शनिवार, जुलाई 10, 2010

काफिले में बुझा चिराग-ए-अमन

एक हिन्दू और एक मुसलमान। जब खाप पंचायत के नाम पर लोग एक ही सम्प्रदाय में विवाह के लिए मौत तक का फरमान जारी कर सकते हैं ऐसे में अलग अलग सम्प्रदायों को मानने वाले शादी के बारे में कैसे सोच सकते हैं। खासकर हिन्दू और मुसलमान में तो बिल्कुल भी नहीं। लेकिन, उन्होंने न सिर्फ सोचा बल्कि किया भी।
तसदुद्दीन और ऊषा शर्मा ने विवाह के लिए परिवार वालों, आस पड़ोस वालों और समाज से न जाने क्या क्या सुना। लेकिन, किसी की परवाह नहीं की। प्यार किया, शादी की और इज्जत के साथ समाज में रहने लगे। कुछ दिन बाद उनके एक पुत्र हुआ। नाम रखा 'अमनÓ। इसलिए कि लोगों को बताना जो था कि एक हिन्दू और मुसलमान शादी करके कैसे अमन के साथ जी सकते हैं। ये कट्टरवादियों के मुंह पर एक जोरदार तमाचे की तरह था। लेकिन.... लेकिन.... लेकिन शायद उनकी यह खुशी कुछ ही दिन की थी। दस साल का होते होते अमन मौत के आगोश में समा चुका था। एक तरह से उसकी हत्या की गई थी। और हत्या का कारण बना हमारे देश का प्रधानमंत्री। जी, मनमोहन सिंह।
अमन एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया। परिजन उसे लेकर अस्पताल जा रहे थे, लेकिन उसी दिन हमारे प्रधानमंत्री जी उसी शहर कानपुर में आना था। उनकी सुरक्षा के लिए ऐसे बंदोबस्त की परिंदा भी आसमान से उडऩे से पहले घबरा जाए और दस बार सोचे। एक तरफ उनकी सुरक्षा में लगे जवान और दूसरी ओर अपने घर के इकलौते चिराग की जान की भीख मांगते अमन के माता पिता। हालात ऐसे कि किसी का भी कलेजा मुंह में आ जाए, लेकिन अमन को खून से तर-बतर देखने के बाद भी किसी का दिल नहीं पसीजा। उन्हें अस्पताल नहीं जाने दिया गया। सो तसदुद्दीन और उषा का इकलौता चिराग और हिन्दू -मुस्लिम एकता का प्रतीक रास्ते में ही मिट गया।
संभव है अगर अमन सही समय पर अस्पताल पहुंच गया होता तो बच जाता। लेकिन, अफसोस ऐसा नहीं हो सका। मैं प्रधानमंत्री की सुरक्षा की खिलाफत नहीं कर रहा। किसी भी देश के प्रधानमंंत्री की सुरक्षा की जानी चाहिए। बात जब भारत की हो तो मामला और भी गंभीर हो जाता है। लेकिन, सुरक्षा के नाम पर किसी की बलि ले ली जाए तो कहना पड़ता है। सुरक्षा अपनी जगह है पर आम आदमी की जान की कुछ तो कीमत होनी चाहिए। क्या प्रधानमंत्री की सुरक्षा में जवान अपने वाहन से अमन को अस्पताल नहीं ले जा सकते थे? अगर किसी नेता या अधिकारी के साथ या उनके परिजन के साथ ऐसा होता तो भी जवान ऐसे ही अपना कत्र्तव्य निभाते या फिर कोई रास्ता निकालते ? एक बड़ा सवाल यहां यह भी उठता है कि अमन की मौत का जिम्मेदार किसे माना जाए? प्रधानमंत्री को ? इस व्यवस्था को ? या फिर किसी और को ? जाहिर सी बात है जिम्मेदार किसी और को ही माना जाएगा। कोई और इतना शक्तिशाली जो नहीं है। मामला कोई भी हो गलत काम की जिम्मेदारी हमेशा कमजोर की ही बनती है। क्योंकि उसकी सबसे बड़ी गलती यही है कि वह कमजोर है। और विडम्बना ये है कि वह शक्तिशाली बन भी नहीं सकता। क्योंकि शक्तिशाली नहीं चाहेंगे कि कोई कमजोर उनके करीब आए।
दुखियारी मां ने प्रधानमंत्री से तो कुछ नहीं कहा, क्योंकि देश की जनता की तरह वह अभागी भी जानती है कि वे कुछ नहीं कर सकते। हालांकि उसने सोनिया गांधी से जरूर गुहार लगाई है। उषा ने उन्हें एक पत्र लिखा है और याद दिलाया है कि अपनों से दूर होने का गम कैसा होता है और जब हालात ऐसे हों। उषा ने अपने लिए कोई मुआवजा नहीं मांगा है बल्कि इस व्यवस्था को बदलने की मांग की है। ऐसी व्यवस्था किस काम की जो आम आदमी की जान ले ले।
लगता तो नहीं कि व्यवस्था में कुछ परिवर्तन होगा, हां उसे अपने बेटे की मौत के बदले में कुछ लाख रुपए की मुआवजा राशि जरूर दे दी जाएगी कि ये लो तुम्हारे बेटे की कीमत और चुप हो जाओ, जो चल रहा है उसे चलने दो........

