बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा आठ में पढता था। एक गाना आया था मुक्काला, मुकाबला ओ लैला...ण क्या था इन गाने में नहीं जानता। सच कहूं तो तब तक संगीत क्या होता है इस बारे में भी कुछ नहीं जानता था। पता तो ये भी नहीं था कि इसका संगीत किसने दिया है, पर गाने को सुनकर झूम उठता था।
उन दिनों घर में डेक थी। कुछ कैसेट थे। पुरानी फिल्मों के। नया कैसेट उस समय पचीस से तीस रुपये तक आता था। घर से पैसे मिलते नहीं थे। सो हमसे है मुकाबला का नया कैसेट ले पाना कठिन था। उन दिनों कैसेट में डबिंग का खूब चलन था। किसी पुराने कैसेट में नये गाने डब करा लीजिए और जी भर के सुनिये। जिन गानों को खतम कराना है उनका चुनाव भी कठिन ही होता था। लेकिन फिर भी अब मुकाबला सुनना है तो किसी गाने को तो कुरबानी देनी ही पडेगी। एक गाने का चयन किया और उसकी जगह मुकाबला डब करावा लिया। दुकान वाले ने मुकाबला तो डब किया ही साथ ही उर्वशी उर्वशी करने एक और गाना भर दिया। घर लेकर आया तो दोनों गाने सुने। अब यह तय कर पाना दुश्कर हो गया कि जो गाना मैनें अपने मन से डब कराया है वह ज्यादा अच्छा है या फिर जो दुकान वाले ने खुद कर दिया वह। दोनों गाने इतने सुने की कैसेट की रील खराब हो गई पर उन गानों को सुनकर दिल नहीं भरा। लगातार वही गाने गुनगुनाने पर कई बार घर में डांट भी खानी पडी पर उसकी परवाह किसे थी। गाना अच्छा है तो गुनगुनाओ बस।
एक और वाकया। लखनऊ में था। इंटर की कोचिंग के लिए चारबाग के पानदरीबा में जाया करता था। उन दिनों सत्र समाप्त होने पर स्लेम बुक भरवाने का बडा चलन था। कई की स्लेम बुक मैने भरी तो मुझे भी लगा कि मैं भी बिछड रहे साथियों की कोई निशानी अपने पास रख लूं। तो साहब मैनें भी स्लेम बुक भरवानी शुरू कर दी। उसमें एक कालम होता था आपका पसंदीदा गाना। यकीन मानिये जितने लोगों ने उसे भरा उसमें करीब अस्सी फीसदी ने उस कालम में इश्क बिना क्या जीना यारों, इश्क बिना क्या मरना भरा था। उस समय तक संगीत के बारे में कुछ कुछ जानकारी होने लगी थी और ये जानता था कि इस गाने को संगीत से किसने संवारा है। मैंने भी ताल फिल्म का कैसेट लेकर सुनना शुरू किया तो फिर एक समस्या। यह तय करना कठिन हो गया कि कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है। इश्क बिना, नहीं सामने, कहीं आग लगे, ताल से ताल या फिर कोई और।
लखनऊ में ही था और दोस्तों को एआर रहमान के प्रति मेरी दीवानगी का अहसास हो चुका था। एक दिन बातों की बातों में एक दोस्त ने पूछ लिया कि अब तक रहमान ने जितनी फिल्मों में संगीत दिया है उनमें से सबसे अच्छा संगीत कौन सी फिल्म का है। अब मेरे जेहन में उन समय तक कि कई फिल्मों के गाने कौंधने लगे। रोजा, बाम्बे, रंगीला, हिन्दुस्तानी, तक्षक, वन टू का फोर, जुबैदा, साथिया, दिलसे, दौड, कभी न कभी, जीन्स, डोली सजा के रखना, पुकार, नायक, मीनाक्षी और भी न जाने कौन कौन सी। उस समय बात को टाल गया। कुछ दिन बाद फिर वही सवाल उठाया गया तो मैं कोई जवाब नहीं दे सका। जवाब इसलिए नहीं दे सका क्योंकि मेरे लिए यह तय कर पाना मुशिकल ही नहीं बलि्क असंभव सा है कि रहमान का कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है और कौन सा कम।
