रविवार, जून 16, 2013

लोहा दे दो लोहा

उन्हें लोहा चाहिए। किसलिए??? लोहा काटने के लिए???? लेकिन वे तो किसी का लोहा मानते ही नहीं। वे खुद को पुरुष नहीं, महापुरुष भी नहीं बल्कि लोहा पुरुष कहलाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं। लोहे को काटने के लिए लोहे की ही जरूरत पड़ती है। उन्हें लोहा किस लोहे को काटने के लिए चाहिए। एक लोहा थे, उन्हीं के दल में। उन्हें तो ऐसा काटा कि अब वे मोम भी नहीं रह गए। न तो कोई देख रहा है और न ही पूछ रहा है। वे तो लग गए ठिकाने। अब दूसरा किसे काटने की तैयारी वे कर रहे हैं, यह सवाल खड़ा है।
खैर, लोहा देने वाला भी तैयार हैं। जगह-जगह से आवाज आ रही है कि हमसे लोहा ले लो हमसे। इस ध्वनि का शोर इतना है कि रोज सुबह लोहा-टीन बेचो की आवाज लगाने वाले भी परेशान हैं कि पूरे देश का लोहा जब यही ले लेंगे, तो हमारे लिए क्या बचेगा। रद्दी, अखबार और टीन खरीदकर ही काम चलाना पड़ेगा। लेकिन उससे क्या होगा। जितना मुनाफा लोहे में है, उतना और किसी में नहीं। रोजी-रोटी पर भी संकट आ सकता है। एक स्वर में आवाज उठ रही है, यह आदमी हमारे धंधे की वाट लगाने पर तुला है। अपना काम तो ठीक से करता नहीं। हम रोज कमाने और रोज खाने वालों के लिए सिरदर्दी पैदा कर दी है। यह तय हो गया है कि अगर  फिर से इस आदमी ने लोहे की बात भी जुबान से निकाली तो फिर देखो। हम कैसे लोहा लेते हैं। घर-घर जाकर लोहा लेना हमारा तो पुश्तैनी काम है। ये तो अभी बस शुरू ही करने वाले हैं। ये कल का छोरा और अन्य कामों में  चाहे जितना माहिर हो, लेकिन लोहा!!!!!!! वो हमसे बेहतर कोई नहीं ले सकता।

गुरुवार, जून 13, 2013

राजनीति के सौरभ गांगुली

उनसे कहा जा रहा है कि कप्तान होते हुए भी वे टीम से बाहर बैठें। टीम में उनकी कोई जरूरत नहीं, लेकिन कप्तान बने रहें। अगर कभी भूले भटके टीम में शामिल हो भी गए तो नॉनस्ट्राइकिंग एंड पर खड़े होकर सिर्फ मैच का मजा लें। लेकिन वे हैं कि मानते ही नहीं। दिल है कि मानता ही नहीं की तरह। उनका कहना है कि टीम इंडिया को बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदाना है। दरअसल टीम इंडिया उन्हीं का दिया हुआ नाम है। इससे  पहले भारतीय क्रिकेट टीम बोली जाती थी। उन्हीं ने टीम में वह जोश और जुनून भरा जोकि अब टीम लगातार जीत रही है। इसका के्रडिट कोई और कैसे ले सकता है। उनको याद दिलाया गया 2003 जब टीम फाइनल में पहुंचकर भी विश्वकप नहीं जीत पाई थी। उनका जवाब होता है कि यह क्या कोई कम बात है। कपिल देव के अलावा क्या कोई और कप्तान देश को फाइनल तक में पहुंचा पाया है। समय दीजिए, मौका आने दीजिए जीत कर भी दिखा देंगे। उनका से कहा जा रहा है कि देश के युवाओं को आगे आने दीजिए। तुरंत उनका जवाब आता है, युवाओं का जितना सहयोग मैंने किया है। उतना किसी ने नहीं किया। उदाहरण के लिए वे कुछ नाम भी गिना देते हैं। हरभजन सिंह, युवराज सिंह, वीरेंदे्र सहवाग आदि आदि। उन्हें एक और ऑफर दिया गया। कहा गया कि ठीक है आप टीम के सलाहकार बन जाइए। लेकिन नहीं। वे इसके लिए भी तैयार नहीं। सलाहकार क्या होता है????? जब तक जान में जान है, कप्तान ही रहेंगे। मानेंगे नहीं। ताज्जुब की बात यह है कि जिन डालमियां ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया वही डालमियां अब उनकी कारगुजारियों से परेशान हो गए हैं। उन्होंने भी सोच लिया है, आओ बेटा कर लो जो कुछ करना है, मौका मिला तो ऐसा घपचेटूंगा कि जमाना याद करेगा।
खैर, इसी का नतीजा रहा कि उन्हें बेइज्जत होकर टीम से बाहर होना पड़ा। अब घर-घर इस्तीफा लिए घूम रहे हैं, उसे भी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। सब मना कर रहे हैं। जब उनकी इज्जत नहीं तो इस्तीफे की कौन करे। अंतत: जनता की बेहद मांग पर धौनी को कप्तान बना दिया गया और वे मुंह टापते रह गए।