12 टिप्‍पणियां:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

पंकज जी, होनी को कऊन टाल सकता है... मोर लॉयल दैन द किंग वाला कहावत त सुनबे किए होंगे, ई सब उसी परम्परा का देन है... अफसोस त होबे करता है... लेकिन जिसके ऊपर बीतता है उसका दर्द ओही समझ सकता है, अऊर ओही बर्दास्त करता है... मीडिया एक रोज बोलकर चुप हो जाएगा, आप दू दिन बाद अगिला पोस्ट में हॉलैंड, चाहे स्पेन के जीत का बिगुल बजा रहे होंगे... मगर ऊसा का जीबन में जो संध्या आया है उसका कोई ऊसा नहीं आने वाला... दोस, मुआबजा, अफसोस एगो माँ का सूना गोद नहीं भर सकता है.

समयचक्र ने कहा…

बहुत ही दुखद है..... आजकल आमखासों की परवाह की जाती है....

PRAVIN ने कहा…

आपकी पोस्ट में आम आदमी का दर्द है। यह वही दर्द है जो वीआईपी के रसूख से कुचलने के बाद आत्मा में धुंध की तरह छा जाती है, हर तरफ आम होने की सजा...। इस पोस्ट पर आपकी लेखनी के लिए बस इतना ही कि खूब...बहुत खूब

avadhesh gupta ने कहा…

बहुत खूब पंकज जी, व्यवस्था पर करारी चोट है। वैसे यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। कई मर्तबा वीआईपी के आने से लोगों को हो रही परेशानियों पर सवाल उठाए गए, लेकिन वे सवाल ही रह गए। अमन की मां ने सोनिया गांधी को पत्र लिखा, यदि उनके पत्र पर राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष एक मां की तरह गौर करती हैं, तो उम्मीद है, कोई और अमन इसका शिकार न होगा। अगर हम ये कहें कि जितना अधिकारी दिखाते हैं, उतना होता नहीं है, तो गलत न होगा। वरना राष्ट्रीय त्योहारों के समय कितनी चुस्तता बरती जाती है, कई बार समाचार चैनलों में आ चुका है। अपना अनुभव यहां बांटना चाहूंगा कि करीब तीन साल पहले मैं ईटीवी में था। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आने वाले थे। राष्ट्रपति हैं तो जाहिर है, सुरक्षा व्यवस्था भी चाक-चौबंद होंगी ही। जहां से भी राष्ट्रपति का काफिला गुजरने वाला था, उन सड़कों पर दोनों तरफ से यातायात आधा घंटे पहले ही रोक दिया गया। चूंकि मैं चप्पे-चप्पे से परिचित था, गलियों में से निकल जाता था। लोगों से मैंने बात की। हर किसी का यही कहना था कि इसका विकल्प ढूंढा जाए। यह खबर प्रसारित हुई। खबर की प्रशंसा भी हुई। तब भी ईटीवी ने एक सवाल उठाया था कि 'क्या वीआईपी के आने पर सुरक्षा के नाम पर जनता को वेवजह परेशान करना उचित हैÓ? करीब ८० प्रतिशत लोगों ने इसे नकारा। अंतत: यही कहना चाहूंगा कि देश के प्रतिनिधि की सुरक्षा भी जरूरी है, लेकिन इसका विकल्प खोजा जाए और यदि इस तरह का कोई केस सामने आता है, पहले मरीज को निकलने दिया जाए। मैं नहीं समझता कि कोई भी वीआईपी ऐसी खबर सुनकर या देखकर कि उसके काफिले की वजह से किसी की जान खतरे में है, नहीं रुकेगा।

