रविवार, जून 27, 2010

मुन्नाभाई कौन

फिर धरे गए मुन्नाभाई। एक और मुन्नाभाई, मुन्नाभाई कर रहे इलाज, मुन्नाभाइयों पर प्रशासन की नजर, अब मुन्नाभाइयों की खैर नहीं और न जाने क्या क्या। इस तरह की हेडिंग अक्सर समाचार पत्रों में पढऩे के लिए मिल जाती हैं। अक्सर तब, जब मेडिकल या फिर अन्य किसी की प्रवेश परीक्षाएं चल रही होती हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर ये मुन्नाभाई है कौन। क्या यह राजकुमार हीरानी की बनाई गई फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस का जिक्र हो रहा है। जवाब होगा हां। फिल्म में मुन्नाभाई का किरदार संजय दत्त ने निभाया था। उसके पिता चाहते हैं कि वह डॉक्टर बन जाए, लेकिन वह असल में आपराधिक प्रवृत्ति का शख्स होता है। स्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह पिता को खुश करने के लिए मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेता है। उसकी उम्र बहुत हो चुकी है, लेकिन अपने साथी सर्किट के सहयोग से तमाम तरह के गलत हथकंडे अपनाकर वह मेडिकल कॉलेज में दाखिला पा लेता है। उसके बाद क्या होता है इस पर जाउंगा तो विषयांतर हो जाएगा।
मूल बात पर आते हैं। चूंकि फिल्म का किरदार गलत तरीके अपनाकर प्रवेश पा जाता है इसलिए अखबारों में एक चलन चल पड़ा है कि जैसे ही कोई गलत तरीकों से परीक्षा देते पकड़ा जाता है तो अखबारों हेडिंग लगा दी जाती है, मुन्नाभाई धरे गए। यह कह पाना मुश्किल है कि यह प्रयोग किसने शुरू किया पर आजकल यह खूब चलन में है। लगभग सभी अखबारों और सभी क्षेत्रों में। सवाल यह भी है कि क्या यह सही है? जो लोग नकल करते या दूसरों की जगह परीक्षा देते पकड़े जाते हैं, वह सभी वाकई मुन्नाभाई हैं? क्या उनमें वे भी गुण हैं, जो फिल्म के मुन्नाभाई में थे? क्या वह लोगों के दुखदर्द को उसी शिद्दत से समझते हैं जितना फिल्मी मुन्नाभाई समझता है? क्या वह दूसरों के लिए जान देने की हिम्मत रखता है? सवाल कई हैं पर जवाब का पता नहीं।
याद पड़ता है कि कुछ समय पहले एनडीटीवी के रवीश जी ने पप्पू को लेकर एक रिपोर्ट की थी, जिसमें कई पप्पुओं की पीड़ा उभर कर सामने आई थी। एक विज्ञापन आता था पप्पू पास हो गया। रवीश जी ने बहुत शानदार तरीके से रिपोर्ट को बनाया और अपने ब्लॉग नई सड़क पर लिखा भी। हमारे देश में जितना प्रचलित नाम पप्पू है, शायद उतना ही मुन्ना भी। हर घर में अगर पप्पू मिल जाएगा तो हर एक घर छोड़कर कोई न कोई मुन्ना भी होता है। पप्पू की पीड़ा तो रवीश जी ने समझी पर मुन्ना की पीड़ा। उसका क्या होगा। क्या पप्पू की पीड़ा पीड़ा है और मुन्ना की पीड़ा ड्रामा। अगर ऐसा नहीं है तो मुन्ना के साथ यह खिलवाड़ क्यों हो रहा है? मैं भी एक पत्रकार हूं और अपने अखबार में कोशिश करता हूं कि इस तरह की हेडिंग न जाए, जिससे किसी मुन्ना का दिल दुखे फिर भी ऐसा हो रहा है। मैं अपने इस ब्लॉग के माध्यम से उन सभी मुन्नाओं का क्षमा प्रार्थी हूं, जिन्हें इस तरह की हेडिंग पढ़कर ठेस लगती हो लेकिन मुन्ना जैसा दिल रखना हर किसी के वश की बात नहीं।

