रविवार, मार्च 14, 2010
बचाएं ताल तलैया और पोखर को
दुर्गेश कुमार मिश्रा
आफिस में बैठे खबरों की एडिंग कर रहा था उसी क्रम में अंबाला के किसी गांव की खबर हमारे सामने एडिट के लिए आयी, जिसमे लिखा था महिलाएं पीने के पानी के लिए दूसरे गांव जाती हैं, कारण गांव में लगा सरकारी नलकूप एक साल से खाराब पडा है। समझ में नहीं आता कि लोगों को हो क्या गया है। लगते।लगते तो लगा होगा और बनते.बनते ही तो बनेगा। इसमें घबराने की बात नहीं है। गांव वासियों थोडा धीरज धारो, सरकारी काम है, हो जाएगा। इससे अच्छे थे हमारे दादा, पडदादा के दिन। जब गांव में न नलकूप थे और न ही बिजली। उनका इन सब चीजों से कोइ सरोकार भी नहीं था। होता भी कैसे। उनके जमाने में तो ताल तलैया और कुआं जो हुआ करते थे। जहां गांव की औरतें पानी भरने जाती थीं ओ भी एक दो नहीं पूरे झूंड की झूड। उन्हें तो थकान भी नहीं आती थी। बल्कि उसी में वे अपना मनोरंजन भी कर लेती थीं। उस समय पनघट पर जातीं पनिहारिनों के पाजेब से उठती छन.छन की आवाज फिजा में एक अलग तरह की संगीत पैदा करती थी। यदी इस झूंड में साल दो साल की दुल्हन शामिल हो तो क्या कहना। औरतें एक दूसरे से चुटकी लेती मजाक करती पानी से भरा एक घडा सिर पर तो दूसरा बगल में दबाए खिलखिलाती हुइ अपने घर को आतीं थीं। इसके अलावा और भी उनके जिम्मे बहुत सारे काम होते थे। ना किसी से कोइ शिकवा ना शिकायत। और एक ये आज का समाज है। ना गांव में कुएं दिख रहे हैं और ना ही ताल तलैया और पोखर। और ना तो पनिहारिनों का वह झूडं जो भाटके हुए बटोही को रास्ता बता सके। आखिर क्यों हम पुराने संसाधानों से मुंह मोड रहे हैं। एक न एक दिन हमें दुबारा उन्हीं संसाधनों की तरफ मुंह करना होगा, जिनसे हम आज मुंह मोड रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे हलवायी की दुकान पर इंतजार करता है किसी ग्रांहक का कि कोइ उसे भी खरिदे, लेकिन रोज आ रही तरह. तरह की मिठाइयो की भीड में दुबका बैठा रहता है। परंतु जब कोई खास मौका आता है तो खोत शरू हो जाती है उसी लड्डू की जो हलवाई की दुकान पर अपने को उपेक्षित महसूस करता है। तो आइए, हम बचाएं ताल, तलैया, पोखर और कुओं के अस्तीत्व को। ताकि, पानी के लिए हमें भटकना न पडे।
लेखक पत्रकार हैं और इस समय हिन्दी दैनिक आज समाज अम्बाला में कार्यरत हैं।
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