईडियट



माफ कीजिएगा पर यह तुलना कुछ जंची नहीं। बात कर रहा हूं फिल्म थ्री ईडियट की। इसकी रिलीज के मात्र एक हफ्ते बाद ही कहा जाने लगा कि इसने अब तक के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। देखा तो पता चला कि कमाई के मामले में। फिल्म ने पहले तो गजनी का रिकार्ड तोड उसके बाद शोले का।
याद आ रहा है कुछ समय पहले एक खबर मिली थी कि शोले का रिकार्ड टूट गया है। जानकारी की तो पता चला कि दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे अब हिन्दी फिल्म इतिहास की अब तक की सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म हो गई है। अच्छा तो लगा कि चलो अब भी इस तरह की फिल्में बन रही हैं जो रिकार्ड तोड रही हैं लेकिन सच बताउ तो थोडा बुरा भी लगा। पता नहीं क्यों शोले से कहीं किसी की तुलना की जाती है मन व्यथित होता है। कई बार कोशिश की कि जान पाउं ऐसा क्यों होता है पर नाकामी ही हाथ लगी। आज भी ऐसा होता है।

अब बात थ्री ईडियट और शोले की तुलना की। कहा जा रहा है कि फिल्म ने केवल दस दिनों में ही करीब 250 करोड की कमाई कर शोले का रिकार्ड तोड दिया। अब सवाल यह है कि क्या 34 साल पहले 1975 में रिलीज किसी फिल्म का रिकार्ड आज बाकई तोडा जा सकता है। यहां गौर हो कि जिस शोले को हम अब की सार्वकालिक हिट फिल्म मानते हैं वह भी शुरू में फ्लाप घोषित की जा चुकी थी। ऐसा नहीं है कि ऐसा शोले के ही साथ हुआ हो। अगर ज्यादा दूर न जाएं तो कहो न प्यार है के साथ भी ऐसा ही हुआ था। अब सब जानते हैं कि कहो न प्यार ने क्या इतिहास रचा था।

खैर बात शोले और थ्री ईडियट की। जब जानकारी की तो पता चला कि 15 अगस्त 1975 मे शोले के करीब 100 प्रिंट जारी किए हुए थे और थ्री ईडिएट के करीब 2000 प्रिंट जारी किए गए। शोले मुंबई के मिनर्वा थियेटर में 25 साल तक चली। क्या आज से साल भर बाद कोई भी थ्री ईडियट को सिनेमा हाल में देखने जाएगा। मुझे नहीं लगता। कुछ महीनों के बाद थ्री ईडियट टीवी पर आ जाएगी शोले भी टीवी पर दिखाई गई मगर कब यह बडा सवाल है। जो शख्स फिल्म की रिलीज के दिन पैदा हुआ होगा उसने अगर संभव हुआ होगा तो सिल्बर जुबली और गोल्डन जुबली शो देखा होगा। मगर क्या थ्री ईडियट के इस तरह के शो होंगे कहना मुशिकल है। शोले का एक एक डायलाग हर किसी की जुबान पर चढा हुआ है मगर क्या आल इज वेल की अलावा फिल्म का कोई डायलाग याद रखा जा सकता है। शोले में असली हीरो कौन था कहना संभव नहीं है। अमिताभ, धमेन्द्र, अमजद खान, संजीव कुमार या कि जया, हेमा। सब अपने आप में हीरो ही थे। थ्री ईडियट में निर्विवाद रूप से आमिर ही असली हीरो हैं। कहना न होगा कि उनके चक्कर में माधवन और शरमन जोशी की चरित्र दबा दिये गए हैं। जिस फिल्म को बीबीसी ने सदी की फिल्म बताया हो उसकी तुलना हर ऐरी गैरी नत्थू गैरी फिल्म से क्यों।

दरअसल, एक चीज लोगों ने पकड ली है ही कि तुलना करो तो उसस जो उस समय सबसे शीर्ष पर हो। शाहरुख खान पंगा लेंगे तो अनिल कपूर जैकी श्राफ या संजय दत्त से नही बलिक अमिताभ बच्चन से। क्यों क्योंकि वे शीर्ष पर है। वीरेंद्र सहवाग की तुलना होगी तो राहुल द्रविड या सौरभ गांगुली से नही बलिक सचिन तेंदुलकर से क्यों क्योंकि वे शीर्ष पर है। यही नहीं कई भाई लोगों ने नई नवेली सुनिधि चौहान की तुलना लता जी से करनी शुरू कर दी थी। आज सुनिधि कहां है कितने गाने गातीं है किसी को नहीं पता। ऐसे ही न जाने कितने ही उदाहरण है। असल में इससे होता ये है कि जब आप शीर्ष पर बैठे किसी शख्स से तुलना करते है तो आपके इर्द गिर्द जो भी है या आपसे कुछ आगे भी है वह आपसे एक झटके में पीछे हो जाता है। लोगों को लगा कि इसी में सफलता निहित है।