18 टिप्‍पणियां:

avadhesh gupta ने कहा…

पंकज जी, आपने मुन्ना की दुखती रग पर हाथ रखा। आपको साधुवाद। आप पत्रकार हैं, तो निश्चित ही अखबारी दुनिया से अच्छी तरह वाकिफ होंगे। दरअसल, जब मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म आई थी, तभी से ये शख्स प्रचलन में आए। हालांकि इससे पहले भी मुन्नाभाई थे, लेकिन सिर्फ मुंबईया भाईयों की दुनिया में, जिससे लोग डरते थे। लेकिन फिल्म के बाद उसका रूप बदल गया, कलेवर बदल गया। इस फिल्म को ज्यादा समय नहीं बीता, उन्हीं दिनों या उससे पहले अखबारी दुनिया में भी हेडिंग पर मेहनत करने और उसे चटपटी बनाने का चलन भी बढ़ा। मुन्नाभाई तब भी उपजे थे, लेकिन दबा दिए गए। कभी कभी हेडिंग से अखबार बिकता है। इसी बात को लेकर संपादकों ने हेडिंग पर भी मेहनत करना शुरू कर दिया। अखबारों में मैगजीन की तरह हेडिंग दी जाने लगी। अलंकारों का प्रयोग, किसी की किसी से तुलना करना। इस तरह के प्रयोग अच्छा माना जाता है। यदि कोई अंधा व्यक्ति हो और वो कवि हो, तो उसे भी तो कहते हैं सूरदास। जब इस तरह की हेडिंग दी जाती है, तो संपादक का उद्देश्य किसी का दिल दुखाना नहीं होता। उसका उद्देश्य हेडिंग को चटपटी बनाना और अपनी बात जनता तक पहुंचाना होता है। यदि खबर के अनुसार कोई मुहावरा सटीक बैठता है, तो वह भी हेडिंग लिखा जा सकता है। इस प्रकार के शब्द संकेतात्मक कहे जाते हैं। सिर्फ संकेत मात्र से लोग समझ जाएं कि खबर क्या है। फिर भी मानता हूं, इस तरह की हेडिंग से बचना चाहिए। आपने सही कहा कि मुन्ना जैसा जिगर कम लोगों के पास होता है। वैसे भी नाम में क्या रखा है। मैं तो इतना जानता हूं कि पांच फीट चंद इंच के हाड़ मांस के पुतले को चाहे जिस नाम से पुकार लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी की पहचान उसके काम और गुण और संस्कारों से होती है।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

पत्रकारिता के धंधे में (शब्द बुरा लगे त छमा कीजिएगा) जब खबर से ज्यादा हेड्लाईन बिकता है त ई मुन्ना अऊर पप्पू का चीज है... सच पूछिए त मुन्ना अऊर पप्पू इसी मीडिया के मेहरबानी से आज व्यक्तिवाचक नहीं, जातिवाचक संज्ञा बन गए हैं...

Udan Tashtari ने कहा…

हाय मुन्ना!!


वाकई उसके जैसा दिल रखना सबके वश की बात नहीं.

बढ़िया चिन्तन!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

मुन्ना जैसा दिल रखना हर किसी के वश की बात नहीं.........यही मूल बात है.

36solutions ने कहा…

पंकज भाई, मुन्‍नाभाई के नाम का इस तरह प्रयोग होते रोज देख रहे हैं इस पर आपका एक पत्रकार होने के नाते ऐसे हेडलाईनों का यह संवेदनात्‍मक विरोध बहुत अच्‍छा लगा.
धन्‍यवाद.

संजीव गौतम ने कहा…

पंकज जी बिलकुल सही बात लेकिन चलन को रोका नहीं जा सकता. हा् आप जैसे जागरूक पत्रकार भाई उसके असर को कुछ कम जरूर कर सकते है् अगर ऐसा हो सके कि ऐसे काम को एक नया नाम दिया जा सके तो शायद ज्यादा सही हो.

राजकुमार सोनी ने कहा…

अच्छी पोस्ट है। काफी खुराक है।

Prem Farukhabadi ने कहा…

सार्थक चिंतन.बधाई !!

ZEAL ने कहा…

Nice to see few sensitive people like you around us, who understood the pain of Munnas and Pappus.