अपनी बात

ब्लाग बनाना अपने आप में बड़ा काम है। अगर बना भी लिया तो लिखना बड़ा काम है। और अगर लिख  भी लिया तो उसे लगातार लिखना तो बाकई बहुत बड़ा काम है। आप लगातर लिखते रहिए। लेकिन, कहीं एक बार ऐसा हुआ कि आपसे लिखना छूटा तो फिर आप देखेंगे कि फिर से लिखना आप महीनों नहीं सालों बाद भी नहीं कर पाएंगे। कई बार आप इसलिए लिखना छोड़ देते हैं कि आपके पास समय नहीं होता। या फिर कई बार लिखने के लिए भी कुछ नहीं होता। लेकिन कुछ ही दिन बाद आप देखते हैं कि आपके पास ज्यादा नहीं तो कम से कम इतना समय तो है ही कि कुछ लिख सकें। कई बार मौका और दस्तूर देखकर विचार भी आते हैं। कई बार आइडिया भी अच्छा आता है। लेकिन आप लिख नहीं सकते। क्यों??? क्योंकि आप लिखना छोड़ जो चुके हैं।
फेसबुक क्या आया सब तितर-बितर हो गया। मैं अकेला ही ऐसा नहीं  हूं जो ब्लाग लिखना छोड़ चुका था। मेरे जैसे न जानें कितने ऐसे लोग हैं। कुछ दिन तो ऐसे भी कटे जबकि लिखता भले नहीं था, लेकिन पढ़ता जरूर था। लेकिन कुछ ही समय बीता था कि अन्य लिखने वाले भी कम हो गए। कम क्या हो गए। शिफ्ट हो गए। बड़ी संख्या में लोग फेसबुक पर चले गए। फेसबुक के फायदे जो अनेक थे। एक बड़ा फायदा तो यह था कि जो व्यक्ति आपसे जुड़ा है उसे आपका लिखा हुआ जरूर दिखेगा। अगर कोई आपके लिखे की तारीफ करना चाहता है और लिखना नहीं चाहता तो लाइक का बटन चटका सकता है। आपको पता चल जाएगा कि उसे आपकी बात अच्छी लगी। ब्लाग के आगमन पर जैसे तमाम रचनाकर पैदा हो गए थे वैसे ही फेसबुक ने भी कई रचनाकार जन्मा दिए। सच्चाई तो यह है कि मैं भी कहीं न कहीं उसी की उपज हूं। मैं किसी अखबार का सम्पादक तो हूं नहीं कि जो बात ब्लाग पर लिखूं वह अपने अखबार के सम्पादकीय में चिपका लूं। और न ही किसी टीवी चैनल का प्राइम टाइम एंकर कि एक घंटे बहस करे। कुछ पत्रकार बिठा ले, कुछ पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं को बिठा लूं और लगूं ज्ञान बांचने। उसमें से जो भी लब्बोलुआब निकले वह कहीं छपने  के लिए भेज दूं।
हम पत्रकारों के साथ बड़ा संकट पहचान का होता है। प्रिंट मीडिया में यह संकट और भी गहरा जाता है। टीवी पर शाम को आपका चेहरा किसी अच्छे चैनल पर दो बार दिखा नहीं कि आप बड़े पत्रकार हो जाते हैं। जनता मान लेती है कि   आप बहुत बड़े ज्ञानी हैं। प्रधानमंत्री वहीं करता है जो आप कहते हैं। भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान आपके टीवी प्रोग्राम को देखकर ही यह तय करता है कि अंतिम ग्याहर कौन हों, आदि, आदि। हम डेस्क वालों का संकट सबसे विचित्र है।  रिपोर्टर का नाम भी किसी अखबार में चार-छह बार छप जाए तो एक क्षेत्र विशेष के लोग जरूर आपको जानने लगते हैं। चेहरे से सही नाम ही काफी है। लेकिन डेस्क वाले को शायद ही कोई जानता हो। कम ही लोग जानते हैं कि जो कुछ भी अखबार में सुबह छपता है वह आपने कितनी मेहतन से बनाया, सजाया और संवारा है। नाम भले ही रिपोर्टर का छप रहा है, लेकिन उसमें बड़ा योगदान आपका भी है। आप बाहर बताते रहिए कि साहब मैं फलां अखबार में हूं। कोई नहीं मानता। कई बार तो स्थितियां ऐसी भी आईं कि कहीं गया और बताया कि मैं फलां जगह हूं। तो सामने वाले ने मुझसे जूनियर रिपोर्टर को फोन करके तस्दीक की कि मैं सही हूं या नहीं।
तो कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि ब्लाग और फेसबुक ने इस संकट को काफी हद तक दूर किया था। लेकिन इसमें भी शर्त यह है कि  आप लगातार लिख रहे हैं कि नहीं। आप लाख अच्छा लिखते हों। आपकी शैली में कितना भी फ्लो हो। आपने लिखना छोड़ा नहीं कि  आप गए। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे इस बारे में यूं ही बात की और कहा कि तुम्हारा ब्लाग काफी रिच हो गया है उसे लिखना क्यों नहीं जारी रखते। लिखने की बात तो बहुत दिन से सोच रहा था लेकिन बात वही कि मुहूर्त नहीं निकल पा रहा था। उन्होंने कहा था कि अब और कुछ करने का समय तो निकल चुका है, जो कुछ लिख दोगे वही बचेगा। उनकी बात मानते हुए आज फिर से ब्लाग का श्रीगणेश कर रहा हूं। कोशिश यही करूंगा कि हर चार-छह दिन पर कुछ न कुछ लिखता रहूं। आपको पसंद आए या फिर न आए। वैसे भी ऐसा कुछ लिखने में तो समय लगेगा जो सबको पसंद आए, फिर भी कोशिश जारी रहेगी। आज ज्यादा कुछ न लिखते हुए सिर्फ अपनी बात लिख रहा हूं। देखते हैं कितने लोग इस पसंद करते हैं. . . . . . .

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails