शनिवार, जून 06, 2009

वंशवादी राजनीति और कांग्रेस

नई सरकार का गठन हो गया है। सरकार ने काम काज संभाल लिया है। राष्ट्रपति का अभिभाषण भी हो गया है। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। जिस दिन मंत्रिमंडल का दूसरे दिन का विस्तार किया गया, उसी दिन से एक बात सुर्खियों में रही की इस बार मंत्रिमंडल में परिवारवाद हावी है। इस परिवारवाद को युवाओं को राजनीति में लाने के नाम पर आगे किया जा रहा है। नई कैबिनेट में कुल 16 मंत्री ऐसे है जो किसी न किसी बड़े राजनेता के रिश्तेदार है । यानी मंत्रिमंडल का कुल 20 फीसद। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है । नेता हमेशा से इस प्रयास में रहते है की उनके ठीक ठाक रहते उनका कोई रिश्तेदार राजनीति में अपनी जड़ें जमा ले।
दुखद तथ्य तो ये है की नस्लाबादी संस्कृति को बदाबा देना मूलतः कांग्रेस ने शुरू किया। देश के पहले प्रधानमंत्री और बच्चों के बड़े प्यारे दुलारे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से वंशवादी राजनीति की नींव राखी। नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा को बदाबा दिया जो बाद में संजय और राजीव को राजनीत में लाईं। और इसी के बाद का इतिहास तो मुझे लगता है सभी जानते है।
अगर हम गौर करें तो पाएंगे की सरदार पटेल ही एक ऐसे नेता थे जिन्होंने वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया। इसके बाद तमाम प्रधानमन्त्री और विभिना प्रदेशों के मुख्यमंत्री अपने पुत्र -पुत्रियों को आगे लाये। कैरों से लेकर करूणानिधि। पन्त से लेकर परमार्थ। देवीलाल से भजन लाल। चरण सिंह से अर्जुन सिंह और देवेगौडा तक वंशवाद जारी है। बात १९६० की है प्रसिद्ध पत्रकार फ्रैंक मौरांस ने लिखा था की इस बात का सवाल ही नहीं उठता की जवाहर लाल नेहरू अपनी वंशनुगत राजनीति की स्थापना का प्रयास कर रहे है। उन्होंने लिखा की यह बात पंडित नेहरू के चरित्र और राजनितिक जीवन से मेल ही नहीं खाती। गौर करिए के यह बात 1960 में लिखी गई थी। यह व्ही साल था जब जवाहर लाल नेहरू की पुत्री कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पहला कार्यकाल पूरा किया ही था। इस कार्यकाल के बाद इंदिरा गाँधी घर की देखभाल तक सीमित हो गयीं थी। 1984 में पंडित नेहरू का निधन हो गया। प्रधानमन्त्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने इंदिरा को कनिष्क मंत्री के रूप me अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। 1966 में शास्त्री का भी निधन हो गया। इसके बाद कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने इंदिरा को प्रधानमंत्री ने नियुक्त किया। इस के कारणों पर अगर जायें तो पता चलता है की यह निर्णय इसलिए हुआ क्योंकि उस समय नेता अपने बीच में से किसे को प्रधानमंत्री चुनने के लिए तैयार नहीं थे। इस सब को जानने के बाद लगता है की कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की शुरुआत वास्तव में नेहरू ने नहीं बल्कि इंदिरा ने शरू की थी। नेहरू पर हमेशा अपनी पुत्री को बढ़ावा देने के आरोप लगते रहे। लेकिन नेहरू ने कभी भी प्रत्यक्ष रूप से इस विषय पर अपने विचार व्यक्त नहीं किया। इंदिरा गाँधी अपने राजनितिक उत्तराधिकारी के रूप में संजय गाँधी को सामने लायें। 1975-77 के समय में जब आपातकाल लगा था तब बिना कुछ बने ही संजय अपनी माँ के बाद दुसरे सबसे शत्तिशाली व्यक्ति थे । उस समय संजय न तो संसद थे और न ही मंत्री। संजय ने 1977 में चुनाव लड़ा, पर वे हार गए। इसके बाद तीन साल बाद वे संसद के लिए चुने गए। इससे स्पस्ट संकेत मिलते है की इंदिरा गाँधी अपने पुत्र को ही अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहतीं थीं। न जाने कौन से वो पल होंगे जब जवाहर लाल नेहरू ने इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनबा दिया। नेहरू को आगे बढ़ने वाले गाँधी जी और नेहरू के समकालीन सरदार बल्लभ भाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद आदि ने कभी अपने परिवार को राजनीति में लाने का प्रयास नहीं किया। इंदिरा गाँधी ने संजय और फ़िर राजीव को राजनीति में अपना उत्तराधिकारी बना कर कांग्रेस नेताओं की परम्परा को तोडा। 1990 के बाद भारतीय राजनीति पर परिवारवाद बुरी तरह हाबी हो गया। जिसका नया रूप आज आप के सामने है .

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