बात फिर ईडियट की। याद आता है कि फिल्म की रिलीज के पहले आमिर खान ने दुनिया को दिखाने के लिए कैसी नौटंकी की। देश भर में घूमे। लोगों के बताया कि उनकी अगली यात्रा के बारे में किसी को पता ही नहीं लेकिन भीतर ही भीतर मीडिया के सम्पर्क में रहे और उसे अपने इंटरव्ये के लिए आमंत्रित करते रहे। क्या ऐसा या इससे कम प्रचार का सहारा शोले ने लिया था। कहने को कहा जा सकता है कि तब प्रचार के ऐसे माध्यम उपलब्ध ही नहीं थे। लेकिन एक फ्लाप घोषित की जा चुकी फिल्म ने इतिहास रचा यह बात किसी से छिपी नहीं है। याद आ रहा है कि थ्री ईडियट के रिलीज के एक दिन बाद की समीक्षा में ही एक पत्रकार महोदय ने इसे हिट करार दे दिया था। टीवी पर भी इसके पक्ष में खूब कसीदे पढे। कहना न होगा कि आज लोग इतने जागरुक हो गए हैं कि समीक्षा पढ कर या टीवी पर समीक्षा देख कर फिल्म देखने जाते हैं। और मीडिया तो आमिर के मोहपाश में प्रचार के दौरान से ही आ चुकी थी।
फिल्म हिट हो और खूब हिट हो। खूब पैसा कमाए। किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। दरअसल दिक्कत तो तब होती है जब हर फिल्म की तुलना शोले से होती है। तुलना करें अच्छी बात है पर माफ कीजिएगा शोले को बख्श दीजिए। प्लीज।

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

कितने ईडियट


जब हम हंसने पर उतारू होते हैं तो क्या सब कुछ भूल जाते हैं। अपना देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और बडों का सम्मान सब कुछ। अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं तो हिन्दी फिल्म के इतिहास में अब तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली थ्री ईडियट देखिये। फिल्म अस्वस्थ मनोरंजन से भरपूर है। क्योंकि स्वस्थ मनोरंजन के लिए दिमाग की जरूरत पडती है और राजू हिरानी अपनी फिल्मों में इसका इस्तेमाल नहीं करते। मैं यह तो नहीं कह सकता कि वह उनके पास है नहीं यह तो आप उनकी पिछली फिल्मों के देख कर ही बतायें। अब तक मैं यह समझने की असफल कोशिश कर रहा हूं कि राजू हिरानी और विधू विनोद चोपडा आखिर फिल्म के माध्यम से कहना क्या चाहते हैं। यह ठीक है कि हमारी शिक्षा प्रणाली में कुछ खामियां हैं पर ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ गलत ही है। जिन्होंने शिक्षा प्रणाली बनाई वह वेबकूफ ही हैं। ध्यान दें आमिर खान के और उसके साथी जिसका मजाक उडाते रहते हैं और जो हमारी शिक्षा प्रणाली पर भरोसा करता है वह फेल नहीं होता वह भी दूसरा स्थान पाता हूं। मौलिकता अपनी जगह है पर ऐसा भी नहीं है कि बाकी सब गलत है। अगर राजू और विनोद को गलत लगता है तो वह यह क्यों नहीं बताते कि सही क्या है और क्या किया जाना चाहिए। किसी भी चीज का मजाक उडाना या उपहास करना आसान है। लेकिन अगर यह गलत है तो सही क्या है यह कोई नहीं बताता। अगर आपको नहीं पता कि सही क्या है तो गलत बताने के भी अधिकारी आप नहीं रह जाते। राजू ने फिल्म में जो दिखाया है क्या उसको वह सही ठहरा सकते हैं। सीनियर छात्र जूनियरों की अश्लील और भदृदे तरीके से रैगिंग लेते हैं क्या वह सही है। क्या वह सीन राजू या विनोद खुद अपने बच्चों या परिवार की बुजुर्ग महिलाओं के साथ बैठकर देख सकते हैं। प्राचार्य के आफिस से प्रश्न पत्र चुराने का तरीका राजू ने जो दिखाया है क्या राजू ऐसे ही परचा चोरी कर पढ गए। हमारी संस्कृति में शिक्षक का दरजा ईश्वर से भी उपर बताया गया है लेकिन राजू साहब की फिल्म में प्राचार्य की कितनी तौहीन की गई है सबने देखा। हंसी मजाक और पढाई को बोझ की तरह न लेना ठीक है लेकिन गंभीरता से पढाई करने वालों का अपमान कहां तक उचित है। ये तो कुछ सामान्य बातें हैं एक बार तो राजू ने कमाल ही कर दिया। चमत्कार और धन को उन्होंने जिन शब्दों से प्रतिस्थापित किया है उसका तो जवाब ही नहीं। यही नहीं उन शब्दों का लगातार कई बार इस्तेमाल करना क्या दर्शाता है। मैं पत्रकार हूं और लगभग रोज ही रेप आदि खबरें आती हैं लेकिन उन खबरों को बनाते समय कितनी सावधानी बरतनी होती है हर पत्रकार जानता है। जिस दूसरे शब्द का इस्तेमाल राजू बार बार करते है वह शब्द तो हम जल्दी इस्तेमाल ही नहीं करते। सबसे रोचक तथ्य तो उनका इस्तेमाल है। यानी उसके आगे पीछे किन शब्दों को उन्होंने लगाया है यह पटकथा लेखक की संवेदनशीलता को ही दिखाता है। एक गर्भवती महिला की कुछ नौसिखियों से प्रसव करा कर राजू क्या डाक्टरों को नाकार साबित करना चाहते हैं। राजू साहब ने यह भी तरीका बता दिया है कि अपनी मरजी से आप कैसे हवाई जहाज को रुकवा सकते हैं। पता नहीं राजू साहब क्या कहना चाहते हैं। आप की समझ में आ जाए तो बताईयेगा।

