मंगलवार, सितंबर 14, 2010
राष्ट्र अभी तक गूंगा है!
मोहनदास करमचंद गांधी। यानी महात्मा गांधी। उनको लेकर हर व्यक्ति की अपनी- अपनी राय हो सकती है, लेकिन लोकतांत्रिक लिहाज से बहुदा लोगों की राय को ही हम मानते हैं। अंगुली हर किसी पर उठती है। राम, कृष्ण, मोहम्मद साहब, गुरुनानक और जीसस पर भी उठी तो गांधी तो हाड़-मांस के एक इंसान भर थे। उनका कहना था कि कोई भी राष्ट्र्र, राष्ट्र भाषा के बगैर गूंगा है। आज हिंदी दिवस है और हिन्दी हमारी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा नहीं। यानी आजाद भारत की कोई भी भाषा ही नहीं है। बगैर भाषा के ही हम अब तक गुजर कर रहे हैं।
कभी-कभी तो बात कमाल की लगती है। जो देश तकनीकी लिहाज से समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में आ गया हो, जो देश राष्ट्रमंडल जैसे खेलों आयोजन कर रहा हो। जिस देश का लोहा अमेरिका के राष्ट्रपति तक मानते हों, जो देश अपनी सभ्यता और संस्कृति पर नाज करता हो, उसकी कोई भाषा ही नहीं है। और मजे की बात तो यह भी कि इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास भी नहीं किए जा रहे, सिर्फ खानापूर्ति और कुछ नहीं।
दरअसल, हिंदी की राह में रोड़े तो तभी डाल दिए गए थे, जब इसे राजभाषा का दर्ज दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिया गया। लेकिन इसके साथ ही राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) के अनुसार संघ की राजभाषा के रूप में अंग्रेजी को हमारे ऊपर अनिश्चितकाल के लिए थोप दिया गया। शायद संसद को भी उस समय पता नहीं था कि यह क्या अधिनियम है और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे। इसमें कहा गया था कि जब तक देश के सभी राज्यों की विधानसभाएं अंग्रेजी छोड़कर हिन्दी अपनाने का प्रस्ताव पारित नहीं कर देतीं तब तक अंग्रेजी का ही प्रयोग यूं ही होता रहेगा। एक बात और जो यहां महत्वपूर्ण है। अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी को 15 वर्ष बाद वही मान-सम्मान मिलना था, जो हमारे राष्ट्रगीत और राष्ट्रीय ध्वज को प्राप्त है, लेकिन यह विडम्बना ही कही जाएगी कि 25 जनवरी 1964 में 15 वर्ष की अवधि पूरी करने से पहले ही राजभाषा अधिनियम 1963 के जरिए हिन्दी के पर इस तरह काट दिए गए कि वह कहीं की न रहे। सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि यह क्यों हुआ? दरअसल यह सब दबाव और आपसी कुचक्रों के कारण ही हुआ। हालांकि यह सही है कि कई लोगों ने इसका विरोध किया पर वे सफल नहीं हो सके। इस प्रकार हिन्दी को जो सम्मान मिलना चाहिए था, उस कहानी का वहीं दुखद अंत हो गया।
गौर करें तो पाएंगे कि शायद अंग्रेज हमसे ज्याद दूरदृष्टा थे। यही कारण था कि वे जब समझ गए कि भारत पर राज करना अब आसान नहीं है, तो उन्होंने यहां से निकलने में ही भलाई समझी। लेकिन जाते जाते वे अपनी आदत और दूरदृष्टि से ऐसा कर गए कि भारत कभी चैन से न बैठ पाए। इसीलिए पाकिस्तान के रूप में भारत का एक महत्वपूर्ण अंग अलग हो गया। आज सब जानते हैं कि अपने उसी हिस्से के कारण भारत को नित नई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। पाकिस्तान का तो जैसे एक सूत्रीय लक्ष्य है कि भारत के बढ़ते कदमों को रोकना। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ही वह खुद कहां है और क्या करेगा। भारत की बढ़त को रोका जाए उनके हुकमरानों की यही चाहत रहती है। यह बंटवारा यूं ही नहीं हुआ। इसके पीछे सोची समझी रणनीति और चाल थी जो शायद आज हमारी समझ में आ रही है। यह भी दीगर है कि बहुतों को अभी भी यह समझ नहीं आ रही है। अगर ऐसा न होता तो हिन्दी की हालत आज यह नहीं होती जो है। कहा गया है कि अगर देश के सभी राज्यों की विधानसभा इस बात पर मोहर लगा दें कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिए तो कौन है जो इसे रोक सकता है।
भारत अनेकताओं में एकता वाला देश है। यह बात कहने और सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है पर धरातल पर सोचें तो यही अनेकता कभी-कभी देश की दुश्मन भी बन जाती है। ब्रिटिश शासक शायद जानते थे कि देश के सभी राज्यों की विधानसभा हिन्दी को राष्ट्रभाषा की बात पर सहमत नहीं होंगी, इसीलिए वे ऐसा अनुच्छेद बना गए और हम हैं कि उसी लकीर के फकीर बने हुए हैं। कभी हम मराठी बन जाते हैं तो कभी पंजाबी। कभी बंगाली बन जाते हैं तो कभी बिहारी। इसीलिए एकजुटता के साथ हिन्दी को मान-सम्मान दिलाने का प्रयास नहीं करते।
14 सितम्बर आने पर हमें हिन्दी की याद आती है। अखबारों में लेख छप जाते हैं और ब्लॉग पर पोस्ट लिख दी जाती है। हिन्दी पखवाड़ा आयाजित किया जाता है और फिर साल भर के लिए हिन्दी को भुला दिया जाता है। हम भी अगले वर्ष फिर हिन्दी की बात करेंगे...
