यह कविता मेरे वरिष्ठ सहयोगी आशुतोष प्रताप सिंह ने लिखी है। हालांकि वे अपना ब्लाग आशुतोषप्रतापसडाटब्लागस्पाटडाटकाम चलाते हैं लेकिन किन्हीं कारणों से यह कविता उनके ब्लाग पर नहीं बलि्क मेरे ब्लाग पर है। अनुरोध है कि इस कविता पर खुल कर प्रतिकि्रया दें जिससे की उनकी कुछ और रचनाओं को अपने ब्लाग पर स्थान देने का साहस कर सकूं। आशू जी की अन्य कविताओं के लिए आप चाहें तो उनके ब्लाग पर भी जा सकते हैं। लिंक यही मौजूद है।
पंकज मिश्रा
सत्य के लिए
प्राण उत्सर्ग
चाहिए
जीवट सा संघर्ष
न्याय के लिए
जिए जो
सिरजे तो माधुर्य
बांट दे अमिय
गरल को स्वयं
पिये जो
वो
विवेक से पूर
चूर आनंद नित्य
चितवन में
आश्विस्त
अभय
की दृिष्ट
कहा जिसने
देश के भाग्य
नहीं सोने दूं गा
जीवन भर मैं जाग
अहो मेरे भारत
तुझे सौभाग्य
नक्षत्रों की शैय्या दूंगा
और जागा जो
जिसके सिंहनाद से
टूटी मरणनींद
चीर तमघना
देश यह
धन्य बना
पुनरः
सुने यह देश
विवेकानंद
जन्म दे
कोई परमहंस दे
जो जिए
और मर सके
तेरे ही लिए
और,
यह कर न सके
तो पि्रय
नपुंसकों की
प्रसव भूमि
बन्ध्या कर दे।
4 टिप्पणियां:
पहले आप शब्द पुष्टिकरण हटाएँ - एक अनुरोध है बस।
संशोधन:
आश्विस्त - आश्वस्ति
दृिष्ट - दृष्टि
शैय्या - शय्या
पि्रय - प्रिय
__________________
लय और प्रवाह के सौन्दर्य से धन्य हुआ। उन्हें बधाई दीजिए।
शब्दों का इतना आत्मविश्वासी और सहज प्रयोग बहुत कम दिखता है। हिन्दी ब्लॉगरी में कविता का भविष्य उज्जवल है।
@
"और,
यह कर न सके
तो पि्रय
नपुंसकों की
प्रसव भूमि
बन्ध्या कर दे।"
इस तरह की अभिव्यक्ति न हो तो ही अच्छी। क्यों ? रचनाकार समझ जाएँगे।
bahuta achaa lekte ho muje dislecsiya hai nahe to appke prasansa mai or likhta. muje kewal padte bantahai.
sabdo mai kayo pdte ho gerejesh sahab athma ko deko.
आत्मीय बंधु, आपके स्नेह से अभिभूत हुआ। वस्तुतः, मैं ब्लाग और उसपर लेखन के विषय में अधिक नहीं जानता। रचनाकार नहीं हूं, भावुक मन है..बह जाता है।
"प्रथम प्रेम के छींटे हैं, दाग अभी गहरा होगा। सारे चेहरे दर्पण होंगे, जिनमें उनका चेहरा होगा।
पाती लिखते हाथ कंपेंगे, शब्द-शब्द पर पहरा होगा। बह जाएगा मन भावों में, उद्गम निष्ठुर ठहरा होगा।
हदयरक्त जल जाने दो, कुछ क्षण और तड़पने दो। भस्मशेष रह जाएगी, तो ही स्वर्ण सुनहरा होगा।"
मित्रो, सुधरता जाऊंगा, बस बताते रहिए कमी कहां है और इसी बहाने अपनापन जताते रहिए।
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