शुक्रवार, मई 21, 2010
एक है झारखंड
झारखंड यानी झार या झाड़ का खंड। झार माने वन और खंड माने टुकड़ा। कुल मिलाकर वन का एक टुकड़ा। अपने नाम के ही अनुरुप यह वन प्रदेश है। लम्बे संघर्ष और आंदोलन के बाद १५ नवम्बर २००० को यह देश का २८वां राज्य बना। यानी भारत के नवीनतम प्रांतो में से एक। इसकी राजधानी है रांची। मैं झारखंड का इतिहास या भूगोल नहीं बता रहा बल्कि इस राज्य के दुख में शरीक होने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि इसे राज्य का दुर्भाग्य मानूं या फिर खंड-खंड जनादेश देने वाली वहां की जनता की गलती। कुछ भी हो कहीं न कहीं तो गड़बड़ है। पहले भी लिख चुका हूं और फिर लिख रहा हूं कि मैं राजनीति पर नहीं लिखता। यहां भी राजनीति पर नहीं लिखूंगा पर एक राज्य का दुख जरूर बांटूंगा।
सत्ता हथियाने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से जोड़-तोड़ का खेल खेलना कोई नई बात नहीं। हर राज्य में समय समय पर यह अमूमन होता ही रहता है। राज्य क्या केंद्र में भी होता है। लेकिन जैसे ड्रामा झारखंड में इन दिनों खेला जा रहा है या पहले खेला गया वह अपने आप में शर्मिंदा करने के लिए काफी है। पिछले करीब एक महीने से यहां जो हो रहा है उसे नाटक या ड्रामा से ऊपर और क्या कहा जाए समझ नहीं पा रहा हूं। खास बात यह कि खेल अभी जारी है। रोज नए-नए घटनाक्रम हो रहे हैं, पर मामला है कि सुलटने का नाम ही नहीं ले रहा। खेल में शामिल और नाशामिल नेता भी इसे चटकारे मार कर देख रहे हैं और खंड-खंड जनादेश देने वाली जनता भी सोच रही है कि यह हमने आखिर क्या किया। पिछले एक महीने में कई बार एेसे मौके आए जब लगा कि अब इसका पटाक्षेप हो जाएगा पर फिर वही ढाक के तीन पात। जहां से चले थे वही रह गए।
बात शुरुआत से करें तो पता नहीं क्या ग्रह नक्षत्र हैं जो यहां स्थायित्व नहीं आने दे रहे। राज्य को राजनीतिक ग्रहण लगा हुआ है। राज्य बने हुए एक दशक हो गया लेकिन कुर्सी के खेल के अलावा राज्य ने इस दौरान और कुछ देखा हो मुझे याद नहीं पड़ता। विकास की जिस अवधारणा के साथ राज्य का गठन हुआ वह कहां गई किसी को पता भी नहीं। ज्यादा पीछे और गहराई में न जाएं तो भी दिखता है कि राज्य में नक्सलवाद की समस्या मुंह बाए खड़ी है लेकिन नेताओं को सत्ता की कुर्सी के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता। चाहे वह अपने आप को अलग कहने वाली भाजपा हो या सबसे पुरानी पार्टी का तमगा रखने वाली कांगे्रस यहां सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। महान झारखंड मुक्ति मोर्चा की बात ही क्या है। पार्टी और उसके मुखिया के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के समान होगा।
अब बात यह कि आखिर इस मर्ज की दवा क्या है। एेसी स्थिति में अगर सरकार बनती भी है तो क्या वह स्थायित्व दे पाएगी। क्या वह मजबूत सरकार होगी। क्या विपक्ष अपनी बात प्रखरता से रख पाएगा। अगर विपक्ष कमजोर हुआ तो इससे मजबूत तानाशाह का ही जन्म होगा। और मान लीजिए कि फिर से चुनाव की नौबत आई तो क्या होगा। नेता तो मैदान में उतर जाएंगे। उनके पास धन भी है और बल भी। पर इस कवायद में जो खर्चा आएगा उसकी चोट किस पर होगी। आम आदमी पर ही ना। एक बात और इस ब्लॉग के माध्यम से, कि अगर इस बार चुनाव हो तो आप कृपया इस तरह का जनादेश मत दीजिएगा। यह सही है कि आपको खराब में कम खराब कौन इसका चुनाव करना पड़ता है पर फिर भी आप अपने स्तर पर कुछ एेसा जरूर करिए जो इस तरह की नौबत फिर न आए। तकरीबन सौ साल पहले १९०० में सबसे पहले राज्य गठन की मांग की गई। तब से २००० तक विभिन्न स्तरों पर आंदोलन हुए। इस दौरान राज्य ने क्या कुछ नहीं देखा और कुछ रह गया था जो अब देखना बाकी है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
11 टिप्पणियां:
saari samsyayen netaon dwara paida ki gayi hain, chahe jharkhand ho ya chhatisgarh
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
पंकज भाई आपने तो झारखण्ड़ की सच्चाई को बया किया है
http://kufraraja.blogspot.com
झारखण्ड की समस्या के लिए कुछ हद तक वहां की जनता जिम्मेदार है... जो अपने वोट का बेहतर उपयोग नहीं कर सकी.... राजनेता जनता के ह्रदय की आग पे अपने रोटियां सेंकते है... इस समय भी वहां यही चल रहा है...
वास्तविकता यह है कि जब चुनाव लड़ने वाले या लड़ सकने वाले दल जनता से दूर चले जाते हैं तो यह स्थिति उत्पन्न होती है।
क्या किया जाय , आज सत्ता ही विचारधारा है और पैसा ही लक्ष्य , सब कुछ करेंगे बेशर्मी की हद के पार जाकर भी ।
हर साख पर उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्ता क्या होगा
मेरा ब्लॉग -http://madhavrai.blogspot.com/
पापा का ब्लॉग
http://qsba.blogspot.com/
मैं झारखण्ड में पली बड़ी हूँ और वहां का माहौल पहले जितना ख़राब था अभी और भी ज़्यादा ख़राब हो गया है! इसके ज़िम्मेदार पूरी तरह से नेता हैं जो बड़ी बड़ी बातें करते हैं और जनता से झूठे वादे करते हैं पर कोई भी काम नहीं करते और सिर्फ़ पैसे कमाने के चक्कर में लगे रहते हैं! ये सब हालत देखकर बहुत अफ़सोस होता है!
kya khoob likha hai pankaj sir aapne...... aapne apani lekhni se kisi ek rajya ka nahi balki dekhe gaye sabhi rajyon ka dard blog par udel diya hai
यही है झारखंडी सत्य.
एक टिप्पणी भेजें