रहमान को जब पिछले साल जय हो के लिए आस्कर मिला तो इस बात की खुशी तो हुई की रहमान को आस्कर मिला है पर इससे ज्यादा खुशी इस बात की हुई कि रहमान मेरी पसंद है। आपकी पसंद पर जब सर्वश्रेष्ठ का ठप्पा लग जाता है तो शायद ऐसा ही होता है। कल जब रहमान को उसी गीत जय हो के लिए ग्रेमी अवार्ड मिला तो एक बार फिर यह सोचने पर विवश हुआ कि क्या जय हो रहमान की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अब तक रहमान ने जो रचा क्या वह इस लायक नहीं था कि उन्हें इतना सम्मान मिल पाता।
रोजा जानेमन, भारत हमको जान से प्यारा, रंगीला ले, तन्हा तन्हा यहां पर जीना, लटका दिखा दिया हमने, मुकाबला, मोरासाका मोराईया, ताल से ताल,छैंया छैंया, मोहे रंग दे बसंती, कभी न कभी तो आएगा वो, खोया खोया रहता है, कहता है मेरा खुदा, के सरा सरा,भनाभन दौड, राधा कैसे न जले, ओ युवा युवा, तेरे बिन, अजीमो शान शहांशाह, जाने तू या जाने न, कैसे मुझे तुम मिल गए, मसक्कली मटक्कली आदि इत्यादि में कौन ज्याद अच्छा है कौन कम तय कर पाना मेरे लिए अब भी असंभव है और हमेशा रहेगा। दरअसल मैं चाहता भी हूं कि यह असंभव रहे। जब लोग कहते है कि वाह रे रहमान और वार रे उनके चाहने वाले तो जो पुलक रोमांच होता है उसका बयान कर पाना संभव नहीं।
उन दिनों घर में डेक थी। कुछ कैसेट थे। पुरानी फिल्मों के। नया कैसेट उस समय पचीस से तीस रुपये तक आता था। घर से पैसे मिलते नहीं थे। सो हमसे है मुकाबला का नया कैसेट ले पाना कठिन था। उन दिनों कैसेट में डबिंग का खूब चलन था। किसी पुराने कैसेट में नये गाने डब करा लीजिए और जी भर के सुनिये। जिन गानों को खतम कराना है उनका चुनाव भी कठिन ही होता था। लेकिन फिर भी अब मुकाबला सुनना है तो किसी गाने को तो कुरबानी देनी ही पडेगी। एक गाने का चयन किया और उसकी जगह मुकाबला डब करावा लिया। दुकान वाले ने मुकाबला तो डब किया ही साथ ही उर्वशी उर्वशी करने एक और गाना भर दिया। घर लेकर आया तो दोनों गाने सुने। अब यह तय कर पाना दुश्कर हो गया कि जो गाना मैनें अपने मन से डब कराया है वह ज्यादा अच्छा है या फिर जो दुकान वाले ने खुद कर दिया वह। दोनों गाने इतने सुने की कैसेट की रील खराब हो गई पर उन गानों को सुनकर दिल नहीं भरा। लगातार वही गाने गुनगुनाने पर कई बार घर में डांट भी खानी पडी पर उसकी परवाह किसे थी। गाना अच्छा है तो गुनगुनाओ बस।
एक और वाकया। लखनऊ में था। इंटर की कोचिंग के लिए चारबाग के पानदरीबा में जाया करता था। उन दिनों सत्र समाप्त होने पर स्लेम बुक भरवाने का बडा चलन था। कई की स्लेम बुक मैने भरी तो मुझे भी लगा कि मैं भी बिछड रहे साथियों की कोई निशानी अपने पास रख लूं। तो साहब मैनें भी स्लेम बुक भरवानी शुरू कर दी। उसमें एक कालम होता था आपका पसंदीदा गाना। यकीन मानिये जितने लोगों ने उसे भरा उसमें करीब अस्सी फीसदी ने उस कालम में इश्क बिना क्या जीना यारों, इश्क बिना क्या मरना भरा था। उस समय तक संगीत के बारे में कुछ कुछ जानकारी होने लगी थी और ये जानता था कि इस गाने को संगीत से किसने संवारा है। मैंने भी ताल फिल्म का कैसेट लेकर सुनना शुरू किया तो फिर एक समस्या। यह तय करना कठिन हो गया कि कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है। इश्क बिना, नहीं सामने, कहीं आग लगे, ताल से ताल या फिर कोई और।
