बुधवार, अप्रैल 07, 2010

कहां गया बढावन

दुर्गेश मिश्रा

आज अचानक मेरा बेटा मुझसे पूछ बैठा, पिताजी बढावन क्या होता है।मैने पूछा, यह तुमने कहां सुना। उसने तपाक से कहा दादाजी छोटे दादाजी को कह रहे थे कि जो गेहूं की ढेर लगी है उसपर बढावन रख दो।बेटे की बात सुनकर हमें भी दादाजी के साथ बिताया अपना ओ बचपन याद आ गया। जब हम दादाजी के साथ खलिहान में जाया करते थे। वहां एक नहीं दो नहीं बल्कि पूरे गांववाले अपना अनाज काट कर इकट्ठा किए होते थे। चाहे वह रबी की फसल हो या खरीफ की। किसी के अनाज की मडाई बैलों से होती थी, तो किसी की थ्रेशर से। उस टाइम इतने अत्याधुनिक संसाधन तो होते नहीं थे। धान और गेहूं की कटाई और मडाई का सारा काम हाथों से होता था। यह खलिहान मात्र कटे हुए अनाज के बोझ रखने और मडाई करने का स्थान ही नहीं होता था। बल्कि इसमें छिपी होती थी आपसी सहयोग की भावना। और इसी सहयोग में छिपा है लेढा यानी बढावन का रहस्य, जिसे हमारा बच्चा हमसे पूछ रहा था।हां तो बात छिडी है बढावन की। इस बात को आगे बढा ने से पहले हम आप से पूछना चाहते हैं कि क्या आप बढावन के बारे में जानते हैं या भूल चुके हैं अपने उन ग्रामीण परिवेस और संस्कृति को जिसमें छिपा है बढावन का रहस्य। आप सोचिएअब, मैं आप को बता रहा हूं। खालिहान में जब अनाज की मडाई हो जाती थी तो, अनाज के गल्ले पर गोबर की एक छोटी सी पिंडी रख दी जाती थी। इसी पिंडी को हमारे बडे बुजुर्ग कहते थे लेढा या बढावन।इसी गोबर की पिंडी मे वे देखते थे मंगलमूर्ति गणेश को, और ये गोबर के गणेश उसी ढेरी पर कायम रहते जब तक की अनाज की आखिरी बोरी भी भर कर घर चली नहीं जाती। कभी।कभी लोग जुमला भी कसते थे । गेहूं की राशि पर लेढा बढावन ।

बढावन का काम बस यहीं पर खत्म नहीं हो जाता, बल्कि इसके बाद चढावन की भी बारी आती थी यानि, खलिहान के आस.पास के थानों पर नई फसल का पहला दाना चढाया जाता था। हम इसे अंधविश्वास की संज्ञा भी दे सकते हैं, लेकिन नहीं। इसी चढावन के बहाने अन्न का दाना उन बेजुबान परिंदों को भी मिल जाता था, जो अपने चुग्गे के लिए मिलों की उडान भरते हैं।अब गांव का भी शहरीकरण होने लगा है। आबादी बढ रही है। इसी शहरीकरण और आबादी ने हमसे हमारा खलिहान छिन लिया है। जबसे कमबख्त ई कंबाइन आई है तब से हमारे आपसी सहयोग की भावना भी जाती रही। टैक्टर ने तो पहले ही हमसे हमार गोधन छिन ही लिया है।अब हालात यह है कि बेटी के विवाह में बारत को ठहराने के लिए भी जगह नहीं बची है, ससुरी आबादी और आधुनिकता जो फैल गई है। सुक्र है अब बारात जनवासा नहीं रहती नहीं तो बवाल हो जाता। अब तो गांवन में भी जंजघर या मैरिज पैलेस का इंतजाम करना पडेगा। जब खेत और खलिहान ही नहीं बचेंगे तो बच्चे तो पूछेंगे ही कि पापा बढावन का होला

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बढावन के बारे में जानकारी का आभार. यह सब शब्द और परंपरायें लुप्त होती जा रही हैं.

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