गुरुवार, जनवरी 14, 2010

सत्य के लिए

यह कविता मेरे वरिष्ठ सहयोगी आशुतोष प्रताप सिंह ने लिखी है। हालांकि वे अपना ब्लाग आशुतोषप्रतापसडाटब्लागस्पाटडाटकाम चलाते हैं लेकिन किन्हीं कारणों से यह कविता उनके ब्लाग पर नहीं बलि्क मेरे ब्लाग पर है। अनुरोध है कि इस कविता पर खुल कर प्रतिकि्रया दें जिससे की उनकी कुछ और रचनाओं को अपने ब्लाग पर स्थान देने का साहस कर सकूं। आशू जी की अन्य कविताओं के लिए आप चाहें तो उनके ब्लाग पर भी जा सकते हैं। लिंक यही मौजूद है।
पंकज मिश्रा

सत्य के लिए
प्राण उत्सर्ग
चाहिए
जीवट सा संघर्ष
न्याय के लिए
जिए जो
सिरजे तो माधुर्य
बांट दे अमिय
गरल को स्वयं
पिये जो
वो
विवेक से पूर
चूर आनंद नित्य
चितवन में
आश्विस्त
अभय
की दृिष्ट
कहा जिसने
देश के भाग्य
नहीं सोने दूं गा
जीवन भर मैं जाग
अहो मेरे भारत
तुझे सौभाग्य
नक्षत्रों की शैय्या दूंगा
और जागा जो
जिसके सिंहनाद से
टूटी मरणनींद
चीर तमघना
देश यह
धन्य बना
पुनरः
सुने यह देश
विवेकानंद
जन्म दे
कोई परमहंस दे
जो जिए
और मर सके
तेरे ही लिए
और,
यह कर न सके
तो पि्रय
नपुंसकों की
प्रसव भूमि
बन्ध्या कर दे।

