शनिवार, अप्रैल 03, 2010

लार्ड मैकाले और उनका गाउन

मौका भोपाल के भारतीय वन प्रबंधन संस्थान के सातवें दीक्षांत समारोह का। बतौर मुख्य अतिथि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश। और यह क्या मंत्री जी ने दीक्षांत समारोह में पहना जाने वाला गाउन यह कहते हुए उतार कर फेंक दिया कि आजादी के साठ साल बाद भी मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि हम ब्रिटिश राज का यह बर्बर प्रतीक क्यों ढो रहे हैं। वह यहीं नहीं रुके और वहां उपसि्थत लोगों के सवाल किया कि सामान्य पोशाक दीक्षांत समारोह में क्यों नहीं पहन सकते। उन्होंने राय दी कि मध्ययुगीन पादरियों और उनके प्रतिनिधियों की ओर से आरम्भ किए गए रीति रिवाज की जगह हमें इस समारोह में सामान्य पोशाक में ही नजर आना चाहिए।
लेने को रमेश के इस बयान को किसी भी रूप में लिया जाए। हो सकता है कल को इसे लेकर खूब हल्ला हो लेकिन रमेश की बात में कितना दम है यह उसी हाल में तब पता चला जब उनकी बात खत्म होने पर हाल तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा।
हो सकता है रमेश का यह कदम क्रांतिकारी कदम साबित हो। लेकिन यह जानना आवश्यक है कि इस क्रांति की पहली नींव पंजाब में रखी गई। वहां के छात्रों ने तो करीब दो साल पहले ही इस बात का विरोध शुरू कर दिया था। यहां के चार कालेज के छात्र लगातार इसका विरोध करते रहे। फगवाडा के कमला नेहरु कालेज फार वूमेन में दीक्षांत समारोह के दौरान छात्रों ने शपथ ली कि वह अपना दीक्षांत समारोह बिना गाउन के मनाएंगे। बटाला के बीयू क्रिशि्चयन कालेज के छात्रों ने दीक्षांत समारोह से पहले तो गाउन पहने पर लेकिन भाषण के बाद गाउन उतार कर फेंक दिए। उन्होंने गाउन के बिना ही डिग्री ग्रहण की। पंजाब के ही जलंधर में एसडी कालेज फार वूमेन में छात्राओं ने तो गाउन पहने पर शिक्षकों ने नहीं। एक और उदाहरण शांति देवी आर्य महिला कालेज गुरदारपुर की 46 छात्राओं ने समारोह में बिना गाउन पहने डिग्री हासिल की। यही नहीं यह छात्राएं अन्य छात्राओं को भी गाउन त्यागने के लिए प्ररित कर रही हैं। पंजाब की स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री तो किसी दीक्षांत समारोह में इसी शर्त पर जाती हैं कि वहां कोई गाउन न पहने।
आइये अब यह जानते हैं कि इस गाउन की कहानी आखिर क्या है। दरअसल दीक्षांत समारोह में गाउन पहनने का अधिकार उन छात्रों को मिलता है जो विश्वविद्यालय या कालेज से स्नातक या स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करते हैं। गाउन पहने की परंपरा सालों पहले शुरू हुई थी। इसकी नींव रखने वाले लार्ड मैकाले माने जाते हैं। दरअसल हमारी पूरी शिक्षा पद्धति ही उनकी देन है सो यह भी। कई देशों में स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों के लिए अलग अलग गाउन होते हैं। गाउन को रोब भी कहा जाता है और इसके साथ कैप और हूड भी पहनी जाती है। विदेशों में बिना गाउन के किसी छात्र को डिग्री नहीं दी जाती।
मजे की बात यह है कि जिस काले रंग को दुख और भय का प्रतीक माना जाता है उसे छात्र अपने जीवन के सबसे अनमोल क्षण में पहनते हैं। क्या कहने इस रिवाज के। क्या गाउन पहन कर डिग्री न लेने से इसका प्रभाव कम हो जाता हैं। ऐसा कुछ भी नहीं तो फिर क्यों नहीं खडे हो जाते इस नीति के विरोध में। आपका इस विषय में क्या सोचना है हो सके तो बताएं।

15 टिप्‍पणियां:

मसिजीवी ने कहा…

निश्चित तौर पर कान्‍वोकेशन गाउन गुलाम मानसिकता के प्रतीक हैं। हमारा दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय तो अभी तक इसे ढो रहा है पर गनीमत है कि जेएनयू इसे सिरे से..संस्‍थाई तौर पर खारिज करता है।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बात कुछ हद तक सही है। निश्चित रूप से गुलामी का प्रतीक गाउन निषिद्ध हो ही जाना चाहिए। लेकिन सामान्य वस्त्रों से मैं सहमत नहीं हूँ। हमें उस अवसर के लिए कोई भारतीय पोशाक निर्धारित करनी चाहिए।

अनुनाद सिंह ने कहा…

बिना गाउन पहने या भारतीय परिधान पहनकर उपाधि लेने का यह आन्दोलन और प्रखर हो, यही कामना है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

यह गुलामी का प्रतीक चिब्न हटना ही चाहिए!