लखनऊ में ही था और दोस्तों को एआर रहमान के प्रति मेरी दीवानगी का अहसास हो चुका था। एक दिन बातों की बातों में एक दोस्त ने पूछ लिया कि अब तक रहमान ने जितनी फिल्मों में संगीत दिया है उनमें से सबसे अच्छा संगीत कौन सी फिल्म का है। अब मेरे जेहन में उन समय तक कि कई फिल्मों के गाने कौंधने लगे। रोजा, बाम्बे, रंगीला, हिन्दुस्तानी, तक्षक, वन टू का फोर, जुबैदा, साथिया, दिलसे, दौड, कभी न कभी, जीन्स, डोली सजा के रखना, पुकार, नायक, मीनाक्षी और भी न जाने कौन कौन सी। उस समय बात को टाल गया। कुछ दिन बाद फिर वही सवाल उठाया गया तो मैं कोई जवाब नहीं दे सका। जवाब इसलिए नहीं दे सका क्योंकि मेरे लिए यह तय कर पाना मुशिकल ही नहीं बलि्क असंभव सा है कि रहमान का कौन सा गाना ज्यादा अच्छा है और कौन सा कम।
रहमान को जब पिछले साल जय हो के लिए आस्कर मिला तो इस बात की खुशी तो हुई की रहमान को आस्कर मिला है पर इससे ज्यादा खुशी इस बात की हुई कि रहमान मेरी पसंद है। आपकी पसंद पर जब सर्वश्रेष्ठ का ठप्पा लग जाता है तो शायद ऐसा ही होता है। कल जब रहमान को उसी गीत जय हो के लिए ग्रेमी अवार्ड मिला तो एक बार फिर यह सोचने पर विवश हुआ कि क्या जय हो रहमान की सर्वश्रेष्ठ रचना है। अब तक रहमान ने जो रचा क्या वह इस लायक नहीं था कि उन्हें इतना सम्मान मिल पाता।
रोजा जानेमन, भारत हमको जान से प्यारा, रंगीला ले, तन्हा तन्हा यहां पर जीना, लटका दिखा दिया हमने, मुकाबला, मोरासाका मोराईया, ताल से ताल,छैंया छैंया, मोहे रंग दे बसंती, कभी न कभी तो आएगा वो, खोया खोया रहता है, कहता है मेरा खुदा, के सरा सरा,भनाभन दौड, राधा कैसे न जले, ओ युवा युवा, तेरे बिन, अजीमो शान शहांशाह, जाने तू या जाने न, कैसे मुझे तुम मिल गए, मसक्कली मटक्कली आदि इत्यादि में कौन ज्याद अच्छा है कौन कम तय कर पाना मेरे लिए अब भी असंभव है और हमेशा रहेगा। दरअसल मैं चाहता भी हूं कि यह असंभव रहे। जब लोग कहते है कि वाह रे रहमान और वार रे उनके चाहने वाले तो जो पुलक रोमांच होता है उसका बयान कर पाना संभव नहीं।
4 टिप्पणियां:
रहमान साहब के बारे में हमारे विचार भी आप जैसे ही हैं. 'जय हो' गाना हमें भी पसंद है मगर इस बात से मैं इनकार नहीं कर सकता की कई और गाने रहमान साहब के ऐसे हैं जो मुझे इससे कही ज्यादा पसंद हैं. अंग्रेजी फिल्म में होने के कारण ये गाना वैश्विक स्तर पर जगह बना पाया और रहमान साहब को दुनिया ने जान लिया. अगर पहले के गाने दुनिया सुन ले तो शायद अभी भी रेटरोग्रेड में सारे ओस्कार उन्हें दे दिए जाएँ!!!
रहमान तो हमारी भी पसंद हैं.
i m totally rahmania.. mere hisab se vo apna best se bhi best hamesha dengen...
vah-vah
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