शनिवार, अक्तूबर 02, 2010

वाह इंडिया, शाबाश मीडिया




इसे इत्तेफाक ही कहें कि जिस मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने पूरे जीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया उनकी जयंती से दो दिन पूर्व ही एक ऐसे मामले का निर्णय आया जो लम्बे समय से लटका था। खास बात यह भी की मुद्दा तब ही गरमाया जब गांधी को सिधारे कुछ ही साल बीते थे।

सुखद बात यह रही कि आजादी के इतने वर्षों बाद पहली बार लगा कि भारत गांधी, कबीर और बुद्ध का देश है। अगर 30 सितंबर को कहीं पत्ता भी खड़कता तो यह एक अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनता और दुनिया भर में भारत की जो फजीहत होती वह अलग से। पूरे देश ने एक बार फिर साबित किया कि वह अब किसी नेता और धार्मिक रंग में रंगने वाले नहीं हैं, अब वह अपनी बुद्धि का भी इस्तेमाल करेंगे। ऐसा नहीं है कि अब देश में कट्टरवादियों की कमी हो गई है। वे अब भी हैं और रहेंगे भी, लेकिन उनकी संख्या अब बहुत कम रह गई है और आम जनता अब उनके बहकावे में नहीं आने वाली। कट्टरवादी हिन्दुओं में भी हैं और मुसलमानों में भी। सच कहा जाए तो गांधी की मौत के बाद इस बार पहली बार लगा कि हमने सच माएने में उन्हें श्रद्धांजलि दी है। गांधी ने भी शायद ऐसे ही भारत का सपना देखा था, जो अब साकार होता दिख रहा है।


अपने जन्म से ही तमाम अवसरों पर कई तरह की आलोचनाओं का सामना कर रहे मीडिया ने भी इस बार एक नई इबारत लिख दी। अगर देश में कुछ नहीं हुआ तो इसके पीछे लोगों की समझदारी तो थी ही, लेकिन इसमें मीडिया की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। फैसला जब 24 सितम्बर को आना था तब भी मीडिया ने पूरा संयम बरता और जब पता लगा कि फैसला टल गया है तब भी पूरी ईमानदारी से काम जारी रखा। यह एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर देश के अरबों लोगों की ही नहीं, बल्कि विदेशियों की भी निगाहें थीं। वे भी जानना चाह रहे थे कि भारत में 1992 की अपेक्षा कुछ परिवर्तन और परिवक्वता आई है कि नहीं। ऐसे में कोई भी चैनल टीआरपी में आगे जा सकती थी, लेकिन किसी चैनल ने ऐसा नहीं किया। सबने यही कहा कि टीआरपी आती रहेगी, अगर देश का अमन-चैन गया तो वह वापस नहीं आएगा। चैनलों पर हिन्दू-मुस्लिम एकता का अद्भुत सामन्जस्य भी देखने को मिला। लगभग हर छोटे-बड़े चैनल पर दो एंकर बिठाए गए और उनमें एक हिन्दू और एक मुसलमान रहा। फैसला आने के बाद किसी एंकर के चेहरे पर खुशी या दुख का भाव देखने को नहीं मिला। यह स्थिति फैसला आने के दिन ही नहीं उसके दो दिन बाद तक जारी रही। दो दिन बाद तक किसी ऐसे चेहरे को टीवी पर नहीं दिखाया गया जो अतिवादी हो या फिर कुछ उल्टा-सीधा कह जाए। अगर वह आया भी तो अमन और शांति की अपील करता हुआ ही दिखा।

अब बात पिं्रट मीडिया यानी अखबारों की। किसी भी अखबार ने अपने संपादकीय में या फिर अपने किसी लेख में ऐसा प्रदर्शित नहीं किया वह किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष के लगाव रखता है। 1992 में कई अखबारों में यह आरोप लगा था कि वे किसी पार्टी विशेष के अखबार हैं, इस बार ऐसा कुछ भी नहीं दिखा। फैसले के अगले दिन मुख्य हेडिंग में भी किसी अखबार ने ऐसी हेडिंग नहीं दी जिससे लगे कि किसी की जीत और किसी की हार हुई है। हेडिंग में वही कहा गया जो एक लाइन मेें कुछ शब्दों के इस्तेमाल से लिखा जा सकता है।

सच कहूं तो मुझे खुद को बहुत दिन बाद गौरवान्वित महसूस करने का मौका मिला है। मैं आज शान से कह सकता हूं कि मैं भारत में रहता हूं और एक मीडियाकर्मी हूं। शुक्रिया इंडिया...

3 टिप्‍पणियां:

क्या लिखू, क्या कहूं? ने कहा…

का भइया का हाल है... अच्छा लिखा है... कभी हमारे यहां भी देख लिया करो...

कडुवासच ने कहा…

...behatreen post !!!

दीपक बाबा ने कहा…

पंकज जी बहुत ही उम्दा लिखा.......
साधुवाद.

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