बुधवार, जुलाई 03, 2013

सालगिरह


आज तो जरूर घर में डांट पड़ेगी ही। कोई मुझे बचा नहीं पाएगा। यह सोचता हुआ मैं नियमित समय से करीब एक घंटे देरी से आफिस बाहर निकला। गाड़ी स्टार्ट की तो याद आया कि मोबाइल तो आफिस में ही छोड़ आया हूं। मेरे साथ अक्सर यही होता है, जब भी जल्दी में कोई काम करता हूं तो जल्दी की बजाय देर ही हो जाती है। खैर वापस जाकर मोबाइल लेकर गाड़ी स्टार्ट की और आगे बढ़ चला। गाड़ी की रफ्तार तेज और तेज होती जा रही थी। इसके साथ-साथ विचारों की शृंखला भी दू्रत गति से अनवरत जारी थी। कभी सोचता कि अभी क्या और कैसे करना है तो दूसरी ओर नौकरी को गाली देता जा रहा था। मन में आता था कि या तो करी या फिर  न करी। तनख्वाह तो एक दिन आती है, लेकिन उससे पहले ही तन-खा जाती है। ऐसी तनख्वाह से क्या फायदा। धीरे-धीरे खतम हुए जा रहा हूं। बचने का कोई रास्ता फिलवक्त दिख ही नहीं रहा। फिर विचार आया। आज जो कुछ भी कर पा रहा हूं, जो कुछ भी हूं। वह इस नौकरी की वजह से ही तो हूं। इसी से रोजी-रोटी चल रही है। और अगर नौकरी इतनी ही परेशान कर रही है तो क्यों नहीं इसे छोड़ देता। किसी ने पकड़ के तो रखा नहीं है। ये तो मेरी मजबूरी ही है न कि नौकरी किए जा रहा हूं। इसलिए आज तय कर लिया कि नौकरी के लिए कभी भला बुरा नहीं कहूंगा। खैर समय पर तय कर लिया। विचारों की तारतम्यता टूटी, खिड़की से बाहर देखा तो गाड़ी अपने आप वहीं आकर रुक गई थी जहां जाना था। फूलों की दुकान सामने थी। जैसे ही उतरा गीता को फोन आ गया। बोली, कहां हो? इससे पहले कि मैं कुछ जवाब दे पाता बोली, प्लीज झूठ मत बोलना क्योंकि वो आपको बोलना नहीं आता। मैंने कहा, फूल ले रहा हूं आता हूं। गीता बोली, ओह!!! अच्छा लगा यह जानकर कि आपको कम से कम यह याद तो है। अभी कितनी देर और लगेगी? बताया न रास्ते में हूं, जल्दी पहुंच जाउंगा। मैंने इतनी बात की और फोन काट दिया। ज्याद कुछ सुनने के मूड में मैं था नहीं। दुकान पर फूलों का जो सबसे बड़ा गुलदस्ता था वो लिया और आगे बढ़ गया। लेकिन, ये क्या। कुछ देर बाद गाड़ी के ब्रेक अपने आप दब गए। फिर से बाहर देखा तो याद आया कि अच्छा अभी केक भी तो लेना है। बेकरी में गया और आर्डर कर चुका केक जल्दी से पैक करवाया और गाड़ी में लेकर घर की ओर तेजी से गाड़ी बढ़ा दी। खाली सड़कों पर गाड़ी सरपट दौड़ी चली जा रही थी। घर अभी भी कुछ दूर ही है। इसी बीच मन में फिर से विचार कौंधा। शायद कुछ भूल रहा हूं। याद आया गीता के लिए तो कुछ लिया ही नहीं। फिर सोचा, जो लिया है वो उसी के लिए ही तो है। निर्णय लिया कुछ तो ले लेना चाहिए। पास ही एक जनरल स्टोर दिखा तो जाकर एक चाकलेट ले ली। अभी दुकान से बाहर निकल भी नहीं पाया था कि फोन की घंटी फिर बजी। समझ गया कि फोन किसका है। डांट के डर से ये भी नहीं देखा कि मेरी समझ सही है या कि नहीं। गाड़ी आगे बढ़ा दी। सड़कों पर सन्नाटा पसरा होना मेरे लिए फायदेमंद साबित हो रहा था। बस कुछ ही क्षणों में आखिर घर पहुंच ही गया। इससे पहले कि दरवाजे पर घंटी बजाता, गीता ने दरवाजा खोल दिया। उम्मीद के विपरीत, उसने मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया। उसके बाद मेरे सीने से लग गई। मैंने उसके सिर पर हाथ फेरा और कमरे की ओर बढ़ गया। अंदर देखा तो पता चला गीता ने पूरे कमरे का लेआउट ही बदल दिया है। कुछ नया करने की आदत के चलते वो अक्सर ऐसा करती रहती है। मैंने पूछा, मैं अपना सामान कहां रखूंगा तो बोली, यहां आप कुछ नहीं रखेंगे, बैडरूम में मैंने अलग जगह बना दी है। अपना जरूरी सामान आज से आप वहीं रखेंगे। मैं सिर हिलाता हुआ बैडरूम की ओर चला गया। वहां पहुंचकर मैं दंग रह गया। उसे भी शानदार ढंग से सजाया गया था। मैंने बाहर आकर पूछा, यह सब क्या किया। वे सिर्फ मुस्कुराकर रह गई और चाभी लेकर गाड़ी से सामान लेने चली गई। जब तक मैं रिलेक्स हुआ वे फूल और केक लेकर आ गई। फूलों को गले से लगाकर उसने मुझे थैंक्यू बोला। अब उसने केक को डिब्बे से निकालकर मेज पर सजा दिया। फूल भी मेज पर सजे रखे थे। उसने मुझे बुलाया और कहा, केक काटिए। मैंने चाकू से केक पर पहला बार किया वैसे ही वह बोली, हैप्पी मैरिज एनीवर्सिरी डियर पापा, शादी की सालगिरह मुबारक हो पापा। खुशी के इस मौके पर बरबस ही मेरे आंसू निकल पड़े। मैंने गीता को गले से लगा लिया। मैंने उसे और उसने मुझे भीगी पलकों से ही केक खिलाया। वहां रखे फूल भी उसने मेरे आंचल में भर दिए। मैंने लाई हुई चाकलेट उसे दी और कहा, बेटा गीता ये तुम्हारे लिए। चाकलेट हाथ में लेकर बोली, आज मेरे कुछ नहीं पापा। आज सब कुछ मम्मी के लिए ही होगा। मेरे लिए कल कुछ लेते आइएगा। बैडरूम में अपनी मां की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई, जैसे कोई भगवान के आगे खड़ा होता है। एक मिनट आंख बंद किए खड़ी रही फिर चाकलेट वहीं रखकर चली आई। मैंने पूछा, तुमने ये सब क्यों किया बेटा? तो बोली, पापा मैंने आपको हमेशा मम्मी और मेरे लिए सब कुछ करते देखा तो क्या मम्मी के बिना आई शादी की पहली सालगिरह मैं ऐसे ही जाने देती। आप और मम्मी हर साल इस दिन को सेलीबे्रट करते थे। मम्मी के जाने के बाद मेरी यह जिम्मेदारी थी कि मैं आपको आज खुशी दूं। मम्मी नहीं हैं तो क्या हुआ, मैं तो हूं। मेरी आंखों से फिर से आंसू बह निकले। सीता की तस्वीर देखकर उसे इतनी अच्छी बेटी देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं थे। बस मन गदगद हुआ जा रहा था।

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