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8 टिप्पणियां:
माफ कीजिएगा,मैं हिन्दी के विकास के लिए किसी भी तरह भाषाई एकजुटता के एजेंडे का पक्षधर नहीं हूं।
बाकी आपकी बातें मुझे एक हद तक अकादमिक लगी।
अच्छी जानकारी के लिए धन्यवाद। इस देश में जो-जो नहीं होना चाहिए वही होता है उसी का नतीजा है कि हमें आज जहां होना चाहिए था आज हम वहां नहीं है। वैसे एक बात तो आपने सही कही कि हमें हिन्दी की याद भी आज ही के दिन आती है। आज ऐसे भी कई महान लोग हिन्दी पर लेख लिख रहे होंगे, जो व्यक्तिगत जीवन में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते होंगे।
हिंदी दिवस तो महज औपचारिकता रह गयी है........वास्तविकता में जो इसके पैरोकार बने हुए है....उन्ही के बच्चे शहर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में पढ़ते है आज...
हिंदी दिवस तो महज औपचारिकता रह गयी है........वास्तविकता में जो इसके पैरोकार बने हुए है....उन्ही के बच्चे शहर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में पढ़ते है आज...
इसे विडंबना कहें या देश का दुर्भाग्य कि हमारे देश की कोई भाषा नहीं है। सबसे ज्यादा टीस तो तब होती है कि देश और हिंदी प्रेम का दंभ भरने वाले कथित देशप्रेमी नेता लोकतंत्र के मंदिर में बैठे नुमाइंदों ने भी हिंदी दिवस पर कार्यक्रमों को संबोधित किया, भाषण दिए। लेकिन इसके लिए कोई ठोस पहल नहीं की। पंकज जी आपको साधुवाद। इस मुद्दे को आपने उठाया। आजादी को आधी शताब्दी से ज्यादा बीत चुकी है, लेकिन नेताओं ने कुछ नहीं किया। इस बीच कई मुद्दे आए और गए। धन्य हैं हिंदी के वे पुजारी जिन्होंने इसे जिंदा रखा है। अंग्रेजी आना बुरी बात नहीं है, लेकिन उसी के गुलाम बने रहना ठीक नहीं। आपने सही लिखा है कि जाते-जाते अंग्रेज भारतीयों के दिमाग में ऐसी अमरबेल डाल गए, जो नष्ट होने वाली नहीं है। मॉल संस्कृति में हर कोई अंग्रेजी का चंपू बनकर खुद को लाटसाब समझने लगता है, लेकिन भाई याद रखो, आखिर यह परदेसी है, अपने देश में रहना है, तो हिंदी में बात करो। गुजारिश में संसद में बैठे लोगों से हिंदी में काम करो, जिससे हाथ ठेला खींचने वाला भी समझ सके। गुजारिश है दिल्ली में बैठे मान्यवरों से गांधी के देश में गांधी को ही मत बेचो, नहीं तो...
हिंदी की स्थिति दुखद तो है, लेकिन फिर भी वो दिन दूर नहीं , जब हिंदी को अपना खोया हुआ सम्मान वापस मिलेगा । इस सुन्दर लेख के लिए आपको बधाई।
pankaj ji jitna keha-suna jaye kam hai..vastav mein hindi ke vikas ke pakshdhar hi kuch had tak iske vikas mein badhak hain :)
वर्ष में एक दिन हिंदी के नाम का दिया जलाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला.
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