समय ने कहा…

आपके सरोकार और पक्षधरता प्रभावित करती है। अच्छी रिपोर्ट।

शुक्रिया।

Prem Farukhabadi ने कहा…

Bahut hi bebaak dhang se lekh likha hai aapne. Badhai!!
kamjoron ka sakoon unki kismat unka khuda hai.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

पंकज जी,
"काफिले में बुझा चिराग-ए-अमन" आलेख पढ़ कर मन ख़राब हो गया ।
इन नेताओं की सांसें जाने कितनों की ज़िंदगियां पी पी कर ही चलती हैं … और मा'सूमियत यह कि इन्हें अहसास भी नहीं होता ।
बिहारी ब्लॉगर बंधु और भाई अवधेश गुप्ता जी ने मेरे मन की ही बात कही है ।

बहरहाल , जागरुकता का परिचय देने के लिए आभार , बधाई , स्वागत !
शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , आइए…

- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

बड़ी विड़म्बना है पंकज जी इस देश में... नेता यूं तो कहने को जनता के नौकर हैं, लेकिन जैसे ही कुर्सी पाते हैं जनता पर हुकुम चलाने लगते हैं। उफ ! कैसे नौकर हैं कैसे हैं। खैर अब बात उस दुखियारी मां की... जिसके आंसुओं का कोई ठिकाना नहीं। मैं रात को दफ्तर से घर पहुंचा तो खबरिया चैनल लगा लिया। वहीं खबर सुनी की पीएम की वीआईपी सुरक्षा व्यवस्था ने एक बालक की जान ले ली। बहुत सोचा यार, उस बालक को निकल जाने देते तो उसकी जान बच जाती लेकिन, वीआईपियों के स्वागत में हमारा प्रशासन जनता के दर्द को भूल जाता है। घंटा भर पहले से रास्ते रोक दिए जाते हैं। मरीजों को भी रास्ता क्रोस नहीं करने दिया जाता। सुना है उस दुखियारी मां ने मैडम सोनिया को पत्र लिखा है, शायद आंसुओं से लिखी मां की चिट्ठी काम कर जाए। और भविष्य में इस बात का कोई उपाया सोचा जाए की वीआईपी विजिट के दौरान आमजन को परेशानी न हो। फिर किसी किसी अमन की जान न जाए...

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

दर्दनाक हादसा ..! पढ़कर बेहद तकलीफ हुई..हे भगवान उनकी झोली में एक अमन डाल दे ..ताकि वे बाक़ी उम्र उसी के प्यार के बहाने जी सकें.

Shekhar Kumawat ने कहा…

बहुत ही दुखद है.....

sandhyagupta ने कहा…

सुरक्षा अपनी जगह है पर आम आदमी की जान की कुछ तो कीमत होनी चाहिए।

Ye baat hamare aakaon ko kaun samjhaye?

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सच कहा आपने, जो चल रहा है, सभी उसे चलते रहने देना चाहते हैं, चाहे-अनचाहे।
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पॉल बाबा की जादुई शक्ति के राज़।
सावधान, आपकी प्रोफाइल आपके कमेंट्स खा रही है।

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