रविवार, जनवरी 10, 2010

थरूर को नहीं शऊर

कहने के लिए कोई कह सकता है कि मैं शशि थरूर के पीछे पड गया हूं। पर हर समझदार यह जानता है कि मैं कहां और थरूर साहब कहां। इस बार मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज थरूर साहब ने कहा है कि मीडिया को समाचार संकलन में अधिक सजग और प्रासंगिक होना चाहिए। उनका आरोप है कि उनकी बात को गलत तरीके से पेश किया गया है।
मेरी समझ में नहीं आता कि अक्सर लोग मीडिया पर यह आरोप क्यों लगाते हैं कि उनकी बात को तोड मरोड कर पेश किया गया। उन्होंने वास्तव में वह कहा ही नहीं जो अखबार में छपा या फिर टीवी पर दिखाया गया। मैं सभी से निवेदन करना चाहता हूं कि वे जब भी मीडिया से बात करें तो अपनी बात को पूरी तरह स्पष्ट कर दें ताकि मीडिया उसके गलत निहिताथर् न निकाल सके।
कहने को थरूर साहब ने यह कह भले दिया हो कि उनकी बात का गलत मतलब निकाला गया है जबकि हकीकत यह है कि थरूर साहब को दो पैसे का भी शऊर नहीं है। दरअसल थरूर साहब ने यह इस बात का समर्थन तो कर दिया लेकिन बाद में उन्हें याद आया कि जिस व्यकित की उन्होंने आलोचना की है वह है कौन। थरूर के लिए राहत की बात यह रही कि उन्होंने इस बार मुंह से बोला था टिवटर पर लिखा नहीं था। यही एक बात उनके पक्ष में गई नहीं तो इस बार थरूर साहब की छुट्टी तय थी। थरूर यह कह कर बच गए कि जो बताया जा रहा है वह उन्होंने कहा ही नहीं।
हालांकि मैं इस बात से सहमत हूं कि थरूर साहब ने जो कहा वह गलत नहीं था। भले ही उन्होंने अब कह दिया हो कि उनका ऐसा मानना नहीं है। लेकिन मुझे थरूर की इस बात पर हंसी आ रही है कि बोलते बोलते वह यह भी भूल गए कि वे किस बात पर टिप्पणी कर रहे हैं और किसकी आलोचना कर रहे हैं। मैं मानता हूं कि इस समय संप्रग सरकार का जो मंत्रिमंडल है उनमें से थरूर साहब कुछ विदवानों में से एक हैं पर उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कब, कहां और कैसे बोला जाए। उम्मीद है कि थरूर साहब आगे से सोच कर ही नहीं बरन समझ कर भी बोलेंगे।

क्या होगा ऐसे प्रतिबंध से

वैसे, कहा जाता है कि जब कोई मामला न्यायालय में विचाराधीन हो तो उस पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। लेकिन कम से कम ब्लाग पर तो लिख ही सकता हूं। सो लिख दे रहा हूं। हो सकता है कि यह अदालत की अवमानना हो। अगर हो तो मुझे माफ कर दें।दरअसल, मैं जो बात कहना चाहता हूं वह यह है कि पता चला है कि जम्मू कश्मीर में प्री पेड मोबाइल पर प्रतिबंध जारी रहेगा। ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि संभावना जताई जा रही है कि अगर प्रतिबंध हटा दिया जाता है तो आतंकी उसका गलत फायदा उठा सकते हैं। मेरा सवाल यह है कि अभी दो दिन पहले ही आतंकवादियों ने श्रीनगर में हमला कर दिया और उनको मार गिराने में हमें करीब 22 घंटे का समय लग गया। पता चला है कि आतंकी पाकिस्तान में अपने आकाओं से बात कर रहे थे। मेरी परेशानी यह है कि आतंकियों को जो करना था किया फिर हमारी सुरक्षा व्यवस्था से क्या हासिल। जिन्हें जो करना है करते हैं। परेशान आम आदमी ही होता है।
केन्द्र सरकार का इरादा। सीमा पर से सेना हटाने का भी है। मुंबई में जब आतंकी घुस आए तो उन्हें मार गिराने में हमें चार दिन का समय लग गया। श्रीनगर में दो आतंकी हमला करते हैं तो उनसे हम 22 घंटे तक मुकाबला करते रहते हैं। इस दौरान हमारे भी सैनिक मारे जाते हैं। हम बडे खुश हो जाते हैं कि हमने आतंकियों को मार दिया, पर इस दौरान जो सैनिक हताहत हुए उसका क्या। कुछ नहीं। हालांकि मेरे इस ब्लाग लिखने से कुछ खास होगा नहीं। न तो मेरी आवाज भारत सरकार तक पहुंचेगी और न हीं वहां तक जहां से इस बारे में कुछ निणय लिये जाते हैं। लेकिन फिर भी अपनी बात रखने और आवाज बुलंद करने का एक मंच है वहां कम से कम अपनी परेशानी तो रख ही सकता हूं।

शनिवार, जनवरी 02, 2010

वह दर्द तुम्हारा है

तुम्हारे सिवा भी
दर्द बहुत थे

कुछ मिट गए,

कुछ बीत गए
कुछ रीत गए

बाकी सब

रह रहकर चुभते है

पर

एक वो जो न बीता न रीता

और न ही भूला
और चुभाना तो दूर

जिस कमबखत ने छुआ तक नहीं मुझे

बस एक आदत सा

साथ साथ चलता है


राग राग में बसा रहता है

पर आज भी कुआर है

वह दर्द तुहारा है

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