अफ़लातून ने कहा…

अपने अनुनाद जी से इस बात पर सहमत ।

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

पुरुषों के लिए कौशेय, धोती औए पगड़ी
महिलाओं के लिए साड़ी, कंचुकी और पगड़ी

तक्षशिला और नालन्दा को ध्यान में रख कर डिजाइन किए जा सकते हैं।

बेनामी ने कहा…

girijesh tumko dhoti bandhni aati hai kya??

jugal ने कहा…

जय राम रमेश के बयान के बाद इस मामले को लेकर बहस वाजिब है। बहस ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि लाड मैकाले की अवधारणा अब भी हमारे शैक्षिक परिवेष में कायम है। ऐसे में अब देर से ही सही सरकार को इस अवधारणा के समूलनाश की पहल करनी ही चाहिए।

www.जीवन के अनुभव ने कहा…

ek din me kuchh kam se hight coart gai. mujhe vo goun dekhakar achchha nahi laga. vakai usase mahasus hota he ki ham aaj bhi us gulami ki jakdan se ajad nahi huye he.

Anurag Geete ने कहा…

अच्छा पोस्ट.... भारतीय कई जगह आज भी उपनिवेश मानसिकता से जी रहे है, उम्मीद है वक़्त की बयार हमें इन चीजो से भी छुटकारा दिला देगी.

क्या लिखू, क्या कहूं? ने कहा…

पंकज भाई, मैं नहीं मानता की हमें गाउन उतारने की जरूरत है... अगर कॉनवोकेशन में गाउन पहनने से गुलामी झलकती है तो आपसे कहूंगा कि सभी विदेशी परिधान उतार फेंके... अन्डरवियर की जगह लंगोट पहनें... पैंट-शर्ट की जगह धोती कुर्ता या पायजामा पहनें... हैट नहीं पगड़ी या साफा बांधे... डायनिंग टेबल और कटलरि की जगह जमीन पर बैठकर पीडे पर थाली रख कर खाना खाए... बात गाउन की नहीं हैं... बात इसकी है कि कौन सी बात या वस्तु किस लिए है... कब इस्तेमाल होती है... अब हटाना है तो पूरा राष्ट्रपति भवन हटाओ... उसको तो भी अंग्रेजो ने ही डिजायन किया है... जयराम रमेश इतने ही स्वदेशी हैं तो गाउन उतारने के बाद अपना भाषण अंग्रेजी में क्यों दिया... पंजाबी या हिंदी या क्षेत्रिय भाषा में क्यों नहीं... हमें गाउन बदलने की नहीं, अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

स्नातकों के जीवन का यह एक महत्त्वपूर्ण क्षण होता है और राष्ट्र की समृद्ध शैक्षिक विरासत यदि इस समय पहने जाने वाले वस्त्रों में दिखाई दे तो अच्छा हो।
जब अंतर्राष्ट्रीय खेलों जैसे ओलम्पिक में खिलाड़ी भारतीय वेश भूषा में उतरते हैं तो उसके कुछ मायने होते हैं, उस पगड़ी और साफे के भी मायने होते हैं।

बेनामी जी, गिरिजेश को धोती बाँधनी और पहननी आती है।

पंकज ने कहा…

हम जब हर बात में गुलामी देखते हैं तो ये हमारी गुलाम मानसिकता का प्रमाण है.

Durgesh Mishra ने कहा…

lard makale ke gaun ka wirodh to hona hi chahie. tabse lekar abtak na jane kya-kya badl chuka hai, nahi bdla to yah chola. jyram ramesh ne iske khilaf aawaj uthaka achha kam kiya hai. isase pahle pujab dh swasthya mantri lakshimikanta chawla ne uthai thee. aab murlimanohar joshi ne sansad men bahas ka mudda bnane kee bat kahi hai. ise kahten hay ek ke pichhe ek chale to bante hai karwan.

रामनारायण सोनी ने कहा…

सामाजिक क्रांति के पूर्व वैचारिक क्रांति की छटपटाहट एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण में प्रसव पीड़ा के समान है. इसके बीना हम अपनी अस्मिता प्राप्त नहीं कर सकते
रामनारायण सोनी
mail_soniwwz@gmail.com

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