But Pankaj ji, guys with this name got good popularity with these film titles and adds.

Directors reach masses by using these nick names. It is a part of their marketing strategy.

hem pandey ने कहा…

मुन्नाभाई वाले मुद्दे को इतनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है. मुन्नाभाई जिस कृत्य का पर्याय बन गया है, उसे चलने दीजिये.आखिर अनेक स्थान पर मुन्नाभाई की गांधीगिरी की चर्चा भी होती ही है.

संगीता पुरी ने कहा…

काश नकल अच्‍छी बातों की भी की जाती !!

लोकेन्द्र सिंह ने कहा…

अच्छी विषय उठाया। अक्सर हम देखा-देखी या सिर्फ भावावेश में आकर शीर्षकों या शब्दों के साथ कुछ तो भी करने लगते हैं। वास्तव में कोई शब्द अपने आप की एक कहानी समेटे होता है उसका सार समझकर ही सही उपयोग करना चाहिए। ऐसे ही एक शब्द और प्रचलन में है जो इसी फिल्म से लिया गया है 'गांधीगिरीÓ। यह भी निहायत गलत शब्द है। इसका प्रयोग भी बेधड़क किया जा रहा है।

PRAVIN ने कहा…

मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म से समाज में अवतरित हुआ 'मुन्नाभाईÓ टाइटल लोकप्रियता के उफान पर है। कुछ लोगों के लिए यह लोकप्रियता का मापक है तो कुछ के लिए अभिशाप है। कम से कम अखबारों में नकलचियों के लिए एक ही शब्द मुन्नाभाई का इस्तेमाल कर हेडिंग बनाना या तो आलस्य को बताता है या कल्पना शक्ति के हास के साथ नकल की प्रवृत्ति की इनसानी फितरत की। इसमें पिसते हैं समाज के ऐसे मुन्ना नाम के लोग जिनका नकल और फ्राड से कोई वास्ता तो नहीं होता लेकिन अखबारों की हेडिंग से इन पर तोहमत मढ़ दी जाती है, हालांकि इसका कोई गहरा असर नहीं है लेकिन अपने साथियों के बीच मजाक का सबब तो बन ही जाते हैं।
रवीशजी द्वारा पप्पू की पीड़ा समझने के बाद उसी ढर्रे पर 'मुन्नाÓ के दर्द को आपने अपनी पोस्ट से आवाज दी है, जो सराहनीय है। आपने इस संवेदनशील मुद्दे को काफी देर से ही उठाया तो लगा की संवेदना सिर्फ पछाड़ ही नहीं खाती, जरूरत पडऩे पर कभी सौम्यता से तो कभी आक्रोश के साथ अपनी आवाज बुलंद करती है, आपकी पोस्ट काबिलेतारीफ है।

Amitraghat ने कहा…

"पकंज एकदम यथार्थ परक लेख लिखा है हिन्दुस्तान में लकीर के फकीर कई लोग मिल जाएँगे जो कि फेमस नाम को भुनाने के चक्कर में रहते हैं ..बहुत बढ़िया ........"

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

papppu paas ho gaya mere champu

Rajnish tripathi ने कहा…

muna ka dil bhi hindustaani hai pankaj bhai. mja aa gya

wwwkufraraja.blogspot.com

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद ने कहा…

Bahut Badiya lekh pankajji,

Dil ko chhu lene wala lekh.. par shayad aap janate nahi aaj kal MUNNABHAI ke adhunik Model samane aa rahe hai..Jineme kuch SECULAR aur KUCH TOORIN model hai,aur inke dil me Insaniyat aur Hamdardi kabhi ho hi nahi sakti..

Sadhuvaad..

Hindutvaa & Rastravaad...

Dr.Ajit ने कहा…

पंकज भाई,बहुत दिनो से खानाबदोश पर आपका आना नही हुआ,कोई नाराज़गी है क्या?
ब्लागिंग के टिप्पणी आदान-प्रदान के शिष्टाचार के मामले मे मै थोडा जाहिल किस्म का इंसान हूं लेकिन आपमे तो बडप्पन है ना...!

डा.अजीत
www.monkvibes.blogspot.com
www.shesh-fir.blogspot.com

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